सेसर सृजनशील कर्मयोगीः जगन्नाथ

June 9, 2020
धरोहर
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 लेखक : भगवती प्रसाद द्विवेदी

भोजपुरी के गालिब के रूप में लोकप्रिय जगन्नाथ जी 19 जनवरी 2020 के छियासी बरिस के उमिर पूरा क के सतासीवां साल में डेग बढ़वलें रहनीं। उहां के व्यक्तित्व-कृतित्व पर जब परास ( संपादकः डॉ. आसिफ रोहतासवी ) के ताजा अंक हमरा अतिथि संपादन में छपि के आइल, त फगुआ का पहिले उहां के अंक देखत दिल से हुलसल रहनीं, फेरू दार्शनिक भाव से कहनीं-‘अब हमरा चले के चाहीं, अब कवनो लालसा शेष नइखे रहि गइल।’

‘ना-ना  अइसन मत कहीं,  हमनीं के मार्गदर्शन करत रउआं शतक पूरा करे के बा।’ कहत ई तय भइल कि 17 मार्च के उहां के साधनापुरी के आवासे पर ‘परास’  के विशेषांक के लोकार्पण होई। 14 मार्च के फजीरहीं उहां के फोन से सूचना लिहनी कि कइसे-कइसे आयोजन होई आ के-के ओमें शामिल होई। बाकिर ओही दिन सांझ के बेरा जब उहां के बेटा संजय के फोन आइल त हमरा कठिया मारि दिहलस- ‘ चाचा जी, बाबूजी ना रहनीं। सांझ खा साढ़े चार बजे पानी पीयत घरी अइसन सरकल कि बेहोश हो गइनीं आ सांस टंगा गइल।’ घर-परिवार के लोगन के सेवा-टहल के मोको ना दिहनीं आ उहां के परान-पखेरू उड़ि गइल-‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया…’

कविवर जगन्नाथ भोजपुरी-गजल के हलका में इतिहास रचेवाला एगो अइसन गौरव-स्तम्भ के नाव ह, जेकरा बेगर ना त भोजपुरी गजल के चरचा कइल जा सकेला, ना ओकर इतिहासे लिखल जा सकेला। खाली अतने ले ना, भोजपुरी के कई नामी-गिरामी गजलगो के एकल संग्रहन के व्याकरणिक दोष दूर करे आ उन्हनीं के संशोधित-परिमार्जित क के खास बनावे के श्रेय उहें के सलाहियत के जात बा। एकरा संगहीं, गजल के शास्त्रीयता, छंद-विन्यास आ विधागत विकास-यात्रा पर प्रकाशित उहां के प्रामाणिक समालोचनात्मक पुस्तक गजल लिखे वालन आउर भोजपुरी-गजल पर शोध करेवालन- दूनों खातिर निहायत जरूरी बाड़ी स।

जगन्नाथ जी के सिरिजनशील व्यक्तित्व बहुआयामी रहल बा आ गीत, गजल, समालोचना-शोध का संगहीं कहानी अउर नाटक में उहां के विशेष सृजनात्मक अवदान रेघरियावे-जोग रहल बा। 1966 से लेके 1978 का बीच उहां के कहानी भोजपुरी कहानियां आ ‘भोजपुरी कथाकहानी‘ में छपत रहली स, जिन्हनीं में गांव के ऊबड़-खाबड़ जमीन पर आदर्शोन्मुख जथारथ के बिनावट आ सकारात्मक सोच मरम के बेधे बेगर नइखे रहत। ओह कहानियन के संग्रह 2009 में बांचलखुचल शीर्षक से प्रकाशित भइल रहे। अइसहीं, सात रंग के छोट-छोट एकांकी नाटकन के संग्रह सात रंग 2010 में छपि के चर्चित भइल रहे। हंसिए-हंसी में गंभीर घाव  करेवाला सातो एकांकी चोट-कचोट से लैस बाड़न स। भोजपुरी-कविता के एकलउती मानक पत्रिका ‘कविता‘ (तिमाही) के यादगार संपादन-प्रकाशन क के उहां के एगो आउर मील के पाथर गाड़े में कामयाबी हासिल कइले रहलीं। सन् 1999 से 2012 तक लगातार प्रकाशित ओह पत्रिका के हरेक अंक संग्रहणीय आ ऐतिहासिक महत्व के होत रहे। साहित्यिक पत्रकारिता खातिर उहां के ई समरपन कबो ना भुलाइल जा सके।

बाकिर, एह सबके बावजूद जगन्नाथ जी मूलतः कवि हईं  आ उहां के साफ-साफ मानत रहल बानी  जे कविता मानवीय संवेदना के लयात्मक अभिव्यक्ति ह । अपना आत्मखत में उहां के कहलहूं बानी – ‘ लिखला से हमरा  सुकून मिलेला । हमरा रचनन में जीवन के विभिन्न पक्षन से जुड़े के प्रयास होला, बाकिर कवनो खास पक्ष के लेके आग्रह ना होला।’

जगन्नाथ जी के गीतन के पहिला संग्रह पांख सतरंगी 1967 में प्रकाशित भइल रहे, जवना में कुदरत के जियतार छटा देखते बनेला। एक तरफ बिछुड़न के टीस, उहंवे दोसरा ओर संघर्षशीलता के अविराम सफर। लोकधुनन में आधुनिक संदर्भन के अभिव्यक्त करत गीतकार कबो ‘भरि जाला अंखिया सपनवां हो रामा, चइत महिनवां‘ जइसन चइता गीत के सिरिजन करत बा त कबो जनम जनम के आस कबे मन के बुति गइल रहित निर्मोही / छनभर एको बेर कबो जे सांसन के दुलरवले रहितs’ नियर भावप्रवण गीतन के। कवि मन के दियना बारे के आवाहन करत कहत बा- ‘थाके राह भले, ना थाके मन के भरल हियाव कबो रे/ आवे माया में किनार के ना जिनगी के नाव कबो रे/ लहरलहर के तालताल पर नांचत चले बहार रे/ मंजिल अबहीं दूर बटोही, मन के दियना बार रे!’

हालांकि ‘पांख सतरंगी‘ में दूगो गजलो संग्रहित रहली स, बाकिर 1977 में जब जगन्नाथ जी के पैंतीस गो गजलन के मोतिन के लर ‘लर मोतिन के‘ शीर्षक से प्रकाशित भइल, त ऊ भोजपुरी गजल-लेखन के दिसाईं ‘टर्निंग प्वाइंट’ साबित भइल। ओइसे त, भारतेन्दु युग के तेगअली ‘तेग’ के इश्किया शायरी से भोजपुरी गजल के शुरुआत उनइसवीं सदी के आखिरी चरन में हो गइल रहे, जब सन् 1885 में उन्हुका तेइस गजलन के संग्रह ‘बदमाश दर्पण‘ के भोजपुरी गजल के पहिल एकल संग्रह होखे के गौरव मिलल रहे, बाकिर सांच कहल जाव त आधुनिक हिन्दी-भोजपुरी गजल के उत्कर्षकाल 1976 से शुरू होत बा, जब दुष्यंत कुमार के  समय-संदर्भ आ आज काल्ह के जरत-बरत जमीनी हकीकत से जुड़ल गजल तहलका मचवली स आ उहंवें से गजल-लेखन में एगो अइसन मोड़ आइल, जवन गजल के दिसा बदलि दिहलस आ तेवर आउर तल्खी का संगे गजल कहे के नया परिपाटी शुरू भइल। तब आधुनिक गजल अपना के लौकिक प्रणये ले सीमित ना रखलस। एकरा दायरा के फइलाव इश्केमजाजी आ इश्केहकीकी से लेके तमाम सामाजिक विसंगति-विद्रूपता ले होत चलि गइल, जवन जनजीवन से एकर गहिर जुड़ाव आ दृष्टि-संपन्नता के सूचक बा। ओकरे नतीजा रहे-1978 में जगन्नाथ जी के संपादन में ‘भोजपुरी के प्रतिनिधि गजल‘ के प्रकाशन। तबहूं ई कमी शिद्दत से महसूसल जात रहे कि भोजपुरी गजल के एगो अइसन संकलन आवे,जवना में हर पीढ़ी के प्रतिनिधि गजलगो अपना चुनिंदा रचनन का साथे शामिल होखसु आ ओह गजलन के जरिए सुधी समालोचक, आ शोधकर्ता हरेक रचनिहार के मूल्यांकन का संगही समकालीन भोजपुरी गजल के दसा-दिसा निर्धारित करि सकसु। एकर भरपाई  भइल 2003 में जगन्नाथ जी एह पांती के लेखक के संपादकत्व में 151 गजलन के गुलदस्ता ‘समय के राग‘ के प्रकाशन से, जवना में सोरह प्रतिनिधि गजलकारन के चुनिंदा गजलन के संकलन मूल्यांकनपरक आलेख का साथे छपल रहे। नवकी से लेके वरिष्ठतम पीढ़ी तक के गजलगो के प्रतिनिधित्व भोजपुरी गजल के उठान आ बढ़न्ती में ओह सभ लोगन के अवदान के रेघरियावल गइल रहे। हर पीढ़ी के मौजूदगी आ हर रंग के गजल एकर अतिरिक्त खासियत रहे।

एकरा पहिले 1997 में गजलगो जगन्नाथ के कलम से गजल लिखे आ शोध करेवालन खातिर गजल के शास्त्रीयता पर केन्द्रित किताब ‘गजल के शिल्प विधान‘ के रचना भइल रहे आ ओही साल भोजपुरी गजल-लेखन के इतिहास ‘भोजपुरी गजल के विकासयात्रा‘ शीर्षक से लिखाइल रहे। एही क्रम में 1999 में छपल उहां के एगो अउर किताब ‘हिन्दीउर्दूभोजपुरी के समरूप छंद‘ भोजपुरी छंदशास्त्र खातिर एगो अनमोल देन बा, जवना में हिन्दी-उर्दू-भोजपुरी के छंदन में अचरज-भरल समानता ना खाली तार्किक ढंग से विवेचन-विश्लेषण कइल गइल बा, बलुक अइसन चौसठ छंदन के तीनों भाषा के उदाहरणों दिहल गइल बा।

खुद के तलाशत‘ बेयासी बरिस के उमिर में छपल आदरणीय जगन्नाथ जी के समकालीन गजलन के दोसर संग्रह रहे, जवना के जद में रहे एह लोकतांत्रिक देस के नियंता जन-गण के नियति आ रोज-रोज के जिए-मूवे के बेबसी। जिनिगी के जद्दोजहद गजलगो जगन्नाथ के गजलन के कथ के स्थायी भाव रहल बा। इन्हनीं में तरल रागात्मकता बा, त आंतर के ताकत देवेवाली दनाउर आगियो बा। प्रयोगधर्मिता उहां के गजलन के बनल-बनावल लीखि से अलगावेले आ मुहावरा-लोकोक्तियन के सुघर इस्तेमाल रचना के जियतार बना देले। ‘पानी’ वाली गजल के त हरेक शे’र में एगो चटख मुहावरा सलीका से मोती मतिन गुंधाइल बा- ‘जिंदगी का निसा बढ़ल बाटे / उम्र के बा उतर गइल पानी/ खुद के ऐनक में देख के लागल / जइसे घइलन बा पर गइल पानी / कइसे ऊ शख्स अबो जिंदा बा / जेकरा आंखिन के मर गइल पानी

भोजपुरी मिजाज आ बिम्ब-प्रतीकन के अनछुअल इस्तेमाल उहां के गजलन के खूबी में चार चान लगा देत बा। ‘नेह के झिंटिकी‘ गिरते ‘मन के कुअंना में लहरेलहर‘ हो जाए वाला दृश्य आ दरद पाके गजल देबे आ रउरा नांवे ‘बयाना’ करे के वादा जगन्नाथे जी जइसन समरथी / गजलगो के बूता के बा। कवि के आस्था बा- ‘जिंदगी भर जरेमरे के बा / मेघ अस रातदिन झरेके बा।

शहरो से अधिका बनावटी, सवारथी आ सियासी दांव-पेंच के पर्याय बनल आधुनिक गांव से जगन्नाथ जी भलहीं विमुख हो गइल होखीं, बाकिर उहां के आंतर के एगो कोना-अंतरा में गांव हमेशा जिंदा रहल, जवन कवि-मन के कचोटत-घवाहिल करत रहे। तबे नू गजलन के अशआर गाहे-बगाहे गंवई संदर्भ से जुड़ि के गहिर संवेदना जगावत बाड़न स। किछु बानगी देखीं- ‘गांव बा, एगो असरा रहल हs मगर / अब त सुनलीं ह, ऊहो शहर हो गइल‘, ‘गांव के छोड़ के शहर भगलीं / हमरा लेखा गंवार के होई!’, पता ना, बा बांचल कि ना हमरा गांवें / ई राउर शहर हs, शराफत त होई!’, गांव के खोज में गइलीं त मिलल गायब ऊ / फेरू शहरे में ना अइतीं, त अउर का करितीं!’, आंख में बा शहर, गांव बा प्रान में / बानीं अहजह में, अबहीं विचारे त दीं!’, लाख चहलो प बसलीं ना हम गांव में / गांव हमरा में, बाकिर, बसल रह गइल ‘…

बाजारवादी सोच में तार-तार होत नेह-नाता, सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-नैतिक मूल्यन के पतनशीलता आ लोप होत मनुजता पर रचाइल एक से बढ़िके एक शे’र एह संग्रह के बेशकीमती बनावत बाड़न स- ‘खोज इंसानियत के जारी बा / खनतलासी अबे लियाइल ह‘, काट जो ली, त ना लहर आई / आदमी जात हs, चिहाईं जनि‘, ‘ बा नजर भले रउआ / पास ना नजरिया बा‘, जिअल बाटे मुश्किल, मरल बाटे मुश्किल / पता ना कइसन ई पहल हो गइल बा‘, हाथ से हाथ मिल जा, इहे बा बहुत / दिल से दिल के मिले के चलन उठ गइल‘…

कविता के मौजूदा सेहतो पर कवि फिकिरमंद बा-गूंग शब्दन के कविता भइल संकलन / व्यंजना के बुला अपहरन हो गइल।‘ एह दिसाईं गजलगो के सलाहियतो गौरतलब बा- ‘बात अइसन लिखीं कि वक्त कहे / शायरी बेजबान तक पहुंचल।कवि कतई निराश नइखे, काहेंकि ओकरा भीतर के आल्हर रचनिहार के जिजीविषा बरकरार बिया। कविता के इहे भूमिका होइबो करेला। कवि के कहनाम बा- ‘रोशनी बा, भले बेमरिहा बा / ई नया प्रातः ह, चिहाईं जनि!’, ‘ जिंदगी लाख बुढ़ाइल, बाकिर / साधसपना त अबहूं आल्हर बा‘,  ‘ऊ त जीजी के ना मरे जनलन / हमरा मरमर के जिए आइल बा‘…

भाव-भाषा के स्तर पर जगन्नाथ जी के शीर्षस्थ गजलगो मानत प्रो.हरि किशोर पांडेय जी ‘झकोर‘ के गजल विशेषांक ( जून-सितंबर,1981 ) में लिखले रहलीं-‘हमरा समझ से भोजपुरी गजल में सबसे बड़ नाम बा-जगन्नाथ। भोजपुरी-गजल के अपना जगन्नाथ पर गर्व होखे के चाहीं। जगन्नाथ भाव-भाषा, दूनों में गजल के मिजाज जइसे समझले बाड़न, ओइसहीं कवनो भोजपुरी-गजल लिखनिहार के समझे के चाहीं। गजल में कथ्य के गहराई ओकर दबगर भइल ना ह, महीन भइल ह, कोमल-सूक्ष्म भइल ह। औरत के मन जब एह दशा के भोगेला, त ऊ फेर में पड़ जाले; ओठ कुछ बुदबुदाला, शब्द आके थथमे लागेला, आंख मछरी बन जाले, गाल लाल हो जाला, गर्दन झुक जाला, धड़कन बढ़ जाला, ओकरा कथ्य तक जाए के ईहे व्याकरण ह, ईहे भाषा ह- ‘तनिकी हवा में नेह के अतना जे हिल गइल / मन ना भइल ई हो गइल पीपर के बुला पात। ( जगन्नाथ )’

चाहे छोट बहर के गजल होखो भा बड़ बहर के, दोहा छंद में रचाइल होखो भा दोसर कवनो रूप में, जगन्नाथ जी अपना गजलन के बेरि-बेरि से मांजत रहीं, तरासत रहीं आ नया-नया चमक, आभा आउर असर पैदा करत रहीं। एही से ‘लर मोतिन के‘ के किछु शे़’र कथ-शिल्प-संवेदना का स्तर पर अउर बेहतर छाप छोड़त दोसरका संग्रह में मौजूद बाड़न स। उहां के कहलहूं बानीं- तलासत रहीला अपना के / लोगन के नजर में / तरासत रहीला अपना के / अपना नजर से।‘ ई तलाश आ तराश सिरिफ रचने के ना बलुक इंसानो के उम्दा आ मुकम्मल बनावेला। गजलगो  के एह शे’र का ओर तनी अखियान करीं- ‘बहुत देखलीं रउवा उनका के अब तकतनी खुद में खुद के तलाशत त देखीं।

पिछिला चालीस साल से कविवर जगन्नाथ जी के नेह-छोह हमरा मिलत आवत रहे। जब नब्बे के दशक में साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘अस्मिता‘ गठित भइल रहे, त उहां के अध्यक्ष आ हमरा के महामंत्री बनावल गइल रहे। जब भोजपुरी कविता के पहिल पत्रिका ‘कविता‘  के श्रीगणेश भइल, त सह-संपादक का रूप में उहां के  संगे काम करे के मोका मिलल। गजल संकलन समय के राग हमनी के दूनों आदिमी के संपादन में छपल रहे। डेगे-डेग उहां के छत्रछाया हमरा पर बनल रहत रहे। अब हम सांचहूं अनाथ हो गइलीं।

जगन्नाथ जी जिनिगी में बहुते झंझावात झेलनीं, इहां ले कि आपन सबसे प्रिय होनहार जवान बेटा आ किशोर नातियो के गंवा दिहनीं, बाकिर एह सभके बावजूद चट्टान नियर सृजन-पथ पर अडिग रहनी आ कबो चेहरा प शिकन के भाव आवे ना दिहनीं। छल-छद्म से कोसन दूर उहां के विसवास आत्मीय छोह-सनेह, सहजता आ दरियादिली में रहे।

सुधी पाठकन, शोधार्थियन के परेमे उहां खातिर सभसे बड़ सम्मान रहे। ना कवनो पुरस्कार के चाह, ना पैरवी-तिगड़म में आस्था। ना कबो मूल्य से डिगनीं, ना कवनो समझौता कइनीं। भोजपुरी साहित्य-संस्कृति आ साहित्यिक पत्रकारिता के शीर्ष उन्नायकन में एक एह सेसर सृजनशील कर्मयोगी के स्मृति में हम लोर से सउनाइल अंजुरी से सरधा के फूल चढ़ावत बानीं।

(शताधिक पुस्तकन के प्रणेता आ उत्कृष्ट बालसाहित्य सर्जना खातिर बालसाहित्य भारती सम्मान प्राप्त लेखक भगवती प्रसाद द्विवेदी हिन्दीभोजपुरी के नामचीन कथाकार, कवि, समालोचक आ लोकसाहित्य के अध्येता हईं ।)

 

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