चंपारण के गान्ही: पं. राजकुमार सुकुल

September 27, 2021
आवरण कथा
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भगवती प्रसाद द्विवेदी

महल के कंगूरा त अनसोहातो सभकरा के लोभावेला, बाकिर नेंव में दबल ईंटा के ना त केहू कीमत बूझेला, ना ओने निगाहे धउरावे के जरुरत महसूस करेला। इहां ले कि कंगूरो के एह तथ के एहसास ना होला कि नेंव के ईंटे के बदउलत ओकर माथ गरब से उठल बा। देश के आजादी के लड़ाई में जे आपन तन-मन-धन, सउंसे जिनगी हंसते-हंसत निछावर कर दिहल आ आखिरी दम ले गोरन के दमन-चक्र के खिलाफ जमिके लोहा लिहल, ओकरा के आजु  हमनीं के कतना जानेलीं जा! हालांकि ओह लोगन के ई मनसो ना रहे कि लोग ईयाद रखो, बाकिर हमनिओं के त कुछु फरज बने के चाहीं। चंपारण के गान्हीं पं.राजकुमार सुकुल नेंव के ओइसने ईंटा रहलन, जेकर लगातार उपेक्षे होत आइल बा। निलहा गोरन के अमानवी अनेति-अतियाचार ना खाली ऊ अपना आंखी देखलन, बलुक खुद ओकर भुक्तभोगियो रहलन। उन्हुके पहल कदमी से गान्हीं जी आ सउंसे  देश के धियान एह अमानवीयता के ओर गइल अउर तब ओह आन्दोलन के लुत्ती दुनिया-जहान में जंगल के आगी जइसन फइलल। इहे कारण बा कि अहिंसक आन्दोलन के ओह पहिलका प्रेरणास्रोत के केहू ‘चंपारण के गान्हीं’ कहेला, केहू ‘सतवरिया के संत’ संबोधित करेला, त केहू बिहार के अख्यात गान्हीं कहेला। उन्हुकरे भागीरथ प्रयास के परिणाम रहे कि गान्ही जी ना सिरिफ पहिलका बेर बिहार आ चंपारण के धरती पर अइनी बलुक उहवां अहिंसक सविनय अवज्ञा आंदोलन के अगुवाई क के शोषित किसान-मजूरन के ऐतिहासिक जीतो दियववनी। एह दिसाई लोकनायक जयप्रकाश नारायण के कहनाम रहे-‘स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में श्री राजकुमार शुक्ल का नाम अमिट रहेगा, क्योंकि इन्हीं के द्वारा गांधी जी को चंपारण में निलहे गोरों के अत्याचारों की कहानी मालूम हुई और उन्होंने चंपारण पहुंचकर सत्याग्रह छेड़ने का निश्चय किया। चंपारण सत्याग्रह गांधी जी की अहिंसक लड़ाई का पहला अध्याय राजकुमार शुक्ल की प्रेरणा से शुरू हुआ।’

चंपारण में निलहा साहेबन के दइती अनेत के पराकाष्ठा। नील के खेती करे खातिर अलचार छोड़ सभे छोट-बड़ किसान- रैयत गाहे-बगाहे किसिम-किसिम के ‘कर’ के भरपाई के भार, इचिकियों चूं-चपड़ कइला, मुंह खोलला भा अलचारी जाहिर कइला पर कठोर सजा। नील के खेती ना सिरिफ ओह उपजाऊ जमीन खातिर, बलुक सउंसे मनुजातो खातिर सराप रहे। तबे नू एह भावभूईं पर मंचित नाटक ‘नील दर्पण’ देखते ईश्वर चंद्र विद्यासागर जी अगिया बैताल हो गइल रहलन आ निलहा गोरा बनल कलाकारे के जूता से पिटाई कइले रहलन।

आगा चलिके राजकुमार सुकुल जब 1916 में 26-30 दिसंबर के आयोजित लखनऊ कांग्रेस में उहां के दुरदसा आ उत्पीड़न के दारुण दास्तान सुनवले रहलन, त शर्म-शर्म के आवाज गूंजि उठल रहे आ पहिला बेर राष्ट्रीय मंच पर ई ममिला रोशनी में आइल रहे। निलहन के आतंक के करुण कहानी पं. राजकुमार सुकुल के भाषन के जबानी-‘चंपारण के निलहों और रैयतों के बीच संबंध बहुत दिनों से सौहार्द्रपूर्ण नहीं रहा है। निलहे पहले तो रामनगर और बेतियाराज से जमीनों के ठेके प्राप्त करते है और नील की खेती आरंभ करते है। अनुबंध की शर्तों के अनुसार, किसान के प्रत्येक बीघा में तीन कट्ठा जमीन रैयतों द्वारा नील की खेती के लिए अलग कर दी जाती है, लेकिन निलहे ये शर्तें पूरी करने पर भी संतुष्ठ नहीं है। निरीह रैयतों को अपने खेतों में बेगार करवाने के लिए मजबूर करते है और जब कभी रैयत किसी कारणवश उनके किसी हुक्म का पालन नहीं कर पाते है, तो वे उनकी प्रताड़नाओं के शिकार होते है। निलहे इतने शक्तिशाली हो गए हैं कि खुद ही दीवानी और फौजदारी मुकदमों के फैसलें करते है तथा जिस तरह चाहते है, गरीब रैयतों को दंडित करते है। इस बात की जांच करने के लिए सरकार को कई बार अनुरोध किया गया, लेकिन बहुत दिनों तक हमारी कोशिशे बेकार साबित हुई। निलहों के अत्याचार के कारण 1908 ई. में बहुत बड़ी अशांति हुई। बंगाल सरकार ने इस बात की जांच करने के लिए एक अधिकारी को प्रतियुक्त किया, लेकिन इस जांच का परिणाम सार्वजनिक नहीं किया गया है और सैंकड़ों की संख्या में गरीब रैयतों को जेल भेज दिया गया है। मैं चंपारण का एक रैयत हूं। मैं नहीं जानता कि जब मैं चंपारण वापस जाउंगा तो यहां आने तथा आप सबों को यह सुनाने के कारण मुझे क्या-क्या भुगतना पड़ेगा….(‘शर्म-शर्म’ के आवाज)।’

पच्छिमी चंपारण के जिला मुख्यालय बेतिया। उहां से दस बारह किलोमीटर उत्तर-पच्छिमी दिशा में मौजूद बा सतवरिया गांव। पांच हजार के आबादी वाली बस्ती। नजदीक के रेलवे स्टेशन चनपटिया। ओही सतवरिया गांव के ब्रह्मभट्ट साधारण किसान कोलाहल सुकुल के एकलउत पूत का रुप में 23 अगस्त,1875 के राजकुमार सुकुल के जन्म भइल रहे। कबों ऊ गिरहत्त परिवार धनी-मनी आ खुशहाल मानल जात रहे, जब बीस गो बैल, तीस-पैंतीस गो गाय आ सैकड़न भइंस दुआर के शोभा बढ़ावत रहली स, बाकिर निलहा सभ कुछु तहस-नहस कर के धर देले रहलन स।

होस सम्हारते राजकुमार निलहा गोरन के बर्बरता अपना खुलल आंखि से देखले रहलन आ भीतरे-भीतरे उन्हुका बालमन में बगावत के लुत्ती ज्वालामुखी बनिके दहके लागल रहे। आभाव में इस्कूली पढ़ाई कायदा से ना हो पावल। बस जइसे-तइसे लिखे-पढ़े भर के ज्ञान हासिल भइल। ब्रह्मभट्ट के कारण जजमनिको ना अपना सकत रहलन। एह से एगो मामूली किसान बनल नियति रहे।

गोर रंग, दुबर-पातर काया, मझिला कद-काठी। रुखल-सूखल बार। गाढ़ा के अंगरखा, ठेहुन ले सस्ता धोती आ कान्ह पर अंगवछा। आगा चलिके माथे पर टोपियो सोभे लागल। कुल्हि मिलाके एगो ठेठ गंवई के सूरत रहे सुकुल जी के, जेकरा टूटल-फूटल हिन्दी आ भोजपुरी के अलावा अउर कवनो भाषा ना आवत रहे।

सुकुल जी ना चहलो पर अपना पनरह फीसदी उपजाऊ जमीन प नील के खेती करे आ मनमाना ढंग से लदाइल सिंचाई, बपही-पुतही, बेंटमाफी, मड़वच, कोल्हुआवन, चुल्हियावन बेचाई फगुअही, दशहरी, अमही, कटहरी, दस्तूरी, हिसाबान, तहरीर, महापात्री नियत अनिगत कर भरे खातिर अलचार रहलन। मजबूर रैयत किसान सुकुल जी बेलवा कोठी के अधीन मुरली भरहवा में खेती करत रहलन। कोठी के मैनेजर मिस्टर ऐमन बड़ा सख्त आ क्रूर अंगरेज अफसर रहे। ओह घरी घर आ कोला के जमीन पर लगान ना लागत रहे। सुकुल जी खूब मेहनत-मशकत्त करके तैयार कइले, त मि. ऐमन के कारिन्दा के हुकुम दे दिलहन स।

‘ई त सरासर नाइंसाफी बा। जब कोला के जमीन लगान- मुक्त बा, त अइसन आदेश काहें?’ सुकुल जी हाथ जोडि़के पुछलन।

‘यह मेरा हुक्म है!’ मिस्टर ऐमन उहां पहुंचिके फरमान जारी कइलस, ‘अगर ऐसे नहीं मानता, तो इसके घर के सारे सामान नष्ट कर दो और झोपड़ी में आग लगा दो’।

सुकुल जी गलत आदेश माने खातिर कतई तइयार ना रहलन। फेरु त उन्हुका आंखिए के सोझा सभ कुछु तहस-नहस कर

दिहल गइल। पलानी के आगी त कुछु देर बाद बुता गइल रहे, बाकिर उन्हुका भीतर आक्रोश आ नफरत के आग लगातार धू-धू कर जरते गइल रहे। ओइसे त सुकुल जी के लरिकाइएं में बतावल गइल रहे कि ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए गोरन के अतियाचार 1600 ई. से चंपारण में बदस्तूर जारी रहे आ उनइसवीं सादी के पहिलहीं से उहां के रैयतन के माली हालत लगातार खस्ता होत चलि गइल रहे, बाकिर मैनेजर ऐमन के ओकरा कारिन्दन के कारगुजारी त उन्हुका के हिला के राखि देले रहे। उन्हुका आंतर में अंगरेजन के खिलाफ विदरोह के चिनगारी के बिया बोआ गइल रहे।

फेरु का रहे! सुकुल जी ‘जो घर जारे आपनो, चले हमारे साथ’ के ऐलान करत रैयत किसान-मजूरन के संगठित करे के अभियान शुरू कर दिलहन। निलहा गोरन के अमानुषिक अतियाचार-अनेति के जरी-सोरी उखाडि़ फेंकल उन्हुका जिनिगी के मकसद बनि गइल रहे। बाकिर ऐमन के एह बात के भनक मिलि गइल रहे आ ऊ खिसिया के राजकुमार सुकुल पर एगो झूठ मुकदमा दायर करके तीन महीना के जेहल के सजा दियवा दिहलस। बाकिर जेहल से राजकुमार चट्टान नियर मजबूत-दीढ़ होके बहरी निकललन। ‘याचना नहीं, अब रण होगा’ के दीढ़ संकल्प कर के।

ऊ हजारन किसानन के संगठित कइलन। अगुवाई में आपन दूगो इयार शेख गुलाब, शीतल राय के संघतिया बनवलन। एह सांगठनिक विदरोह के विस्फोट तब भइल, जब 1911 में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम नेपाल में शिकार के लुत्फ उठवला के बाद नरकटियागंज पहुंचलन। उहंवा पनरह-बीस हजार किसान उन्हुका के घेरि के दरद भरल दास्तान सुनवलन आ खुलेआम विरोध के ऐलान कइलन। जनजागरण अभियान में तेजी आवे लागल। अप्रैल,1915 में जब बिहार सूबा के राजनीतिक सम्मेलन छपरा शहर में आयोजित भइल, त राजकुमार सुकुल  उहवां चंपारण के किसानन के बदहाली आ व्यथा-कथा सुनाके सभका के मरमाहत कर दिलहन।

9 जनवरी,1915 के दक्खिन अफ्रीका से रंगभेद के खिलाफ सत्याग्रह कर के जब मोहनदास करमचंद गान्हीं भारत लवटलन, त लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन ले उन्हुका चंपारण के जनता पर निलहन के दमनचक्र के जानकारियों ना रहे। सुकुल जी अपना भाषन में ऊ हिरदय बिदारक दास्तान सुनवले रहलन, जवना पर ‘शर्म-शर्म’ के आवाज गूंजल रहे। ऊ बेरि-बेरि गान्हीं जी के धियान खींचल चहलन आ गिड़गिड़ा के एक हाली अपना आंख किसानन के दयनीय दसा देखे के विनती कइले रहलन। गान्हीं जी भरोसा दियवले रहलन कि कोलकता से लउटत, ऊ चंपारण के जातरा जरुर करिहन। अधिवेशन से बेतिया लवटि के ऊ गान्ही जी के एगो एतिहासिक चिट्ठी लिखले रहलन। 27 फरवरी,1917 के लिखल ऊ चिट्ठी एहू से एतिहासिक रहे कि ओह में सबसे पहिले आ पहिलकी बेरि ऊ मोहनदास के ‘महात्मा’ संबोधित कइले रहलन। फेरु त गान्ही जी के बिहार के भूइं पर 10 अप्रैल,1917 के उतरहीं के परल रहे। इहंवे से चंपारण का रुप में देश में पहिलका हाली गान्हीं जी अहिंसक आन्दोलन के शुरूआत कइले रहलन, जेकर प्रेरना सुकुल जी से मिलल रहे। फेरु चंपारण में गान्ही जी के देखे खातिर जब भीड़ उमड़लि रहे, त ऊ हुलसा से जनसमुदाय के संबोधित करत भोजपुरी में कहले रहलन- ‘देख लिहीं सभे! ‘महात्मा’ जी आ गइली।

कइसन अद्भुत पारखी रहलन सुकुल जी! आगा चलिके कविन्द्र के खातिर ना, सउंसे दुनिया खातिर गान्ही बतौर ‘महात्मा’ विख्यात हो गइल रहलन।

आखिरकार सुकुल जी के अथक मेहनत, निहोरा रंग ले आइल। गान्ही जी के सुकुल जी के कोलकाता बोलावन आ नौ अप्रैल,1917 के रात खा दूनों जना हावड़ा से रेलगाड़ी धइलन। दस अप्रैल के सबेरे दस बजे पटना जंक्शन पर उतरलन। ओही रात खा मुजफ्फरपुर खातिर रवानगी। उहवां चार दिन के ठहराव। पनरह अप्रैल के मोतिहारी खातिर प्रस्थान। मोतिहारी के जसौलपट्टी गांव में गान्हीं जी के जाए पर ब्रिटिश सरकार के रोक। मुकदमा बाजी गान्हीं जी के खुदे ममिला के पैरवी कइलन। नतीजन मुकदमा उठा लिहल गइल।

आखिर गान्ही जी के नजर में राजकुमार सुकुल के का अहमियत रहे? गांधी जी अपना आत्मकथा में चंपारण, उहां के अहिंसक आन्दोलन के प्रेरना-स्त्रोत राजकुमार सुकुल के विस्तार से चरचा कइले बाड़न। उन्हुकर कहनाम रहे-‘…इस अपढ़, परन्तु निश्चयवान किसान ने मुझे जीत लिया…उनका और मेरा मिलाप पुराने मित्रो सा जान पड़ा। इससे मैंने ईश्वर का, अहिंसा का और सत्य का साक्षात्कार किया, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है, बल्कि अक्षरश: सत्य है। इस साक्षात्कार में अपने अधिकार का विचार करता हूं तो लोगों के प्रति प्रेम के सिवा कुछ नहीं मिलता। प्रेम और अहिंसा में मेरी अचल श्रद्धा के सिवा कुछ नहीं। चंपारण का वह दिन मेरी जिंदगी में ऐसा था, जो कभी भुलाया नहीं जा सकता।

ई राजकुमार सुकुल के दीढ़ निश्चय आ भीस्म प्रतिज्ञा रहे कि गान्ही जी के चंपारण के जातरा करे के परल। खाली उन्हुके ना, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, मजहरुल हक, जे. बी कृपलानी, महादेव देसाई वगैरह नामी-गिरामी नेतनो के चंपारण पहुंचे के परल। गान्ही जी एक-एक करके परत-दर परत किसानन के शोषन-दमन के तहकीकात शुरू कर देले रहलन। फेरु त आग-बबूला होके अंगरेज अफसर उन्हुका के चंपारण छोड़े का फरमान जारी कर दिहलन स। बाकिर गान्ही जी जब हुकुम के अवहेलना करत खुदे मोकदमा लड़े आ सजाई काटे के निरनय लिहलन, त मजबूरन सरकार के ना खाली आपन आदेश रद्द करे के परल, बलुक एगो जांच कमेटी गठित कर के गान्हियो जी के ओकर सदस्य बनावे के परल। अंतत: चंपारण के किसानन के दुरदसा के समूल खात्मा भइल, जब 4 मार्च, 1918 के विधान परिषद् से एह आशय के विधेयक पारित भइल कि फसल उपजावे के ममिला में सभ कुछु रैयतन के मरजी पर निर्भर रही। एह तरी से चंपारण में महात्मा गान्ही के पहिल सविनय अवज्ञा आन्दोलन के कामयाबी राजकुमार के प्रेरना से हासिल भइल।

बाकिर सुकुल जी के गोरन के खिलाफ विदरोह त जिनिगी भर जारी रहल, काहेंकि ब्रितानी सरकार झूठा आरोप मढि़के निरीह किसानन आ आम जनता के प्रताडि़त कइल बन्न ना कइले रहे। सन् 1929 के मई महीना में ऊ साबरमती आश्रम पहुंचल रहलन आ बापू से उन्हुकर भेंट आखरी भेंट साबित भइल रहे, काहेंकि साबरमती सेवाग्राम के संत के दर्शन कर के सतवरिया के ऊ संत 20 मई,1929 के मोतिहारी के ओही ठेकाना पर हरदम-हरदम खातिर आंखि मूंदि लेले रहे, जहवां चंपारण अइला पर गान्ही जी ठहरल रहलन। चंपारण के उनइस लाख जनता ‘चंपारण के गान्ही’ के लोर भरल आंखि से

फफकि-फफकि के आखिरी विदाई देले रहे। इहां ले कि उहां के क्रूरतम अंगरेज अफसर मिस्टर ऐमन मरमाहत होके सुकुल जी के दामाद के पुलिस महकमा में बहाली की चिट्ठी आ आर्थिक मदत देत कहले रहे- ‘उस आदमी की कीमत दूसरे लोग क्या समझेंगे! चंपारण का वह अकेला मर्द था, जो मुझसे पचीस वर्ष लड़ता रहा’।

सांच त ई बा कि पं. राजकुमार सुकुल के मंशा ना त कवनो आन्दोलन के अगवाई करे के रहे आ ना राष्ट्रीय नेतृत्व सम्हारे के। ऊ त चंपारण के किसानन, रैयतन पर सदियन से बजड़त निलहन के अनेति-अतियाचार के बजरपात से घवाहिल रहलन आ ओह असह दु:ख-दरद के समूल नाश कइल-करवावले उन्हुकर एकमात्र मकसद रहे। एह काम खातिर ऊ गान्ही जी के उत्प्रेरित कइलन आ मुक्ती के सांस लिहलन। चूंकि ऊ खुदे महात्मा रहलन, एह से गान्ही जी में ऊ महात्मा के दरसन कइलन। पं. राजकुमार सुकुल जी के अमरता गान्ही जी के पहिला हाली ‘महात्मा’ के संबोधन देवे में ना, वरन चंपारण सत्याग्रह के बहाना से देश में अंगरेजन के खिलाफ सबसे पहिले अहिंसक आन्दोलन के सूत्रपात करे खातिर प्रेरना-स्रोत के भूमिका अदा करे में बा।

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