गौरी - हमार पैतृक गाँव

December 14, 2021
आलेख
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लेखक: डॉ. रंजन विकास

गौरी हमार पैतृक गाँव हऽ। दरौली प्रखण्ड के अन्दर पड़ेला। हमार गाँव तीन नदी के बीच में घिरल बा। गाँव के पूरब में झरही नदी, दक्खिन में सरयू नदी आ पच्छिम में निकारी नदी बा। एकरा बादो हमरा गाँव में आज ले कबहूँ बाढ़ नइखे आइल। लगभग हर साल गर्मी आ बड़ा दिन के छुट्टी में गाँव जाए के सिलसिला स्कूली पढ़ाई ले बनल रहे। पचरुखी से हमरा गाँव जाए के तीन गो राहता बा। पहिला, पचरुखी स्टेसन से पसिन्जर गाड़ी से मैरवा स्टेसन आ उहाँ से दरौली वाला बस धके दोन चिमनी पर उतर के पूरब दिसा में एक कोस पैदल चलला के बाद हमनी गौरी पहुँची सन। एह राहे एगो बरसाती नदी “निकरी” हेले के पड़त रहे, जवन गर्मी के दिन में एकदम सूखल रहत रहे, बाक़िर बरसात के दिन में कहीं डांड़ भर त कहीं छाती भर पानी हेले के पड़त रहे। ओह समय नाव के कवनो सुविधा ना रहे। अब बड़की दोन के सोझा ओही नदी पर पुल बन गइल बा आ हमरा गाँव ले पक्की सड़क हो गइल बा। दोन में एगो बहुते पुरान किला के खण्डहर बा, जे महाभारत के कौरव आ पांडव के महान गुरु द्रोणाचार्य के रहे, अइसन लोग के मान्यता बा। दोसर राहता भारत के पहिलका राष्ट्रपति आ भारतरत्न डॉ० राजेन्द्र प्रसाद के गाँव जीरादेई होत नरिनपुर आ शिवपुर होत झरही नदी हेलला के बाद बिसवनिया होके गौरी पहुँचल जाव। एह राहे पैदल चार कोस चले के पड़त रहे। जीरादेई से गाँव ले कवनो सवारी के सुविधा ना रहे। एही से एह राहे लोग के आइल-गइल कमे होत रहे। बाबूजी से सुनले रहनीं  कि पहिले पुरनिया लोग के आवे-जाए के इहे राह रहे, जहाँ अब सीवान से गाँव ले सवारी के सुविधा हो गइल बा। तिसरका राहता सीवान से हुसेनगंज, फरीदपुर, आन्दर होत असांव पहुँच के फेर उहाँ से पैदल एक कोस ज़मीन चलला के बाद नाँव से झरही नदी हेले के पड़े। ओकरा बादे गाँव पहुँचल जाव, बाक़िर सीवान से असांव के कवनों सीधा सवारी ना रहे। सवारी रहबो कइल त खाली आन्दर ले रहे। आन्दर से असांव पैदले नापे के पड़त रहे आ फेर असांव से गाँव के पैदल राहता अलगे रहे आ बीच में झरही नदी हेले के पड़त रहे। एही से एह राहे हमनीं के गाँव आइल-गइल कमें होत रहे। जादेतर पहिलके राहे गाँव आइल-गइल होखे।

ब्रिटिश शासन काल में एयर फ़ोर्स बेस, पानागढ़ में बड़का बाबूजी धर्मनाथ प्रसाद स्टोर सहायक के पद पर नोकरी करत रहनीं। कम पढ़ल-लिखल रहला के बादो खूब फर्राटेदार अंग्रेजी बोलत रहनीं। अमेरिकन सोल्जर बड़ी मानत रहले सन। दोसरका विश्व-युध्द के बाद जब अमेरिकन ट्रूप लवटे लागल, ओह घरी ओकनी के समझवला के बादो बड़का बाबूजी नोकरी छोड़ के गाँव लवटे के मन बना लेले रहनीं। गाँव लवटला के बाद खेती-बारी के सिलसिला शुरू कइनीं आ उहाँ के जिनगी के आखिरी समय ले खेती-बारी के सिलसिला बहुते बढ़िया से निबहल। बड़का बाबूजी के गाँव के राजनीति से कवनो मतलब ना रहत रहे। एकदम निष्पक्ष रहत रहनीं, जेकरा चलते हर जाति आ तबका से उहाँ के मधुर सम्बन्ध बनल रहल। गाँव-जवार के लोग का बीच में बड़का बाबूजी धर्मू लाल भा चाचा के नाम से जानल जात रहनीं। पता ना काहे तीन पीढ़ी के लोग जइसे कि दादा, बाप आ बेटा उहाँ के चाचा कहत रहे ? आज ले ई बात हमरा समझ में ना आइल।

जइसन गाँव के पुरनिया लोग बतावत रहे कि हमार दादा स्व० वंशीधर प्रसाद अपना जमाना के पहिलका ग्रेजुएट रहनीं  आ वर्मा देस के राजधानी रंगून में शिक्षक रहनीं। जब गाँव आईं त लोग के बीच में पढ़ाई के महत्त्व पर जोर देत रहनीं। दादाजी के देखल त दूर के बात रहे। कवनो फोटो भी ना रहे, जवना से उहाँ के आकृति के कवनो रूपरेखा के अंदाज लगावल जा सके। एगो किताब पर उहाँ के हस्ताक्षार ही एकमात्र स्मृतिशेष बाचल बा। बाबूजी आ बड़का बाबूजी के बचपने में हमार दादा आ दादी परलोक सिधार गइल रहे।

गौरी नाम के दूगो गाँव बा। दोन चिमनी के पच्छिम में मिसिर लोग के गौरी बा आ पूरब में हमार गाँव गौरी बा, जवन बाबू साहेब के गौरी नाम से जानल जाला। हमरा गाँव में राजपूत लोग के संख्या बेसी रहे। ओह समय लगभग बावन घर राजपूत के रहे। आउरो सब जाति रहे, बाक़िर एको घर ब्राम्हण आ भूमिहार ना रहे। गिन-चुन के कायस्थ लोग के दूगो घर रहे – एगो हमनी के घर आ दोसर हमनी के पटीदार बिकाऊ लाल के। आज कायस्थ जाति में एको परिवार गाँव पर नइखे। दुनू घर में ताला लटकल बा। रोजी-रोटी ख़ातिर सभे गाँव से बहरिया गइल।

साँच कहीं त ओह समय में हमार गाँव एकदम अटट देहात रहे। अगर कवनो राहगीर दरवाजा पर पहुँच जाव त गुड़ के भेली के एक टुकी आ एक लोटा पानी छोड़ के दोसर कवनो चीज से ओकर स्वागत कइल संभव ना होखे। बिजली, सड़क, आवे-जाए के कवनो सवारी, दउरी-दोकान भा स्वास्थ्य सुविधा त रहबे ना कइल। गाँव में खाना बनावे ख़ातिर गैस आ कोयला के भी कवनो सुविधा ना रहे। आमतौर पर रहर के खूंटी आ ओकर झांगी, मकई के ढाठा आ मकई के बाल के लेंढ़ा, धान के भूसी, लकड़ी आ गोंइठा जलावन के नाम पर रहत रहे, जवना के लोग पूरा साल भर ख़ातिर जमा कर के रखत रहे। अगर बरसात में जलावन भींज जाव त रसोई में खाना बनावत बेर बड़ दिकदारी होखे। चूल्हा जरावे ख़ातिर लोग एक दोसरा के घर भा घोनसार से कलछुल में आग के भउर माँग के ले आवत रहे आ ओही से चूल्हा जरावे। कई बेर हमहूँ घोनसार से कलछुल में आग के भउर ले आवत रहनीं। माचिस के उपयोग तबे होखे, जब कबो ढेबरी चाहे लालटेन जरावे के पड़े भा कवनो पूजा पाठ होखे। हमरा इयाद बा कि जादेतर घर में लोग कद्दू, नेनुआ आ तरोई के तरकारी बनावते ना रहे, काहेंकि ई सब तरकारी बनावत बेर कड़ाही में एतना जादे पानी छोड़ देत रहे, जवना के सुखावे में जलावन के खरचा जादे होत रहे। ओह समय हर घर में जलावन बहुत सीमित मात्रा में रहत रहे। अगर केहू के घर में कबहूँ कद्दू, नेनुआ आ तरोई के तरकारी कबो बनबो करे त ओह में छर-छर पानी रहत रहे।

अभाव त बहुते रहे, तबो आपसी मेल-मिलाप आ भाईचारा के चलते सामाजिक तानाबाना बहुते नीक रहे। खरीद फरोख्त करे के अवकात बहुते कम लोग के रहत रहे। निहायत जरुरी सामान जइसे नून, तेल, मसाला, साग–सब्जी, मछरी भा आउर कवनो चीज के खरीदारी करे के होखे त अनाज से बदलेन होत रहे। ओहू में अगर मोट अनाज होखे त जादे अनाज देबे के पड़त रहे। गृहस्थ परिवार में केतनो संपन्नता रहत रहे, बाक़िर नगदी के अभाव त रहबे कइल। गाँव-जवार में बहुते लोग अइसनो रहे, जेकरा गोड़ में चपल रहल त दूर के बात रहे। देह पर सही-सलामत कवनो कपड़ा भी ना रहत रहे। जाड़ा के मौसम त एह लोग ख़ातिर सराप जइसन ही रहे। जब देह पर ही मोसलम कपड़ा ना रहत रहे त ओह लोग के ओढ़ना-बिछौना के बारे में का कहे के बा ? आमतौर पर पुअरा ही बिछौना के काम करत रहे। बोरा ओढ़ना आ बिछौना दुनू के कामे आवत रहे। केहू-केहू धोती भा एगो पातर चादर से ही ओढ़ना के काम चलावे। रात में जब जाड़ सेके लागे भा पाला बर्दास से बहरी हो जाव त लोग उठके कऊड़ा तापत रात बितावे। जे संपन्न किसान रहे, ओकरो लगे अइसन कवनो सुबहित कपड़ा ना रहत रहे, जे पहिर के हित-नाता में कवनो शादी-बियाह के मोका पर जा सके। हमरा आजो इयाद बा कि लगन में जब गाँव-जवार के लोग के कहीं भी हित-नाता में शादी-बियाह भा आउर कवनो मोका पर जाए के पड़त रहे त अक्सर बड़का बाबूजी से धोती-कुर्ता आ जूता पहिरे ख़ातिर माँग के ले जात रहे लोग। ऊ लोग अपना कंधा पर धोती-कुर्ता धइले आ हाथ में जूता लेहले अपना रिश्तेदारी जाए ख़ातिर निकल जात रहे। पैदल चलत-चलत जब कुटुम्ब के गाँव नियरा जाव त कवनो इनार भा चापाकल पर जाके आपन हाथ आ गोड़ रगड़-रगड़ के धोवे आ कुल्ला-गलाला करे। एह से सऊँसे राहता के थकान तनी कम हो जात रहे। ओहिजा आराम से धोती-कुर्ता आ जूता पहिर के तइयार होखे। ओकरा बादे रिश्तेदार में पहुँचत रहे। रिश्तेदारी से लवटला के बाद धोती-कुर्ता धोवा के आ जूता झार-झुर के बड़का बाबूजी के वापस लवटा देत रहे। एही सब काम ख़ातिर बड़का बाबूजी अलगे से एक-दू सेट धोती-कुर्ता रखत रहनीं।

हमनी के दुआर पर एगो बड़हन इनार रहे, जे चाचा के इनार नाम से जानल जात रहे। एह इनार के चारू ओर गोलाहे बड़हन चबूतरा बनल रहे, जवन ज़मीन से लगभग तीन फीट ऊँच रहे। एह चबूतरा पर रोज एक भोरे से देर रात ले एक से एकाल रोचक नजारा देखे-सुने के मिलत रहे। भोरहीं से चहलकदमी शुरू हो जाव। अड़ोस-पड़ोस के घर में पानी पीये, बर्तन धोवे, खाना बनावे आ औरतन के नहाए ख़ातिर डोल से पानी भर के ले जाए के सिलसिला दिनों भर लागल रहत रहे। दतुअन करत लोग एक भोरे इनार पर पहुँच जात रहे आ चबूतरा पर घंटों बइठकी होखे। बतकही के ना त कवनो ओर रहत रहे आ ना कवनो छोर। ओही में खूब हँसी-ठाठा के बात होखे। पूरा जवार के सगरी खबर एहीजा सुने के मिल जाव। कबो-कबो अइसन मजगर बात होखे कि दुआर से हटे के मन ना करे। जब तनी धूप निकले त एही चबूतरा पर लोग के नहाइल शुरू होखे। ओहिजा कुछ लोग लोटा में जल लेहले सूरज भगवान के जल ढ़ारे। ई सिलसिला रोजे दूपहरिया ले चलत रहे। दिन में गाँव के कुछ औरत सब चबूतरा पर अनाजो सुखावत रहे। साँझ होते चबूतरा पर लोग के जुटान शुरू हो जाव आ फेर शुरू होखे उहे बतकही, हँसी-ठाठा के बात आ हेने-होने के गरमा-गरम खबर। गर्मी में जब बइठकी खतम होखे, तले इनार के चबूतरा पर सूते ख़ातिर अगल-बगल से दस से पन्द्रह आदमी रोजे पहुँच जात रहे। साँच कहीं त ई इनार आ एकर चबूतरा हमनी के दुआर के एगो बड़हन रौनक रहे।

एही इनार के एगो रोचक प्रसंग याद आ रहल बा। एगो रहली बीजू बो। सऊँसे गाँव के भउजाई लागत रहली। उनका से लोग खूबे हँसी-ठाठा करे, बाक़िर ऊ अकेले ही सब पर बीस पड़त रहली। अकेले में उनका से केहू मज़ाक करे के जल्दी हिम्मत ना करे। रोज सबेरे-साँझ के बेर हमनीं के इनार पर डोल से पानी भरे आवस। जसहीं इनार में आपन डोल डलले रहस, ठीक ओही बीचे गाँव के कवनो लइका दूरे से उनका के रिगा देव – ‘लड्डू लाते मारेली आ जिलेबी दांते काटेली।‘ ई बात सुनते बीजू बो आपन डोल आ ओकर रसरी ओसहीं इनारे में छोड़-छाड़ के ओह लइका के पीठियावे लागस। लइका आगे-आगे भागल जाव आ ई ओकरा के पीछे-पीछे चहेटत रहस। बीजू बो से केहू के जीतल एतना आसान ना रहे। ऊ त अपने दस गो मरद के बराबर रहली। आखिर में ऊ लइका आपन हार मान लेव। तब जाके ओकरा के छोड़स। लगभग रोजे इनार में काँटा डाल के उनकर डोल निकलाव।

हमरा गाँव में कवनो तरह के सरकारी भा प्राइवेट स्वास्थ्य सेवा के सुविधा ना रहे। दू किलोमीटर के दूरी पर बिसवनिया गाँव बा। ओही से सटले झरही नदी के बाँध पर एगो सरकारी स्वास्थ्य उपकेंद्र रहे, जहाँ एगो केरालियन ए०एन०एम० रहत रहे। ओहिजा कवनो दवाई रहते ना रहे। गाँव से आठ किलोमीटर के दूरी पर दरौली प्रखंड मुख्यालय में एगो सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र रहे, जहाँ एम०बी०एस० डॉक्टर उपलब्ध रहे, बाक़िर पूरा जवार भर में कतहूँ एम०बी०एस० डॉक्टर ना रहे। कहीं-कहीं आर०एम०पी० डॉक्टर जरुर भेंटा जात रहे। गाँव भा आसपास में दवाई के कवनो दोकान भी ना रहे। अगर कवनो दवाई के जरूरत पड़ जाव त ख़रीदे ख़ातिर दरौली भा शिवपुर जाए के पड़त रहे। हमरा गाँवे सप्ताह में एक भा दू दिन नागा पर एगो आर०एम०पी० डॉक्टर आपन राजदूत मोटरसाइकिल से आवत रहले। उनकर मोटरसाइकिल भी एतना पुरान रहे कि चलते-चलते बीचे में बन्द हो जाव। हमेसा खराबे रहत रहे। गाड़ी स्टार्ट करे ख़ातिर डॉक्टर साहेब किक मारत-मारत एकदम फेनेफेन हो जात रहले, तबो उनकर मोटरसाइकिल जल्दी स्टार्टे होखे के नामे ना लेव। आखिर में हारपाछ के गाँव के लइकन से ठेलवावस, तब जाके उनकर मोटरसाइकिल स्टार्ट होखे। डॉक्टर साहेब जाति के तेली रहले। उनकर असली नाम केहू जानतो ना रहे। सभे उनका के तेलिया डॉक्टर साहेब के नाम से जानत रहे आ एही नाम से उनका के बोलइबो करे। उनका मुँहो पर सभे तेलिया डॉक्टर साहेब कहे, बाक़िर एह सम्बोधन के ऊ कबहूँ बाउर ना मानत रहले। कवनो लइका आके बोले ए तेलिया डॉक्टर साहेब ! माई बेराम बिया, चल के तनीं देखलीं। डॉक्टर साहेब जाके देखस आ अपना पास से दवाई भी देस। अगर पानी चढ़ावे भा सुई देबे के जरुरत होखे त उहो काम करस। अइसे डॉक्टर साहेब फीस के नाम पर अलगा से रुपया-पइसा ना लेत रहले, बाक़िर सुई, दवाई आ पानी चढ़ावे के जवन चार्ज होखे, ओही में आपन फीसो हनठ के जोड़ देत रहले।

एगो रोचक घटना इयाद पड़ रहल बा। घर के आँगन के दक्खिन छोर पर चउका रहे। बड़की अम्मा खाना बनावत रहली। चउका के ठीक सामने आँगन में हमनी के बाल-मण्डली के गपशप चलत रहे आ खेल भी होत रहे। एही में हमार चचेरा भाई पुनु माने रंजन आलोक कुछ खुटचाली करत रहले। चउका में बइठल बडकी अम्मा उनकर सब खुटचाली देखत रहली आ ओहिजा से उनका के बार-बार मना भी करत रहली। कतनो मना करस बाक़िर पुनु मनबे ना करस। उनकर खुटचाली खतम होखे के नामे ना लेव। आजिज़ आके खीस में बड़की अम्मा उनका ऊपर छोलनी चला देहली। छोलनी हवा में लहरात आलोक के नाक से लागत थोड़े दूर पर जाके गिरल। उनकर नाक के एगो कोना कट गइल। खून बहे लागल। खून देख के सभे घबरा गइल। घर में अफरा-तफरी मच गइल। सभे परेसान रहे। विचार भइल जे शिवपुर लेजा के डॉक्टर से मरहम-पट्टी करावल जाव। उनका साथे पैदले एक कोस ज़मीन चल के झरही नदी हेलत हमनी के शिवपुर पहुँचनीं सन। उहाँ एगो आर०एम०पी० डॉक्टर भेंटाइल। दूगो टाँका पड़ल आ एगो सुई घोंपाइल। डॉक्टर खाए के कुछ दवाई भी देहलस। दवा लेके फेर पैदले झरही नदी हेलत बिसवनिया होत हमनीं के गाँवे पहुँचनीं सन। शिवपुर के बात आइल त एगो आउर प्रसंग इयाद पड़ गइल। पहिले हमरा गाँव में कवनो आटा चक्की ना रहे, जवना के चलते गेहूँ पिसवावे ख़ातिर शिवपुर जाए के पड़त रहे। बाद में जब हमरा गाँव में सरल लोहार के घरे आटा चक्की बइठल त गेहूँ पिसवावे में तनी सुबहिता हो गइल।

बड़का बाबूजी के एगो लंगोटिया इयार रहले धारी सिंह। उनका के हमनी सभे धारी बाबा कहत रहनीं। रोज साँझ आ सबेरे दुनू आदमी के मिलल-जुलल होत रहे। कवनो समस्या के एक-दोसरा से साझा करत रहे लोग। बुझाव जइसे एह लोग के एक दोसरा में परान बसेला। आपस में अइसन भुनुर-भुनुर बतियावे लोग कि बगले में बइठल आदमी के ना त कुछ सुनाई पड़े आ ना कुछुओ बुझाव जे का बतियावता लोग। कतहीं भी जाए के होखे त एके साथे जात रहे लोग। पूरा गाँव-जवार में धारी-धर्मू के जोड़ी बहुते नामी रहे। जर-जमीन के खरीद-बिक्री दरौली में होत रहे, काहेंकि सबसे नजदीक रजिस्ट्री कचहरी दरौली में रहे, जे हमरा गाँव से करीब आठ किलोमीटर के दूरी पर रहे। आवे-जाए ख़ातिर पैदल छोड़ के दोसर कवनो सवारी के साधन ना रहे। जवार में केहू के भी जमीन के जब खरीद भा बिक्री होखे त ऊ लोग अपना साथे बड़का बाबूजी के रजिस्ट्री कचहरी जरूर लेके जात रहे। साथे-साथे धारी बाबा जात रहले। बड़का बाबूजी के जर-जायदाद के दस्तावेज के बढ़िया जानकारी रहे। रजिस्ट्री कचहरी के प्रक्रिया आ दस्तावेज के लिपि से परिचित भी रहनीं। हमरा इयाद बा जे गर्मी के दिन में बड़का बाबूजी दरौली से लवटत बेर गोड़रा मछरी जरुरे लेके आवत रहनीं। दरौली में सरयू नदी रहला के चलते गोड़रा मछरी आसानी से मिल जात रहे। ओह समय गोड़रा मछरी दस रुपया में एक सेर मिलत रहे। नाप-तौल ख़ातिर बटखरा में छटाक, सेर, पसेरी आ मन चलत रहे। किलोग्राम के कवनो चलन ना रहे।

हमार गाँव के जमीन बहुते उपजाऊ रहे। जादेतर धनहर खेत रहे। धान के पैदावार भी जादे होत रहे। एकरा अलावे मकई, मसुरिया, टंगुनी, कोदो, मडुआ, चिना, अरहर, मटर, सरसों, तीसी, पटसन, गन्ना, आलू, पियाज आ साग–सब्जी के उपज भी बढ़िया होखे। गेहूँ के फसल लगभग नाहिए के बराबर होत रहे। बाकिर जौगोजई के खेती खूब होखे। जौगोजई में जौ के मात्रा जादे रहत रहे आ गेहूँ नाम भर के रहत रहे। दवनी-ओसवनी के बाद जब जौगोजई घरे आवे त ओह में से औरत लोग बइठल-बइठल लगभग दस किलो ले गेहूँ चुन के अलगे निकालत रहे आ ओकरा के छठब्रत ख़ातिर नेमहा रख देत रहे। छठ पूजा के समय एही गेहूँ के जांत में पिस के आटा तइयार कइल जाव, आ ओकरे ठेकुआ पाके, जवन अरघ पर चढ़ावल जाव। हर घर में असहीं होत रहे। जौगोजई के आटा के रोटी होखे त तनी मोटाह, बाक़िर खाए में खूबे मीठ आ सवदगर लागे। रफेज भी बहुते रहत रहे, जवन स्वास्थ्य के लिहाज़ से बढ़िया रहत रहे। एगो अइसन समय आइल कि जौ के खेती साफे बन्द हो गइल। जौ के जगह पर लोग गेहूँ बोए लागल। अब त पूरा गाँव-जवार में खोजलो पर पूजा-पाठ ख़ातिर जौ ना भेंटाला। बाजार से ही खरीदे के पड़ेला।

कबो-कबो अंधविश्वास के सामाजिक मान्यता मिल जाला, जवना के कवनो वैज्ञानिक आधार ना होखे। तबो लोग एगो परम्परा के रूप निभावे लागेला। एही परम्परा के निभावे में पहिले हमरा गाँव में कबहूँ चना ना बोआत रहे। आमलोग के अइसन धारणा रहे कि हमनी के गाँव में चना बोअल ना सहेला। एक बेर हम बड़का बाबूजी से चना बोए ख़ातिर बहुते जिद कइनीं। बड़का बाबूजी मनबे ना करीं आ हम रहनीं जे अपना जिद पर अड़ल रहनीं। बड़का बाबूजी के लगे लरिआइल रहत रहनीं आ बार–बार एके गो रट लगवले रहनीं। आखिर में हार पाछ के बड़का बाबूजी चना बोए ख़ातिर तइयार भइनीं। ओही साल नवरा के गढ़ई के बगल वाला खेत में चना बोआइल। पूरा गाँव-जवार में कानाफूसी शुरू हो गइल। लोग तरे-तरे के बात करे लागल। धारी बाबा आके सब बात बड़का बाबूजी से बतावस। एक दिन धारी बाबा घरे आइल रहले। बड़का बाबूजी से कहत रहले – ‘धर्मू ! काहें अइसन काम कइलऽ हऽ ? पूरा जवार में हल्ला बा। लोग तरे-तरे के बात करत बा। तू जानते बाड़ऽ कि गाँव-जवार में चना बोअल ना सहेला। तहरा ना बोए के चाहत रहे।‘ बड़का बाबूजी कहनीं – ‘अरे लइका के मन रखे ख़ातिर छव कट्ठा में चना बोवा देहनीं। जइसे आउर सब फसल बोआला, ओसहीं चना भी एगो फसल हऽ। अगर बोआइए गइल त एह में हरजे का बा ? छोड़ऽ गाँव के लोग के बात। अब त बोआ गइल बा। अब अगिला साल देखल जाई।‘ चना त खूबे लहलहाई। देख के मन गदगद हो जाव। चना के साग भी खूब खाए के भेंटाइल। गाँव के लोग भी खूब चना के साग खोंट के खइले रहे। गाँव-जवार के लोग मोटा-मोटी आधा खेत के चना के झांगी उखाड़ के खा गइल रहे। ओकरा बादो बहुते चना भइल। अगिला साल से पूरा गाँव-जवार में चना बोआए लागल।

बात ओह समय के हऽ, जब भैया आ हम पटना में पढ़त रहनीं। छठ में सभे पचरुखी से गाँव चल गइल रहे। हमनी के भी पटना से गांवे जाए के विचार भइल। ओह समय पटना में गंगा नदी पर कवनो पुल ना बनल रहे। उत्तर बिहार जाए ख़ातिर स्टीमर से गंगा नदी हेले के पड़त रहे। भैया आ हम सबेरहीं गाँव जाए ख़ातिर पटना से निकलनी सन। बाँसघाट पहुँचला के बाद बच्चा बाबू के स्टीमर से गंगा नदी हेल के पहलेजा पहुँचनी सन। पहलेजा घाट से सरकारी बस स्टैंड पैदल जाए में पाँच से सात मिनट लागत रहे। ओहू में बस धरे ख़ातिर आपन बक्सा-पेटी माथा पर भा हाथ में लेहले धउर के जाए के पड़त रहे। ना त बस में बइठे के जगह ना भेंटाव। बस में खड़े-खड़े जाए के पड़े। उहाँ से सरकारी बस से सीवान आ सीवान से दरौली के प्राइवेट बस धराइल। दोन पहुँचे से पहिलहीं किरिन डूब गइल रहे। हमनी के आगपाछ में पड़ल रहनीं  कि अंधेरा में निकरी नदी कइसे हेलल जाई ? एक त एकदम सूनसान राहता आ ओह पर से किरिन डूबला के बाद नदी के विकराल रूप देख के असहीं भयावह लागे। भैया कहलन कि बड़की दोन में ही उतर जाए के आ ओहिजा बच्चा बाबू के इहाँ रात में ठहर जाव। बच्चा बाबू दोन के नामी आदमी रहले। उनकर कई गो बस चलत रहे। ऊ बाबूजी आ बड़का बाबूजी से परिचित रहले। हमनी दुनू भाई उनका इहाँ पहुँच के आपन परिचय देहनी। बहुते खुश भइलन। बाबूजी आ बड़का बाबूजी के हालचाल पुछलन आ हमनी के रात में रुके के इन्तजाम भी करवले। रात के मछरी-भात खइला के बाद आराम से सूतनीं सन। एक भोरे उठ के फ्रेश भइला के बाद भरपेटाहे नाश्ता भइल। ओकरा बाद हमनी के गाँवे जाए ख़ातिर निकल गइनीं। निकरी नदी के गहराई त जादे ना रहे, बाक़िर नदी बड़ी छितनार रहे। कहीं डांड़ भर त कहीं छाती भर पानी हेलत करीब नौ बजे सबेरे हमनी के गाँव पहुँचनीं सन।

गाँव गइला के एगो अलगे मज़ा रहत रहे। आजो ओसहीं लागेला। खेत-खरिहान घूमल, गर्मी के दिन में आन्ही-बतास अइला पर एके सांस में नवरा के गढ़ई वाला बगइचा में धउर के आम आ जामुन चुनल, हल से जोतल खेत हेंगावत बेर हेंगा पर बड़का बाबूजी के दुनू गोड़ के बीच बइठ के मज़ा मारल, बैल से गेहूँ के दवनी कइल, चलत पछुआ में ओसवनी के नजारा, खेत पटावत बेर इनार पर चलत राहट भा ढेकुल के ठंढा-ठंढा पानी पीअल, सीजन में मकई के खेत के बीच मचान पर बइठ के होरहल भुट्टा के सवाद लिहल, जाड़ के रात में दुआर पर कउड़ा तापे के बेरा बइठल-बइठल तीन-चार गो उँख चाभल, ओही कउड़ा में कोन पका के ओकरा के खपड़ैल के ओरी पर रात भर ओस में छोड़ल आ होत भिनसहरे ओकर सवाद लिहल, कोल्हू से पेरात उँख के रस पीअल आ एह रस के बनल रसिआव के सवाद लिहल, ताजा-ताजा महिया खाइल, धान के खेत में लागल पानी में बन्सी से टभका पर मछरी मारल, ढेकी के कुटल सुरका चिउरा के सवाद लिहल, लगन के दिन में चोरी-छिपे लौंडा नाच देखल, जतरा पार्टी के अइला पर रामलीला देखल आजो इयाद बा। एह सब में जवन मज़ा मिलत रहे, ओकर बाते कुछ आउर रहे। समय के साथे सम्पन्नता त बहुते बढ़ल, बाक़िर ओइसन मज़ा फेर कबहूँ ना भेंटाइल। साँच कहीं त ऊ सब एगो अलगे दुनिया रहे, जे अब सपना जइसन लागेला। कतनों अभाव रहे, बाक़िर “मन चंगा त कठउती में गंगा” कहावत सोरहो आना सही रहे। ओह ज़माना में सीमित संसाधन के साथे आदमी के जरूरत भी सीमित रहत रहे। थोड़-थाड़ जवने साधन रहत रहे, ओही में खूब मस्ती रहत रहे। बाबूजी के कहल एगो बात हमरा आजो इयाद बा कि जे आदमी आपन जरूरत के जेतने सीमित रखी, ओकरा ओतने कम मानसिक तनाव रही आ ओतने जादे सुखी रही। आज आदमी भले भौतिकवादी सुख-सुविधा से संपन्न त हो गइल, बाकिर पहिले जवन मन के सुख मिलत रहे ऊ त अब गूलर के फूल हो गइल। अब बुझाला जे बाबूजी के जवन सोच आ विचार रहे ऊ केतना सार्थक रहे।

हमार गाँव बाबू साहेब के गाँव हऽ। जातिगत सोभाव के चलते ओह लोग के दबंगई कवनो नया बात ना रहे। पहिलहूँ थोड़-बहुत दबंगई त रहते रहे, बाक़िर एगो सीमा के भीतरे रहत रहे। लोकलाज आ मान-मार्यादा के तनी खेयाल रहत रहे। साँच कहल जाव त एही भावना के चलते समाज के तानाबाना मजबूत रहत रहे। जब समाज-परिवार बा त लोग के सोच-विचार में अंतर भइल स्वभाविक बा। बाकिर मतभेद जब मनभेद के रूप में बदल जाला त उहाँ अहम् आ आन के जनम होला, जवन सामाजिक संरचना के तार-तार करे में कवनो कसर ना छोड़े। अइसने कुछ हालत हमरा गाँव के हो गइल रहे। देखते-देखते बाबू साहेब लोग दू खेमा में बँट गइल। एकरा बादो हमरा गाँव के जादेतर लोग के राजनीति से कवनो सरोकार ना रहत रहे। एगो रहले गोविन्द सिंह, जे हमरा गाँव के राजनिति के असली केंद्र बिंदु रहले। साँच कहल बा कि अगर टोकरी के एगो आम सड़ जाव त पूरा टोकरी के आम के सड़ा देला। कुछ अइसने हाल हमरा गाँव के भी रहे। एकाध आदमी के सवारथ के चलते सँउसे गाँव के परिवेश बदरंग हो गइल। देखते-देखते गाँव में पहिले जइसन ना त माहौल रह गइल आ ना पहिले जइसन सोच वाला लोग। सब कुछ उलट-पलट हो गइल।

सन् 1973 आवत-आवत हमरा गाँव–जवार के राजनीति एगो अलगे राह धलेले रहे। हमरा गाँव में चरमनी के गड़हा पर कब्जा करे के चक्कर में एके दिन में तीन आदमी के लाश गिरल। अब लोग गोलबंद होखे लागल रहे, जवना के पूरा फायदा माले पार्टी के कुछ नेता लोग उठावल। हमरा गाँव में माले के एगो अलगे खेमा तइयार हो गइल। गाँव में कुछ नया नेता भी पैदा हो गइलन। देखते-देखते पूरा दरौली प्रखंड माले के गढ़ बन गइल। हमरा गाँव में माले के कुछ नेता लोग के आवाजाही बढ़े लागल। बाबू साहेब लोग के खिलाफ पूरा गाँव में लोग लामबंद होखे लागल। लमहर समय ले दुनू तरफ से ह्त्या के सिलसिला चलत रहल। माहौल एतना खराब हो गइल रहे कि गाँव जाए में डर लागे। साँझ होते लोग अपना-अपना घर के भीतर बन्द हो जात रहे। हालत अइसन हो गइल कि आपन जान बचावे ख़ातिर कुछ बाबू साहेब लोग त हमेसा ख़ातिर गाँव छोड़ दिहल आ फेर कबहूँ लवट के ना आइल। सब बिमारी के इलाज हो सकत बा, बाक़िर गलतफहमी आ शक के कवनो इलाज नइखे। एही बेमारी के चलते हमरा गाँव में कुछ निर्दोष लोग के भी ह्त्या हो गइल, जवना में एगो रहले नथुनी सिंह। उनकर मकान हमरा घर के ठीक सामने रहे। नथुनी सिंह गहिलापुर हाई स्कूल में हेडमास्टर रहले। लम्बा आ छरहरा बदन पर सफ़ेद धोती-कुर्ता में उनकर व्यक्तित्व बहुते निखरत रहे। रोज साइकिल से स्कूल जात-आवत रहले। सालो भर नाव से झरही नदी हेले के पड़त रहे। घर से स्कूल आ स्कूल से घर अइला के अलावे गाँव में उनकर कहीं भी बइठकी ना होत रहे आ गाँव के राजनीति से कवनो खास सरोकार भी ना रखत रहले।

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