सदा आनंद रहे एही द्वारे !

March 5, 2020
संपादकीय
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संपादक- मनोज भावुक

का कहीं !  हैप्पी होली कहत तऽ बानी बाकिर कुछुओ हैप्पी लागत नइखे। मन के बगइचा में कोयल कुहूकत तऽ बिया बाकिर आम मोजरात नइखे। सदा आनंद रहे एही द्वारे के भावना अबहियों उफान पऽ बा, बाकिर सच्चाई तऽ कुछ अउरिये लउकता। आखिर के आ काहे हमनी के फगुनी बयार में माहुर घोरऽता? आपन फगुआ तऽ अइसन ना रहल हऽ । एह फाग के मौसम में भी आग लागल बा। नफरत के आग। पूरा देश जरऽता। दिल्ली दहकऽता।

अइसन मौसम में फाग के राग कढ़ावहूं में डर लागऽता। कहीं हमनी बेसुरा तऽ नइखीं हो गइल।

ना-ना, हमनी के बिल्कुल सुर में बानी जा। ‘हम भोजपुरिआ’ के पहिलका अंक ‘महात्मा गांधी विशेषांक’ निकलनी जा। आजादी के लड़ाई के समय गांधी जी विरोध के एगो जबरदस्त तरीका सउंसे दुनिया के देनी- सत्याग्रह। शांति से अहिंसा के राहे विरोध जतावल। ई बहुते कारगर भइल। बाकिर आज तऽ गजबे हाल बा। विरोध जतावे खातिर लोग बस जरावऽता, रेल के पटरी उखाड़ऽता आ एक-दोसरा के जानो ले लेता। उहो भारत जइसन देश में, जहवां  केहू के साथे जाति, धर्म, भाषा, रंग, क्षेत्र भा अउर कवनो आधार पऽ भेद-भाव ना कइल जाला। कट्टरपंथ आ हिंसा के जगह नइखे इहवां। शर्म आवे के चाहीं। आग लागी तऽ सभकर घर जरी। ना कादिर बचिहें, ना कामेश्वर। ईयाद रखे के होई कि दंगाई ना हिन्दू होला, ना मुसलमान अउर इंसानियत हिन्दू-मुसलमान से ऊपर के चीज हऽ।

नफरत के ईलाज प्रेम हऽ। ‘हम भोजपुरिआ’ के दुसरका अंक वसंत आ प्रेम पऽ केंद्रित रहे आ अब ई तिसरका अंक फगुआ पऽ केंद्रित बा।

फगुआ! आहा! चांद-तारा से सजल बिसुध रात छुई-मुई लेखां सिहरता। सोनहुला भोर मुसुकाता। प्रकृति चिरइन के बोली बोलऽतिया। कोयल कुहुक के विरहिनी के जिया में आग लगावऽतिया। खेत में लदरल जौ-गेहूं के बाल बनिहारिन के गाल चूमऽता। ठूंठो में कली फूटऽता। पेड़ पीयर पतई छोड़ हरियर चोली पहिर लेले बा। आम के मोजर भंवरन के पास बोलावऽता। कटहर टहनी प लटक गइल बा। मन महुआ के पेड़ आ तन पलाश के फूल बन गइल बा। हमरा साथे-साथ भउजी के छोटकी सिस्टर भी बउरा गइल बाड़ी। माधो काका भांग पीके अल्ल-बल्ल बोलत बाड़न। ढोलक, झाल-मंजीरा के संगे सिन्हा चाचा के गोल दुआरे-दुआरे फगुआ गावऽता। बड़की भउजी हफ्ता भर पहिलहीं से जहां ना रंगे के ओहू जी रंग देत बाड़ी। माई माथा पऽ अबीर लगा के मुंह में गड़ी-छुहाड़ा डाल देत बिया आ जुम्मन चाचा सीना से लगा के होली के शुभकामना देत बाड़न। तले आंख खुल जाता। बाहर के सच्चाई वाला मंजर से रोआं-रोआं सिहर जाता।

भाई हो, हम फेर कहब कि होली होखे बाकिर खून के ना, रंग के। ऊंच-नीच, जाति-पात, बड़का-छोटका के देवाल ढाह के, सियासत के खोल से बहरी निकल के, झूठो के मर्यादा के बान्ह तूर के, मस्ती में डूब के, मुक्त कंठ से, दमदार स्वर में…आईं एक साथे गावल जाये – जोगीरा सारा रा रा रा रा रा।

आईं होलिका जरावल जाय। ओह में गोंइठा, चइली, चिपरी, सिक्का, हरदी, नरियर, गुड़ डालीं भा मत डालीं आपन नफरत, इरिखा, कलंक, डर, डाह, हम-हमिता जरूर डालीं। नफरत के होलिका दहन होखे तबे सच्चा होली मनी।

अंत में हम इहे कहब –

कींचड़-कांदो गांव के सब फागुन में साफ

मिटे हिया के मैल भी, ना पूरा त हॉफ।

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