गँवई संस्कृति के पोषक जनकवि कैलाश गौतम

February 17, 2021
धरोहर
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जन्मतिथि – 8 जनवरी 1944
पुण्यतिथि – 9 दिसंबर, 2006

डा. पुष्कर

 

‘भक्ति के रंग में रँगल गाँव देखा,

धरम में, करम में, सनल गाँव देखा।

अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,

अमौसा नहाये चलल गाँव देखा।’  (अमौसा के मेला )

 

पंक्ति सुनते भा याद आवते कैलाश गौतम जी के चेहरा आ उ भाव नजरी के सोझा दउरे लागेला। चाहे ‘अमौसा के मेला ‘ होखे भा ‘गुलबिया के चिठ्ठी ‘ चाहे ‘बड़की भौजी, ‘कचहरी न जाना’,’ गाँव गया था गाँव से भागा’, चाहे ‘पप्पू की दुल्हन’। कैलाश गौतम जी के हर कविता में लोक के प्रति संवेदना,  मनःस्थिति के मनमोहक चित्रण, गाँवन के मिट्टी के खुशबू आ मिठास भरपूर मिलेला। अइसन नइखे कि कवि के दृष्टि ओह सामाजिक व्यवस्था प नइखे गइल जेकर आज जरूरत बा। कचहरी न जाना व्यंगात्मक कविता में त खु़लेआम गौतम जी दहाड़त बानी –

 

“कचहरी की महिमा निराली है बेटे

कचहरी वकीलों की थाली है बेटे

पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे

यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे

 

कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे

यही जिन्दगी उनको देती है बेटे

खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं

सिपाही दरोगा चरण चूमतें है।”

 

गागर में सागर भरे वाला क्षमता, मन के अपना सरसता, सहजता से भावविभोर क देवे वाला हिंदी आ ओह भाषा में भोजपुरी आंचलिकता के पिरोवे वाला जनप्रिय आधुनिक कवि  कैलाश गौतम ज़ी के जन्म 8 जनवरी 1944 में डिग्घी गाँव, जिला- चंदौली (उत्तर प्रदेश) में भइल रहे। कैलाश गौतम जी छात्र जीवन से ही साहित्यानुरागी रहीं। एम.ए., बी.एड. के डिग्री लेला के बाद अध्यापक बने के चाह बनारस से इलाहाबाद ले आइल। बाकिर बने के कुछ अउर लिखल रहे। कैलाश जी आल इंडिया रेडियो के आकाशवाणी इलाहाबाद केंद्र प कंपेयरर के पद प आसीन हो गइनी आ आजीवन आकाशवाणी से ही जुड़ल रहनी।  आकाशवाणी के दायित्व से मुक्त होते कैलाश गौतम जी हिंदुस्तान अकादमी के अध्यक्ष पद प मनोनीत हो गइनी।

कैलाश गौतम जी के रचनात्मकता आ रागात्मकता खातिर बड़-बड़ पुरस्कारन से सम्मानित भी कइल गइल। उत्तर प्रदेश सरकार के सर्वोच्च सम्मान यश भारती सम्मान, प्रसिद्ध ऋतुराज सम्मान आ परिवार सम्मान त मिलबे कइल, सबसे बड़ जवन सम्मान मिलल कि जनता इहाँ के दिल में बसा लेलन। जइसे भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर के मानल जाला, ओइसे जनक़वि कैलाश गौतम जी भी ओही रूप में पाठक आ श्रोता लोगन के हृदय में जगह बनवले बानी। गौतम जी के भाषा में पूर्वी उत्तर प्रदेश के टोन, बनारसी बोली आ भोजपुरी के जवन मिठास पढ़े, सुने आ देखे के मिलेला ऊ अद्वितीय बा। बदलत गाँव गौतम जी के रास ना आइल, जवन कवि ‘ अमौसा के मेला ‘ में गँवई संस्कृति से भरल पूरल, भौतिक आ आधुनिक सुविधा से अलग बिल्कुल गंगाजल लेखा शुद्ध जीवन, सरलता आ सहजता, ईमानदारी, परस्पर सौहार्द्र आ सामूहिक सोच के बखान कइनी, उहे कवि के वेदना साफ झलकल बा कविता ‘ गाँव गया था, गाँव से भागा ‘में –

“गाँव गया था,

गाँव से भागा,

रामराज का हाल देखकर,

पंचायत की चाल देखकर,

आँगन में दीवाल देखकर,

सिर पर आती डाल देखकर,

नदी का पानी लाल देखकर,

और आँख में बाल देखकर,

गाँव गया था,

गाँव से भागा।”

ए से गांव के गांवे रहे दियाव त भारत के संस्कृति आ सभ्यता अक्षुण बनल रही। अइसन मत करीं जा कि गाँवन के नया आ आधुनिक बनावे के चक्कर में गाँव के नामों निशान ही गायब हो जाये। काहे कि जब ले गांव बा तबे ले खेती बा, गाँवन के चलते ही भारत कृषि प्रधान राष्ट्र कहात आवता। गाँव में ही माटी के असली संस्कृति देखे के मिलेला। कवि कैलाश गौतम जी इहे चाहत रहीं कि गाँवन के विकास आ ओकर संप्रभुता तबे अखंडित रही, जब हमनी के एगो गांव के बुनियादी संस्कृति के संरक्षित रखत ओकर विकास करीं जा। जवन गाँव से खरिहान गायब हो गइल, दालान उजड़ गइल, किसान भाई के पहचान बदल गइल, मेहमान बोझ बन गइलन, घिघियात आदमी बा, अहरा, पोखरा भरा गइल, कुँआ के रेहट गायब हो गइल ओह गाँव में कवि के बेचैन मन कइसे रमी –

” गाँव गया था,

गाँव से भागा।

जला हुआ खलिहान देखकर,

नेता का दालान देखकर,

मुस्काता शैतान देखकर,

घिघियाता इंसान देखकर,

कहीं नहीं ईमान देखकर,

बोझ हुआ मेहमान देखकर,

गाँव गया था,

गाँव से भागा।”

कैलाश गौतम जी के कविता में किसान खातिर संवेदना साफ लउकेला। जइसे हल्कू खातिर प्रेमचंद जी के। इहाँ के पात्र रोअत नइखे, ऊ ओह समस्या के अपना भितरे पी जाता। केहू के एहसास नइखे होत। गौतम जी बड़ी बारिकी से ओह समस्या के ‘अमौसा के मेला ‘ में लिखत बानी-

 

“नुमाइश में जा के बदल गइली भउजी,

भईया से आगे निकल गइली भउजी,

आयल हिंडोला मचल गइली भउजी,

देखते डरामा उछल गइली भउजी ।

 

भईया बेचारु जोड़त हउवें खरचा,

भुलइले ना भूले पकौड़ी के मरीचा,

बिहाने कचहरी कचहरी के चिंता,

बहिनिया के गौना मशहरी के चिंता ।

 

फटल हउवे कुरता टूटल हउवे जूता,

खलीका में खाली किराया के बूता,

तबो पीछे पीछे चलल जात हउवें,

कटोरी में सुरती मलत जात हउवें।”

9 दिसंबर, 2006 के ऊ मनहूस दिन रहे, जब हिंदी आ भोजपुरी साहित्य के एह जनकवि के देहा़वसान भइल। ओकरा पहिले  ‘सीली माचिस की तीलियाँ ‘(कविता संग्रह), जोड़ा ताल ‘(कविता संग्रह), ‘तीन चौथाई आंश’ (भोजपुरी कविता संग्रह), ‘सिर पर आग ‘(गीत संग्रह) प्रमुख रूप से प्रकाशित हो चुकल रहे आ ‘तंबुओं का शहर ‘(उपन्यास), ‘आदिम राग’ (गीत-संग्रह),

‘बिना कान का आदमी’ (दोहा संकलन) अउर  ‘चिन्ता नए जूते की ‘(निबंध-संग्रह) जइसन कृति भी जल्दिये पाठक लोगन के संवेदित करी। अइसन जनवादी सोच आ ग्रामीण संस्कृति के साहित्य में पिरोवे वाला कवि बिरले पैदा होलें आ जब होलें त एगो इतिहास रच देवे लें। श्रोता, पाठक के जेहन में जवन पैठ कैलाश गौतम जी के बा ऊ सभके ना मिल सके। आपन सोंच के कैलाश गौतम जी जवन कविता में धार देनी ओकरा के हम नमन करत बानी।

निष्कर्षतः कैलाश गौतम जी आपन रचनन में लोकभाषा, लोकविश्वास, लोक संस्कृति के पुरहर जगह देनी आ मिथक, अन्धविश्वास, अव्यवस्था प प्रहार भी कइनी। इहाँ के अधिकांश रचना में ग्रामीण जीवन के अंतरात्मा बसेला,जवना में ग्रामीण जीवन के यथार्थ रूपन के साक्षात दर्शन होला। आज कैलाश गौतम जी नइखीं, लेकिन उहाँ के रचना ओतने प्रासंगिक बा।

कवि आपन रचनन में जवन गांव, खेत, बधार, मेला, खरिहान, गँवई विचार के स्थापित कइलन, आज दुख के बात इहे बा कि साहित्य आ संस्कृति  से उ गांव आ किसान दूर होत जात बाड़न। ओह निधि के बचावे के जरूरत बा तबे कैलाश गौतम जी के प्रति हमनी के आंतरिक संवेदना आ श्रद्धांजलि मुखरित होई।

 

परिचय- डा. पुष्कर, हिंदी आ भोजपुरी के युवा आलोचक आ रचनाकार बानी। आरा (बिहार) से शिक्षा ग्रहण कइला के बाद सम्प्रति शिक्षा निदेशालय, दिल्ली में कार्यरत बानी।

 

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