संपादक- मनोज भावुक
विचार से बढ़ के ताकतवर दुनिया में कुछु नइखे। मन में जब जइसन विचार चलेला, देह आ चेहरा के हाव-भाव ओइसने हो जाला। विचार में सुख के दुःख आ दुःख के सुख में बदले के ताकत बा। महत्वपूर्ण ई बा कि हम कवनो घटना के कइसे देखत बानी। देखे के ताकत आँख में ना, विचार में होला। आँख त बस एगो कैमरा ह। असल चीज त मनवे बा। मन विचार के कारखाना ह।
मन कइसन बनी, ई बहुत कुछ माई-बाप पर भी निर्भर करेला। माई-बाप के पहिला गुरु कहल जाला। कुम्हार कहल जाला। संतान त माटी ह, जवना के सान के माई-बाप रूपी कुम्हार मुकम्मल शेप देला, मतलब लइकन के आदमी बनावेला। एगो बात दिल से कहsतानी। एह के रउरो मानब। केतनो बाउर माई-बाप होखे, क्रिमिनले काहें ना होखे, उहो ना चाही जे ओकर औलाद बुरा होखे। उहो चाहेला कि ओकर बेटा-बेटी इंसान बने।
बाकी परवरिश आ परिवेश दूनो के असर होला। माई-बाप के डीएनए त रहबे करेला। ओह गुणसूत्र से गुण-दोष त अइबे करेला। एही से नू औलाद के माई-बाप के छाया भा प्रतिरूप कहल जाला।
माई-बाप प लिखल आसान ना होला। जे रउरा के लिखले बा, ओकरा प रउरा का लिखब जी ? ओकरा के शब्द में कइसे बान्हब ? हं ! अपना जिंदगी के ओह लेखक खातिर संवेदना के चार गो शब्द समर्पित कर सकीले। एह अंक में उहे चार गो शब्द उकेरे के कोशिश कइल गइल बा। बाकिर ई कोशिश भी पानी प पानी लिखे के कोशिश जइसन बा।
‘’ माई-बाबूजी विशेषांक ‘’ के संपादन के दौरान केतना बार हमार आँख लोराइल बा, कह नइखीं सकत। एह अंक में किसिम-किसिम के दुनिया समाइल बा। दुःख के दरियाव बा। सुख के समुन्दर बा। हम केतना पंवड़ी ? कई बार त लागल कि डूब गइनी।
कुछ विद्वान लोग माई-बाबूजी के भगवान के प्रतिनिधि कहले बा। कहले बा कि चूँकि ईश्वर हर जगह नइखन पहुँच सकत, एह से उ माई-बाप के गढ़ले। कुछ लोग त इहाँ तक कहले बा कि का जाने भगवान होलें कि ना होलें, दुःख सुनेलें कि ना सुनेलें बाकिर माई-बाबूजी त बेकहले दुःख बूझ जालें आ छटपटा के, बेचैन होके, अपना के खपा-मिटा के भी अपना बाल-बच्चा के मदद करेलें। त माइये-बाबूजी नू साक्षात भगवान बाड़ें।
हमार कहनाम बा कि माई-बाबूजी अच्छा-बुरा हो सकेलें। उहो इंसाने हउअन। सरधा से ओह लोग के भगवान भले कह दीं भा मान लीं बाकिर ई साँच बा कि उ लोग भगवान ना ह। त अगर ओह लोग से कवनो भूल हो जाय त दिल बड़ा क के भुला जाये के चाहीं। इंसान से भूल होला। होखे के त भगवानो से होला। बाकिर केहू के आदर्श भा भगवान मनला प भूल के पचावल तनी कठिन होला, एह से आदमी के आदमिये मानल ठीक होई। रउरा अपना माई-बाबूजी के सरधा से भगवान मानीं भा पूजीं, एह में कवनो दिक्कत नइखे। आसिरबादे मिली। बाकी अंधभक्त मत बनीं। अंधभक्त त केहू के बनल ठीक ना ह। चेतना के द्वार हरदम खुला रहे के चाहीं। हमनी के शास्त्र में लिखल बा –
सुशीलो मातृपुण्येन, पितृपुण्येन चातुरः ।
औदार्यं वंशपुण्येन, आत्मपुण्येन भाग्यवान ।।
अर्थात- कवनों भी इंसान अपना माता के पुण्य से सुशील होला। पिता के पुण्य से चतुर होला। वंश के पुण्य से उदार होला आ अपना स्वयं के पुण्य से उ भाग्यवान बनेला।
त सौभाग्य प्राप्ति खातिर सत्कर्म त करहीं के पड़ी !
संतान के कर्म अइसन होखे कि माई-बाबूजी लोग ओकरा प गर्व करे आ दिल से दुआ देव अउर माइयो-बाबूजी लोग अइसन होखे कि संतान उनका के आपन आदर्श माने आ पूजे खातिर बाध्य हो जाय, एही कामना के साथ -प्रणाम !