भोजपुरी कविता में राष्ट्रीयता के भाव

September 27, 2021
आवरण कथा
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डॉ. ब्रजभूषण मिश्र

राष्ट्रीयता के भाव एतना प्रबल होले कि ओकरा आगे आन स्थायी भाव फीका पड़ जाला। बाकिर ई भाव स्थायी ना होखे,कुछ समय खातिर होला। राष्ट्रीयता सर्वकालीन आ सार्वलौकिक भाव ना ह। बाकिर क्षणे भर खातिर काहे ना होखे, ई भाव पैदा होके भगत सिंह जइसन नवही के एसेम्बली में बम फेके खातिर प्रेरित कर सकत बा, चन्द्रशेखर आजाद से डाका डलवा सकत बा, उधम सिंह से गोली चलवा सकत बा।

सवाल इहो उठत बा कि राष्ट्रीयता के कवना रस के अंन्तर्गत स्थान दिआई। उत्तर में कवनो एक रस के नाम लिहल कठिन बा। जब राष्ट्र खातिर प्रेम के भाव उमड़ी, त एकरा के ‘श्रृंगार’ के अंन्तर्गत मानल जाई। जब देश के दुर्दशा से मन दुखित हो जाई, त ई ‘करुण रस’ के अन्तर्गत आई। जब देश माता रूप में लउकी त ‘भक्ति रस’; राष्ट्र खातिर लड़े-भिड़े के भाव जनमी, त ‘वीर रस’ आ ओही तरह ‘भयानक ‘,’वीभत्स’ आ ‘रौद्र ‘ सबके अंन्तर्गत एकर समावेश हो सकत बा। एकरा जड़ में आत्म-रक्षा, आत्म-गौरव के रक्षा, आपन राष्ट्र आ जाति का रक्षा के भाव लागल रहेला, एह से ई वीरे रस के अन्तर्गत मुख्य रूप से आई आ एह ‘वीर रस’ के भाव अधिका बाहरीये संकट से आवेला।

विद्वान लोग के मत बा कि राष्ट्रीयता का भावना के आधुनिक रूप के विकास यूरोप में भइल। बाद में ई धीरे-धीरे सँउसे संसार में फइल गइल। यूरोप में एकरा उद्भावना के कारण रहे। ऊहां छोट-छोट राज्य बहुत रहे। आपन धर्म, सभ्यता, संस्कृति के बरकरार राखे खातिर इहाँ बराबर प्रयास होत रहल। एही से राष्ट्रीयता का भावना के विकास भइल।

कुछ लोग के इहो मान्यता था कि एह भावधारा के सूत्र वैदिको साहित्य में मिलत बाटे-

“माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्या:।” ऊ लोग जे फ्रांस के राज्यक्रांति से राष्ट्रीयता के जनम मानत बाड़े,का एह बैदिक ॠचा में राष्ट्रीयता के भाव नइखन पावत। संध्या उपासना करेवाला लोग एगो श्लोक से जल शुद्ध करेलन-

गंगे च यमुने चैव गोदावरी! सरस्वती!

नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।

का एह श्लोक में राष्ट्रीयता के अभाव लउकत बा?

एह तरह से ई कहल जा सकत बा कि हमनी किहाँ आज के साहित्य भा कविता में जे राष्ट्रीयता के भाव आइल बा ओकर परम्परा वैदिक साहित्य से आइल बाटे, ऊ भाव खाली यूरोप के देखा-देखी नइखे पैदा भइल।

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भोजपुरी कविता में जब राष्ट्रीयता का भाव के बात उठत बा, त एकर उद्भव अंग्रेजी राज्य के  प्रतिक्रिया के रूप में सामने आइल बाटे। बीसवीं सदी के प्रथम चरण में रघुवीर नारायण आ प्राचार्य मनोरंजन बाबू भोजपुरी में देश-प्रेम आ देश के दुर्दशा के वर्णन कइलें। जन सामान्य के जगावे खातिर ई लोग के राष्ट्रीयता के स्वर मुखर कइल। सन् 1912 ई० में रघुवीर नारायण जी के लिखल आ प्रसिद्धि पावल गीत ‘बटोहिया’ के प्रकाशन 1917 ई० में हो गइल रहे। ई गीत भोजपुरी राष्ट्रगीत के रूप में सनमान पवलस। एह गीत में सउँसे भारत के मन हर लेवे वाला प्रदेश के चित्र खिंचाइल बाटे। एह में राष्ट्रीय एकता के स्वर प्रमुख रूप से गूँजल बाटे। भारत के नक्शा खींच के, ओकरा विशेषता के वर्णन कइल गइल बा। पर्वतराज हिमालय, गंगा, यमुना, सोन के प्राकृतिक दृश्य देखे लायक बा-

सुन्दर सुभूमि भइया भारत के देसवा से,

मोरा प्राण बसे हिमखोह रे बटोहिया।

एक द्वार घेरे रामा हिम कोतवालवा से,

तीन द्वार सिन्धु घहरावे रे बटोहिया।

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गंगा रे जमुनवां के झगमग पनिया से,

सरजू झमकि लहरावे रे बटोहिया।

ब्रह्मपुत्र पंचनद घहरत निसिदिन,

सोनभद्र मीठे स्वर गावे रे बटोहिया।

एतने ना, एह गीत में बुद्ध, विक्रमादित्य, शिवाजी, व्यास, वाल्मीकि, गौतम,  कपिल, रामानुज, रामानंद, विद्यापति, कालिदास, कबीर, सूर, तुलसी, जयदेव के इयाद कराके, एह धरती के प्रति भक्ति-भाव जगा के, एगो प्रेम पैदा करे के सफल प्रयास बाटे।

जब महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन शुरु भइल, तब मनोरंजन बाबू ‘फिरंगिया’ के रचना कइलन। एकर तर्ज बटोहिया वाला बाटे बाकिर भाव-भूमि अलग राष्ट्रीयता के भाव इहाँ करुण रस के माध्यम से प्रकट भइल बाटे-

जहँवा थोड़े ही दिन पहिले ही होत रहे

 लाखोमन गल्ला ओ धान रे फिरंगिया

ऊहें आज हाय रामा, मथवा पर हाथ हरि

बिलखि के रोवेला किसान रे फिरंगिया।

आगे चल के एह कविता में जालियाँवाला बाग में भइल अत्याचार के मार्मिक वर्णन कवि एह प्रकार से करत बा-

भारते के छाती पर भारते के बचवन के

बहल रकतवा के धार रे फिरंगिया

छोटे-छोटे लाल सब बालक मदन सब

तड़पि-तड़पि देवे जान रे फिरंगिया।

फेर कवि आगे अंग्रेज शासकन के चेतावत बा-

चेति जाउ चेति जाउ भइया रे फिरंगिया

छेड़ि दे अधरम के पंथ रे फिरंगिया।

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दुखिया के आह तोर देहिया के भरम करी

जरि भूनि होई जइबे छार रे फिरंगिया।

ई फिरंगिया गीत एतना प्रसिद्ध होखे लागल कि कवि का जेल मिलल आ कविता जपत हो गइल।

बाबू कुँवर सिंह के राष्ट्र-प्रेम के भावना आ ओकरा मर्यादा खातिर अंग्रेजन के लड़ाई पर केतना फुटकर रचना के प्रणयन त भइलहीं बाटे, कई एक प्रबंध काव्यन के रचना भइल बाटे। एह काव्यन में श्री हरेन्द्र देव नारायण आ पंडित चन्द्रशेखर मिश्र के महाकाव्य ‘कुँवर सिंह’ नाम से बहुत मशहूर भइल।

स्व. प्रसिद्ध नारायण सिंह जी के ‘बलिदानी बलिया’ (दूसर संस्करण-भोजपुरी वीर काव्य) में सन् 42 के राष्ट्रीय आन्दोलन में बलिया जिला के योगदान के बरनन आइल बाटे।

भारत के संगे चीन के एगो लड़ाई आ पाकिस्तान के सन् 65 आ 71 में लड़ाई पर आ राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत सैकड़न रचना सामने आइल बाड़ी स। एह में से त कुछ के बाद में संग्रहो प्रकाशित भइल, जइसे चीन के साथ लड़ाई पर आचार्य महेन्द्र शास्त्री के ‘धोखा’। रधुवंश नारायण सिंह जी के ‘भोजपुरी के ललकार’, त्रिलोकी नाथ उपाध्याय के ‘समय की पुकार ‘, लक्ष्मण पाठक प्रदीप  सम्पादित ‘जागरण के स्वर ‘, बलदेव प्रसाद श्रीवास्तव के ‘वतन का तराना’, डा०मुक्तेश्वर तिवारी ‘बेसुध ‘(चतुरी चाचा) के ‘हिमालय ना झुकी कबहूँ ‘, मणीन्द्र भूषण त्रिपाठी ‘मधुर ‘के ‘बिगुल’, दूधनाथ शर्मा श्याम के ‘हिमगिरि के नेवता’, कृष्ण मुरारी शुक्ल गोरखपुरी के ‘बलिदान की बारी ‘ आ गणेश दत्त किरण के ‘बावनी’ अइसने संग्रह बा जवना में चीन के साथ लड़ाई के अवसर पर रचाइल रचनन के समावेश बा।

एह रचनन में गणेश दत्त किरण के ‘बावनी ‘ त बहुते प्रसिद्ध भइल। बानगी रूप में ‘बावनी’ के एगो कवित्त सोझा बाटे-

धई के कचरा, लथारबि हम पटकि-पटकि

बान्हब मुसुक दुनों बाहिन से चउर-चउर

छरपट छोड़ाई देबि, हुमच-हुमच ठउर-ठउर

हिन्द महासागर में चीन के दरोरबि जब

बाँची तब जान ना लुकाइला से दउर-दउर।

भोजपुरी के प्रतिभावान युवा कवि कुमार विरल के ‘वंदना भारती’ नामक रचना के कुछ  पाँति देखल जाय-

ऊँच बा तिरंगा धज झूम रहल आदमी

सुरखुरा रहल हिया, उतान भइल आदमी

हमार देश ह हमार ई रही

करोड़ हाथ आरती उतारते रही।

अइसन कतेक उदाहरण बा जे भोजपुरी में राष्ट्रीयत के प्रतीक बा। ई कहल जा सकत बा कि भोजपुरी में राष्ट्रीयता के भाव से भरल-पूरल कवितन के कमी नइखे। भोजपुरी कवि राष्ट्रीय संकट आ समस्या से मुँह नइखे मोड़ले।

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