ज्योत्स्ना प्रसाद
जन्मतिथि- 19 अक्टूबर 1927 पुण्यतिथि- 31 दिसम्बर 1989
‘अपि स्वर्णमयी लङ्का न में लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी । । ’
ई कथन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र जी के ह। एह कथन से ही ई बात प्रमाणित हो जाता कि सनातन धर्म आ भारतीय परम्परा में माता के केतना ऊँचा स्थान बा? बाकिर एकर अर्थ ई ना भइल कि माता के महत्त्व के कवनों धर्म-विशेष के चौहद्दी में बाँध के देखल जाव। काहेकि प्राय: हर धर्म में माता के स्थान बहुत ऊँचा बा। मुस्लिम परम्परा में भी मानल जाला- ‘माँ के क़दमों के नीचे है जन्नत। ’ वइसे ही मरियम के बिना यीशु मसीह के कल्पना ही ना कइल जा सकेला। एह से हर धर्म में ही ना बल्कि जीव-जन्तु में भी अपना माता के प्रति विशेष लगाव देखल जाला। आखिर केहू के अपना माता के प्रति लगाव रहे काहे ना ? माता ही ऊ माध्यम हई जे ईश्वर-अंश के अपना गर्भ में धारण करेली, ओह अंश के कष्ट सहके भी शरीर प्रदान करेली। ओकरा दु:ख-सुख में शामिल होली। एह से कवनों बच्चा अपना सुख में महतारी के इयाद करे चाहे ना लेकिन दु:ख के छाया पड़ते ऊ सबसे पहिले अपना माई के ही इयाद करेला। एही से त महतारी के भगवान के दूसरा रूप भी कहल जाला।
हम अपना माई के अम्मा कहत रहनी। हमरा अम्मा शैलजा कुमारी श्रीवास्तव (जन्म- 19 अक्टूबर 1927- मृत्यु- 31 दिसम्बर 1989) के जन्म पिलुई, दाउदपुर, सारण (बिहार) के एगो सम्पन्न, शिक्षित आ प्रतिष्ठित परिवार में भइल रहे। उहाँ के प्रारम्भिक शिक्षा अपना गाँव में यानी पिलुई में ही भइल रहे जबकि माध्यमिक शिक्षा सीवान से भइल। चूँकि शैलजा जी के परिवार पढ़ल-लिखल रहे, उहाँ के बाबूजी उर्दू-फारसी-अरबी के शायर आ विद्वाने भर ना रहनी स्वयं एम. ए., एल. एल. बी. भी कइले रहनीं। एह से अपना बेटी के उच्च शिक्षा देबे खातिर उहाँ के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस भेजनीं। जहाँ से शैलजा जी स्नातक कइनीं आ साहित्याचार्य के परीक्षा-बिहार संस्कृत समिति से स्वर्ण पदक के साथे उत्तीर्ण कइनीं। जवना के बाद ही शैलजा जी दिघवलिया (सीवान) निवासी रसिक बिहारी शरण (एम. ए., एल. एल. बी.) के चौथा लड़िका (पाँचवीं संतान) श्री महेन्द्र कुमार (एम. ए., एम. काम., डीप. एड.) से परिणय-सूत्र में बँध गइनीं। बाकिर अपना शादी के बाद भी उहाँ के आपन पढ़ाई जारी रखते हुए पटना विश्वविद्यालय से डिप-एड कइनीं आ बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर से संस्कृत में एम. ए. कइनीं।
शैलजा जी बिहार में शिक्षा विभाग के विभिन्न पदन के शोभा बढ़ावत अंत मे प्राचार्या, महिला प्रा० शिक्षक शिक्षा-महाविद्यालय, सीवान के साथे-साथे जिला विद्यालय निरीक्षिका, सारण-सह-सीवान एवं गोपालगंज के पद से 31-10-85 के सेवनिवृत्त हो गइनीं। शैलजा जी अपना घर-गृहस्ती आ नौकरी के साथे-साथे साहित्य-सेवा में भी सदा सक्रिय रहत रहनीं। एकर प्रमाण ई बा कि सन् 1970 में उहाँ के पुरनका सारण जिला भोजपुरी साहित्य-सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष रहनीं त सन् 1972 में कानपुर भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में सचिव के पद पर चयनित भइनीं। सन् 1977 में उहाँ के अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के तिसरका अधिवेशन सीवान में स्वागत-समिति के संयुक्त सचिव के पद पर चयनित भइनीं। ऊहई उहाँ के अ. भा. भो. महिला साहित्य सम्मेलन 1977 के स्वागत मंत्री के पद के शोभा भी बढ़वनीं। सन् 1981 में तिसरका जिला महिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षता कइनीं।
शैलजा जी के साहित्य-सेवा के मद्दे नज़र उहाँ के सन् 1984 में साहित्य संचेतना द्वारा सम्मानित कइल गइल रहे। सन् 1990 में भोजपुरी निबन्ध संग्रह ‘चिन्तन कुसुम’ पर अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन द्वारा चित्रलेखा पुरस्कार से मरणोपरांत उहाँ के पुरस्कृत कइल गइल।
चिन्तन कुसुम (भोजपुरी निबन्ध संग्रह, 1981) के अलावा उहाँ के दू गो अउर प्रकाशित किताब लोकप्रिय भइल – कादम्बरी (वाणभट्ट के ‘कादम्बरी’ पर आधारित भोजपुरी में लिखल कथा, 2003) आ श्रद्धा-सुमन (भोजपुरी-हिन्दी-उर्दू कविता संकलन, 2016)।
गोरा रंग, मध्यम कद-काठी, सिन्दूर से भरल मांग, माथा पर बिंदी, कमर के नीचे तक लटकत एगो लम्बा चोटी या कभी जुड़ा बनवले, सिल्क या सूती साड़ी में सीधा पल्ला कइले शैलजा जी के देखते कोई सहज ही समझ सकत रहे कि उहाँ के सादगी के प्रतीक हईं।
शैलजा जी बचपन से ही प्रखर बुद्धि के रहनीं। उहाँ के मिडिल स्कूल सर्टिफिकेट परीक्षा में भी विशेषता के साथे उत्तीर्ण भइल रहनीं। पारिवारिक माहौल भी साहित्यिक रहे। बाकिर सीवान में ओह समय चूँकि लड़कियन के स्कूल ना रहे। एह से बुझाइल कि उहाँ के पढ़ाई में व्यवधान आ जाई। बाकिर अइसन भइल ना। काहेकि उहाँ के 1934 में डी.ए. वी. स्कूल सीवान में नाम लिखा गइल। शैलजा जी के कविता लिखे के क्षमता के एहसास पहिला बेर एही स्कूल में भइल। जब स्कूल में नशाखोरी के रोके खातिर कविता बनावे के छात्र-छात्रा से कहल गइल। शैलजा जी अपना ओही उमिर में जे कविता लिखनी ओकर बानगी देखीं-
ताड़ी दारू गाँजा भाँग पिअला के फल इहे, घरवा में खरची ना देहिया पर लुगवा
नाहीं जो तूँ मनब पिअल नाहीं छोड़ब त, उड़ि जइहें देह रूपी पिंजड़ा से सुगवा
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