डॉ. अन्विति सिंह
गुजरल दिन के कुछ-कुछ घटना अइसन ह जवन अकसरहे चेहरा पर मुस्कान लिया देवेला आउर याद अगर अम्मा, पापा आ मामा के तिकड़ी के होखे त सोने प सुहागा। ऊ लोग के सब याद हमार अनमोल थाती ह। जेतना बेर याद करीले ओतना बेर हम ओह समय के यात्रा क लेवेनी।
जाड़ा के दिन में अक्सर उहाँ के माने कलकत्ता के याद आवेला काहे कि मामा जाड़ा हमेशा उहवें बितावस। हावड़ा पंहुच के अम्मा के साथ मिलते मामा एकदम निश्चिन्त आ बेफिकिर हो जात रहले।
सुबह सवेरे मामा चौक के एगो चक्कर लगा अइहें आ मंदिर प धीरे से मिठाई के डिब्बा रख दीहें। अम्मा जब पूजा करे पंहुचिहें त डिब्बा देखते मामा के देखिहे। मामा हँसे लगिहें आ कहिहें, “तहरा ठाकुर लोग के भूख लागल होई, भोग चढ़ा द।”
अम्मा हमार अपना ठाकुर लोग के बर्तन के लेके एकदम सजग रहेली। चमचमात रहें के चाहीं हमेशा। जब मामा देखिहें कि ऊ पूजा के बर्तन धोअतारी त कहिहें ,”अभी जूठ लागल बा, तनी ठीक से धोऊ !” आ अम्मा ‘बे भईया’ कह के हंसे लगिहें। भाई बहिन के ई चुहलबाज़ी एक सबेर से रात ले चलते रही। एह पूरा समय में मामा केतना बेर अम्मा के कहत होइहें, “तोरा कुछ बुझाला, बुरबक !” एकर केहू अंदाज़ा नइखे लगा सकत।
सबसे जादा ई अम्मा तब सुनिहें जब ऊ मामा के खाना चाहे नाश्ता करावत रहिहें। जेकरा के भी अम्मा खाना परोस के खियवले बाड़ी ऊ जानेला कि अम्मा के संतोष ना होला। उनका पता ना काहे हमेशा ई लागेला की खाए वाला अधपेटे खाता। एही मारे खाना परोसते जाली। माने अम्मा जेतने खियावे में तेज मामा ओतने कम खाए वाला। कहल जा सकेला कि उहाँ का चिरई लेखा चुगत रहनी खाना। अम्मा कम खियइहे ना, एकाध रोटी चाहे दो मुठ्ठा भात थरिया में बेसी डलबे करिहें, त बस सुनिए एकही डायलॉग तोरा कुछ बुझाला!
एही तरे हम्मर छोट बहिन अधिकतर रूसले रहेली। घर के कवनो ना कवनो कोना में रूस के बइठले रहेली। मामा उनकर नाम देवता रखले रहले। देखते कहिहे, “अब आज देवता काहे रुसल बाड़ी?”
दिन दुपहरिया केहू आ जाए बेधड़क भोजन पर नेवत दिहे, ओकरा बाद आ के धीरे से पूछिहे, दू लोग क खाना हो जाइ नू? बाकी जवाब के कब्बो इंतज़ार ना कइले होइहेँ। काहे कि पूछला के बाद भी ऊ पुरा निश्चिंत रहिहें कि इहो कवनो पूछे वाला बात रहल ह। बिल्कुल हो जाई!
भलही मामा के कर्मभूमि दिल्ली रहे। कलकत्ता में भी उनकर दोस्त मित्र के कमी ना रहे। जबले उहाँ का कलकत्ता रहीं, रोज शाम के कहीं कवनो आयोजन रही, ना त घरवे लोगन के जमावड़ा रही।
बाहर जब भी जाए के होई, उनकर कोशिश रही कि पापा भी उनकरा संगे जास। मामा एगो त चिरई चुरमुन लेखा खाए वाला रहले ऊपर से उ एकदम सादा भोजन खाएवाला रहले। बेसी मसालेदार सब्जी त पापा भी ना खात रहलें।
त होखे ई कि मामा के सब्जी अलग बने आ सभकर वाला सब्जी में भी मरिच मसाला तनी हाथ रोकिए के डालल जाओ। एक बार मामा आ पापा दुन्नों जने कहीं निमंत्रित रहे लोग रात के भोजन प। हमनी के तनी सुतारे मिलल त तय कइनी जा कि आलू गोभी मटर टमाटर के एकदम चटपटा मसालेदार तरकारी आ पूड़ी खाइल जाव। तरकारी बनला के बाद ओकर रंग एतना अच्छा लागल कि मुंह में पानी आ गइल। सोचनी जा कि जल्दी से पुड़ी छानल जाव आ पेट पूजा कइल जाव। तबले केहू घंटी बजइलस। गेट खोले के जिम्मेदारी हमरे रहे। भाग के जइसे गेट खोलनी, सामने पापा आ मामा! देखते हमरा एक्के बात बुझाइल कि ई लोग बिना भोजन पानी कइले आइल बा लोग। अभी बेचारा लोग गेटवो ना पार कइले होई लोग तबले हम खुद के तसल्ली देवे खातिर पूछ लेनी, “पापा खाना खइबs लोग का?
बुझला पापा कवनो बात पर चिढ़ल रहले। एकदम्मे से खिसिया के बोलले “ई कवन पूछे वाला बात ह, खाइम जा ना? पापा इतना पिनक के बोललें कि जवाब देवे के हिम्मते ना भइल कि कहीं, तंहs लोग खाना बनावे से मना कइले रहलs लोग।
हमार त पसीना छूट गइल ई सोच के कि अब का होई। ई लोग लायक कुछ बनल नइखे आ अइसन कुछ हइयो नइखे जवन हाली से बन जाए। बजारे जा के सब्जी लियावे के समय रहे ना। अम्मा से कहती त उहो डटबे करती। काहे कि ऊ हमसे कहले रहली सब्जी लियावे के, हमहीं मना क दिहले रहनी।
ई सब लोग के डांट से बचे के इहे उपाय सूझल कि आंगन के पपीता बाबा के शरण में जाइल जाव। रात के समय रहे। पपीता बाबा से माफी मंगनी आ एगो पपीता तोड़ के ले अइनी। जल्दी-जल्दी काट-कूट के कूकर में छौंक दियाइल कि जल्दी बन जाव। लेकिन अभी एगो आउर दिक्कत रहे। हमनी के खीर भी न बनइले रहनी जा।
एके चम्मच सही, मामा खीर जरूर खात रहनी, खजूर के गुड़ वाला। जो खाना परोसाइल आ मामा खीर मांग दिहें तब ? फेर अम्मा डांटी। अम्मा के डांट में कवनो त अइसन बात रहे कि बचे के उपाय खुद ब खुद सूझ जाए।
बस हम का कइनी जे दूध खउला के ओहमे गुड़ आ इलाइची पाउडर डाल दिहनी आ दिन के बचल भात अच्छा से मिला के ओही में डाल देनी। भाभी के ए उपाय प तनी शक रहे। हम कहनी कुछ ना रहला से बढ़िया बा कि कुछ रहे। अभी आपन इज़्जत बचइला में भलाई बा। एतना जल्दी हमनी के उ लोग लायक भोजन के इंतज़ाम कइले रहनी जा कि अपना पर गर्व महसूस होखे लागल रहें। लेकिन लाख उपाय क ल जब किस्मत में डांट सुनल लिखल रही त पड़बे करी। आ पड़ल जबरदस्त डांट। अम्मा से ना बाकी मामा आ पापा से।
भइल ई कि मामा अपना तरकारी के साथ सभकर वाला तरकारी भी मांग लेस। एही से जब तक उहां का कलकत्ता रहीं हमनी के मरीचा वरिचा तनी कम्मे डाली जा। बाकिर ओह दिन त सब कुछ तनी जम के डलले रहनी जा। आ रोज लेखा ओहू दिन मामा मांग लेले। हम ना नुकूर करते रह गइनी। के सुनता। कहबो कइनी कि तनी तीत बन गइल बा। तब्बो नाई सुननी उहां का। का करतीं, दे देनी। …आ ओकरा बाद जवन डांट सुननी। बाप रे बाप। भगवान बचावस। दुन्नो जने एक्के साथ बोलत रहे लोग। आ दुनो जने के संगे दिक्कत ई कि ऊ लोग आ कुच्छुओं बोले लोग, जे सुनी ऊ हंसबे करी। त हम त चुपचाप मुस्कुरात रहनी आ अम्मा आपन अलग राग अलापत रहली कि “जब कहले रहल लोग कि खा के आवे के बा त बिना खइले काहें आ गइल ह लोग? “अम्मा जेतने बोलस ओतने हमके हंसी आवे आ उ दुन्नो जने के ओतने खीस बरे। पापा के त नाक प गुस्सा रहेला बाकी हम मामा के खीस पहिला आ अंतिम बार देखले रहनी। बाद में पता चलल कि उ लोग के खीस केहू और के रहल जवन हमरा प निकलल रहे। अम्मा अगला दिन मामा के भात के खीर के भेद भी बता दिहली। ओकरा बाद त मामा जब्बे खीर देखिहे कहिहे, “भात के खीर ना नू ह ?”