लेखक: मनोज भावुक
हमरा ईयाद बा जब हम छठवां-सातवाँ में पढ़त रहीं त माई हर साल गरमी आ जाड़ा के छुट्टी में बहरा से गाँवे निकल जाय। एकरा अलावे भी महिना-दू महिना पर गाँवे चलिए जाय। ओकर परान गाँवे में बसत रहे।
हम नया-नया शहर में आइल रहीं। शहर माने रेनूकूट, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश। हमरा बुझाय जे गाँव में बुरबक भा मजबूर लोग रहेला। जे चाल्हाक बा, तेज बा, सफल बा, प्रतिभावान बा उ शहर भागेला, शहर में बसेला। शहर में ओकरा बिल्डिंग पिटाला। उ हमार लड़िकबुद्धि रहे, बाद में त मजबूरी। कबो पढ़े खातिर, कबो नोकरी खातिर, कबो कुछ त कबो कुछ खातिर शहरे-शहर छिछिअइनी। अफ्रीका-यूरोप ले गइनी। धावते बानी, ना जाने कहिया से।
बस कोरोना में गोड़ तूड़ के बइठे के पड़ल बा। एकरा के लॉकडाउन कहाता। लॉकडाउन में ढेर लोग के गाँवे भागल देखनी ह। ढेर लोग के कहल सुनत बानी कि अब गाँवे में रहल ठीक बा।
कबो-कबो हमरो मन करsता कि गाँव के दुआर पर एगो कोना में खोंपी आ पलानी होखे। खूँटा पर गाय-बछरू बान्हल जाय। खाँटी दूध मिले। गाय के गोबर वाला खाद से फरहरी लागे आ ताज़ा तरकारी मिले। दुआर पर एगो-दूगो पेड़ लागे आ प्राणवायु ऑक्सीजन मिले। त हमार माई ठीके कहत रहे कि बबुआ हो जनमधरती से ना कटे के, ना छोड़े के, बुरा वक्त में ओही जी लौटे के पड़ेला।
आज जब मानव जीवन संकट में बा त सब बुझाता। बुझाता कि पंच तत्व जवना से जीवन बनल बा, देह बनल बा, ओकरा से जुड़ के रहल केतना जरूरी बा। माटी में रहल भा रोज माटी के छूअल केतना जरूरी बा। नीम, बरगद, पीपल के छाँव में रहल केतना जरूरी बा। घाम लोढल केतना जरूरी बा।
साँच कहीं त माई के बतिया बेर-बेर मन परsता आ मन परsता हमार गाँव। हमार स्टेशन दिमाग में नाचsता।
ई सिवान, रघुनाथपुर थाना के कौसड़ स्टेशन ह मगर आजो इहां से ना कवनो ट्रेन गुजरेला, ना बस। आजो ई गाँवे बा। हमार गाँव। सरयू (घाघरा नदी) के किनारे गाँव के दक्षिण में जवन बांध बा उ 20 फीट चौड़ी पक्की सड़क में तब्दील हो गइल बा। एह से विकास के कई गो अउर गुंजाइश बनत बा। बिजली बत्ती भी कम से कम बीस घंटा रहते बा। पानियो लोग खरीद के पीये लागल बा। कुछ घर में एसियो लागल बा। ओसारा भा बगइचा में बेना डोलावत लोग अब नज़र नइखे आवत।
हालाँकि कुछ लोग के माली हालत अभियो बहुत खराब बा। हमरा आपन एगो शेर मन पड़त बा-
कहीं शहर ना बने गाँव अपनो ए भावुक
अंजोर देख के मड़ई बहुत डेराइल बा
गाँव में हम बहुत कम रहल बानी बाकिर गाँव हमरा भीतर हमेशा रहल। हमरा हर रचना, हमरा हर संस्कार, हमरा जीवन शैली में रहल। इहाँ तक कि जवना महानगर भा महादेश में गइनी, आपन गाँव लेले गइनी। 1993 में हम अपना गाँव के बायोग्राफी लिखनी- कौसड़ का दर्पण। ओकर सारांश पोस्टर के रूप में तब होली के आस-पास कई गो गाँव के देवाल पर चिपकल रहे। तब हम आईएससी पास कइले रहनी। हमरा गाँव में 29 गो जाति के लोग रहेला। गाँव के बॉयोग्राफी के बहुत सारा हिस्सा हम पद्य में भी लिखनी। ओह में जातियन के जिक्र कुछ अइसे बा –
अहीर, गोंड़, नोनिया, बनिया, डोम, दुसाध, चमार
भर, भांट, कमकर, कुर्मी, बरई और लोहार
ततवा, तेली, तीयर, बीन, नट, कोइरी, कोंहार
महापात्र, मुस्लिम, मल्लाह, धोबी और सोनार
नाउ, पंडित, लाला, ठाकुर।
29 जातियों का ये झुंड
सीधा-शरीफ, हुंडा तो हुंड
कौसड़ के दर्पण में निहार
मन बोल रहा है बार-बार
हे कौसड़ तुमको नमस्कार !
लमहर कविता बा जवना में कौसड़ के लोग के जनजीवन के विभिन्न बिंदुअन के छूवे के प्रयास कइल गइल बा।
1993 में हम जवन जनगणना कइले रहनी, उ हमार खुद के शौकिया प्रोजेक्ट रहे। गाँव के जाने के रहे ठीक से। 3 महीने तक लागल रहनी। गर्मी के महीना रहे। कई बार सिवान के चक्कर लगावे के पड़ल गाँव से संबंधित कागजात खातिर।
हमरा से 20 साल पहिले ई काम हमरे गाँव के एगो वैज्ञानिक फूलदेव सहाय जी कइले रहनी। उहाँ के आत्मकथा में एगो अध्याय ‘’ मेरा गाँव कौसड ‘’ भी बा। हालाँकि तब ओह किताब के भा जनगणना के बारे में हमरा कवनो जानकारी ना रहे। जब हम आपन काम शुरू कइनी आ लोग से मिलल-जुलल शुरू कइनी त हमरा गाँव के गणेश सिंह ओह किताब के जानकारी दिहले, बल्कि उ किताबो उपलब्ध करवले। गणेश जी ओह जनगणना में फूलदेव सहाय के सहयोगी रहलें।
अपना गाँव के चौहद्दी के बात करीं त पूरब में गभिराड़, पश्चिम में बड़ुआ, उत्तर में पंजवार आ दक्षिण में घाघरा नदी बा। पंजवार हीं मुख्य सड़क बा जवन सिवान या छपरा, पटना से कनेक्ट करेला। पंजवार से डेढ़-दू किलोमीटर अंदर बा गाँव के लोग के रेसिडेंशियल एरिया। पंजवार रोड से लेके रेसिडेंशियल एरिया तक खेत बा। एही खेतन के बीच एगो खाड़ी बा जे दक्षिण में घाघरा नदी से कनेक्ट हो जाला। खाड़ी के निर्माण खेत के सिंचाई खातिर कइल गइल बा। एह खेत के कुछ भूभाग के चंवरा कहल जाला। खाड़ी ओह पार (पूरब दिशा में) के खेत के डीह पर के खेत कहल जाला आ दक्षिण में घाघरा नदी के किनारे वाला खेतन के दियर / दियारा कहल जाला। गेहूँ, धान, अरहर, जौ, बाजरा, मक्का, तरकारी आ दियर में ऊंख (गन्ना) के खेती होला। मक्का या मकई के बाल अगोरे खातिर मचान पर रात में सूते या दिन भर गपियावे के बचपन के कई गो संस्मरण जेहन में बा। हल अउर हेंगा के कहानियो ईयाद बा जवना के आज ट्रैक्टर रिप्लेस कर देले बा। गाय आ भईंस खातिर सांड़ आ भईंसा के ‘’ कर छो-कर छो ’’ कर के तलाशे के रोचक किस्सा-कहानी आ बचपन के जिज्ञासु मन में एह बाबत उठत तमाम सवालन के जबाब अपना बालमण्डली में खोजे आ विचित्र-विचित्र जबाब के ठहाकन से गुलजार याद भी बा हमरा साथे जवन शहर आ मेट्रो के बच्चा लोग खातिर त दुर्लभे बा।
तब खाना बनावे खातिर लगभग सभ घर में माटी के एक मुंहा आ दू मुंहा चूल्हा हीं होत रहे जवना में ईंधन के रूप में रहेठा या चइली लवना के रूप में प्रयोग कइल जात रहे। अब त मोदी जी घर-घर गैस के चूल्हा पहुंचा देले बाड़े। शौच करे खातिर अब शायदे केहू घर से दू किलोमीटर दूर खेत में जात होई। घर-घर शौचालय बा। अब कवनो माई, बहिन, भइजाई के शौच खातिर पेट दबाके अन्हार होखे के इंतज़ार ना करे के पड़ेला।
हमरो गाँव में कई गो अंग्रेजी मीडियम स्कूल खुल गइल बा। तब पंजवार से कौसड़ आवे वाली सड़क के अंतिम छोर, टी पॉइंट पर एगो सरकारी प्राइमरी स्कूल रहे, जवन आजो बा। बस बिल्डिंग थोड़ा बड़ा आ नंबर ऑफ रूम्स बढ़ गइल बा। हमरा नइखे मालूम कि अब के मास्टर जी हमनी के समय के पंडीजी के तरह रोज पेड़ के नीचे समूह में खड़ा करके पनरह का पनरह, पनरह दूनी तीस, तिया पैतालीस, चऊके साठ करवावेले कि ना। उ गाँवे के गिनती पहाड़ा के बेस रहे कि हम रेनुकूट, सोनभद्र (तब मीरजापुर) उत्तर प्रदेश में चौथी कक्षा में एडमिशन लेहनी तब से हाई स्कूल तक गणित में 100 परसेंट अंक मिलत रहल। ओही स्कूलिया पर हर मंगर आ शनिचर के साँझी खानी बाज़ार लागेला।
गाँव में चिक्का, कबड्डी, गुल्ली-डंडा के खेल अब ना के बराबर रह गइल बा। (बल्कि ई दुर्लभ खेल गाँव से पार्लियामेंट में सिफ्ट हो गइल बा। ) बच्चन में मोबाइल गेम इहवों हावी बा।
गाँवों में अब डायन ना के बराबर पावल जाली। पहिले त बाते-बात पर डायन अस्तित्व में आ जात रहली ह। केहू के बुखार भइल ना कि घर के लोग उचरल शुरू कर दी, डायन कइले होई। फेर डॉक्टर से ज्यादा ओझा के महत्त्व रहे आ दवा से ज्यादा करियवा डांरा के। हर बच्चा के कमर में एगो काला धागा होखे। केहू के इहां चोरी भइला पर पुलिस के पास लोग बाद में पहुँचे, पहिले पहुँचे गाँव के खुशी भगत के पास। खुशी भगत के बांध के किनारे देव स्थान रहे। उहवें ऊ भाखस आ बता देस कि केकर पाड़ा के चोरा के ले गइल बा। केकरा हाड़े कब हरदी लागी। केकर गाय गाभिन बिया आ केकरा कब लइका होई। सब सवालन के जबाब रहे खुशी भगत के पास। उनका पर परी आवत रहे लोग। उ बीड़ी पीयत रहस आ परी के आवते बीड़ी फेंक देस आ भाखे लागस, समाधान बतावे लागस। अब खुशी भगत ना रहलें।
गाँवो पहिले वाला ना रहल। हमरा याद बा तब जाड़ा के दिन में दियारा गइला पर लोग पूछ-पूछ के ऊँख के रस पियावे, महिया खियावे। अब एक दूसरा के पूछे आ मिले-जुले के रवायत कम हो गइल बा। बरगद के पेड़ भी अब पहिले जइसन छाँव नइखे देत। इंफ्रास्ट्रक्चर त बढ़ रहल बा बाकिर दिल के कंनेक्शन कमजोर हो रहल बा। गाँव त गाँव पड़ोसी गाँव भी ईर्ष्यालु आ आत्ममुग्ध हो गइल बा। उ रउरा काम के मान ना दी। एह से ओकरा अस्तित्व के खतरा बा। उ हज़ार, दू हज़ार, छह हजार किलोमीटर दूर कवनो आका खोज ली आ ओकरा के पूजी आ रउरा बड़ से बड़ उपलब्धि के नकार दी।
गाँव जहां भारत के आत्मा बसत रहे उहाँ के जड़ में सियासी घुन लाग गइल बा। जनकवि कैलाश गौतम के एगो कविता बड़ा लोकप्रिय बा, ” गाँव गया था, गाँव से भागा” .. स्थिति ओहू से बदतर होत जा रहल बा।
क्रिएटिविटी खातिर जरूरी बा कि गाँव आ चौहद्दी के गांवन में सौहार्द्र, सहयोग आ एक-दूसरा के आगे बढ़ावे के प्रवृति जागृत होखे। सहयोग हीं गाँव के मूल आत्मा रहे आ एही के बल पर बड़ से बड़ अनुष्ठान होत रहल बा।
एही सहयोग आ सौहार्द के पुनर्स्थापित करे के जरूरत बा। सबका आंगन में सूरज स्थापित हो, अइसन कोशिश होखे।
दूसर जरुरी बात गाँव के प्रति नज़रिया बदले। गाँव में महत्त्वपूर्ण काम करे वाला भी कुछ लोग के नज़र में बुरबक या लड़बक होला आ शहर में गोबर पाथे वाला भी होशियार। ई घटिया सोच बदले के चाहीं। अइसे कोरोना ढेर लोग के दिमाग दुरुस्त कइले बा। लोग के बुझाए लागल बा कि अब गाँव के ओर हीं लौटे के होई। शहर के आबोहवा जहरीला हो गइल बा। हमनी के मुखनली आ श्वासनली दुनों से जहर ले रहल बानी सन। एह से जीवन के बचावे के बा त गाँव के ओर लौटहीं के परी, बाकिर जीवन में जीवन रहे एकरा खातिर प्रेम आ सौहार्द्र के भी स्थापित करे के होई।
भागवान करस, हमार ई शेर झूठा साबित हो जाय –
लोर पोंछत बा केहू कहां
गाँव अपनों शहर हो गइल