पांडेय कपिल
आचार्य पांडेय कपिल हमार साहित्यिक गुरु रहल बानी। पटना प्रवास के दौरान ( 1996 -2000 ) उहाँ से निकटता बढ़ते चल गइल। पटना छोड़ला के बाद उहाँ के हमार अभिभावक के भूमिका में भी रहीं। 2005 में हमरा शादी में उहाँ का सपरिवार रेणुकूट आइल रहीं। 2 नवंबर 2017 के उहाँ के निधन भइल त हम पटना पहुँचल रहीं। अंतिम भेंट ओकरा डेढ़-दू साल पहिले भइल रहे तब उहाँ के आशीर्वाद स्वरुप आपन किताब लेखांजलि देले रहीं। कहनी ई किताब पढ़िह जरूर। एह से अंदाजा मिली कि भोजपुरी के इहाँ तक ले आवे में हमनी के का-का करे के पड़ल बा आ कइसन-कइसन उद्भट विद्वान एह अनुष्ठान में लागल बाड़न। आज, जब ” हम भोजपुरिआ/ भोजपुरी जंक्शन ” पत्रिका में ” भोजपुरी साहित्य के गौरव ” स्तम्भ खातिर भोजपुरी साहित्य के स्मृतिशेष योद्धा लोग पर आलेख मँगा रहल बानी, खोज रहल बानी, लिख-लिखवा रहल बानी त पांडेय कपिल जी के लेखांजलि के महत्व आ जरुरत समझ में आवत बा। डॉ. उदय नारायण तिवारी जी पर प्रस्तुत ई संस्मरण ओही किताब से लिहल गइल बा। – संपादक
भाषावैज्ञानिक दृष्टि से, हिंदी क्षेत्र से बाहर के भाषा के रूप में भोजपुरी के मुखर स्वीकृति देवेवाला आ ओकरा साहित्यिक विकास में रुचि आ रस लेवेवाला हिंदी के पुरनकी पीढ़ी के मूर्धन्य विद्वान में सबसे ऊपर अगर कवनो नाम हो सकत बा, त उ नाम ह डॉ. उदयनारायण तिवारी।
तिवारी जी भोजपुरी के परम हिमायती रहीं। “भोजपुरी भाषा के उद्भव आ विकास“ विषय पर आपन शोध-प्रबंध उहाँ के ओह घड़ी प्रस्तुत कइलीं जवना घड़ी पढ़ल-लिखल समाज भोजपुरी के पुछवइया कमे लोग मिले। उहाँ के डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के परम शिष्य आ अनन्य अन्तेवासी रहीं आ उनके निर्देशन में आपन शोध प्रबंध प्रस्तुत कइले रहीं। एह शोध प्रबंध के प्रशंसा गियर्सन आ टर्नर जइसन विद्वान कइले रहले।
तब हिंदी के विद्वान लोग ई मानत जानत आ घोषित कइले रहे कि भोजपुरी हिंदी के ही एगो विभाषा ह आ उ लोग ग्रियर्सन के एह मान्यता के एगो गंभीर साज़िश करार देत रहे कि भोजपुरी भाषी क्षेत्र हिन्दी भाषी क्षेत्र से बाहर पड़त बा। ग्रियर्सन आई. सी. एस. अधिकारी रहले आ फूट डाल के शाषण करे वाली जाति के एगो अंग रहले, एह से जनात रहे कि समूचा राष्ट्र के एक सूत्र में बाँधे में समर्थ हिन्दी के छोटे छोटे क्षेत्र में बाँटे में उनकर इहे नीति सहायक रहल होई। बाकिर पचासन बरिस तक भाषा-शास्त्र के गहन अध्ययन आ शोध के बाद डॉ. उदयनारायण तिवारी जी अंततः ग्रियर्सन के परिश्रम, ज्ञान आ मेधा के लोहा मानत, उनकर पक्षपातरहित विवेचना आ निष्कर्ष के सही ठहरवलीं, आ भोजपुरी के भाषिक स्थिति के मुखर मान्यता देत, ओकरा साहित्यिक विकास के मनसा-वाचा-कर्मणा स्वागत कइलीं।
तब, आचार्य शिवपूजन सहाय जी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक रहलीं, आ परिषद के ओर से सन 1951 में,16 मार्च से 20 मार्च तक पटना विश्वविद्यालय परिसर में ” भोजपुरी भाषा और साहित्य” विषय पर डॉ. उदयनारायण तिवारी के व्याख्यानमाला आयोजित कइले रहीं। पाँच दिन चले वाला एह व्याख्यानमाला खातिर पाँच गो संगोष्ठी के अध्यक्ष क्रमशः बिहार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री आचार्य बद्रीनाथ वर्मा, शिक्षा सचिव श्री जगदीश चंद्र माथुर, पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. शंखधर सिंह, पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ. विश्वनाथ प्रसाद आ हिन्दी के स्वनामधन्य लेखक संपादक रामवृक्ष बेनीपुरी कइले रहले। एह हाई प्रोफइल आयोजन में, हिन्दी के सारस्वत समुदाय के बीच में, तिवारी जी के ई व्यख्यानमाला भोजपुरी के सही भाषिक स्वरूप आ साहित्यिक उन्मेष के बहुते प्रभावशाली उदघोष रहे जवना के बहुते प्रभाव, कम से कम बिहार में, हिन्दी के विद्वानन आ साहित्यकारन पर पड़ल, आ भोजपुरी के रचनात्मक सक्रियता के प्रति आदर के भाव जागे लागल। तब हम पटना विश्वविद्यालय के छात्र रहीं, आ श्रद्धेय तिवारी जी के प्रथम दर्शन आ स्वल्प संपर्क के सौभाग्य एही संगोष्ठियन के दैरान भइल रहे। आगे चलके तिवारी जी के वृहदाकार शोधग्रंथ ” भोजपुरी भाषा और साहित्य” बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से प्रकाशित भइल, जवना से विद्वत समुदाय में भोजपुरी के भाषिक आ साहित्यिक स्वीकृति के बहुते बल मिलल।
अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के स्थापना आ पहिलका अधिवेशन के सिलसिला में 1973-75 के दौरान हमरा तिवारी जी से पत्राचार के कुछ अवसर मिलल रहे। एह सम्मेलन के संविधान तैयार करके ओकरा मोताबिक पहिलका अधिवेशन आयोजित करावे खातिर जे तदर्थ समिति बनल रहे ओकर सदस्य रहले- श्री द्वारिका सिंह(अध्यक्ष), आचार्य महेंद्र शास्त्री, श्री रघुवंश नारायण सिंह, श्री पांडेय नर्मदेश्वर सहाय, श्री गणेश चौबे, श्री बिपिन बिहारी सिंह, श्री सत्यनारायण लाल, श्री सिपाही सिंह श्रीमंत, आचार्य विश्वनाथ सिंह, डॉ. वसंत कुमार आ पांडेय कपिल (संयोजक-सदस्य)।
1973-75 के दौरान तदर्थ समिति के बीसों बैठक भइल, आ जब सम्मेलन के संविधान तैयार हो गइल त पहिलका अधिवेशन के अध्यक्षता खातिर डॉ. उदयनारायण तिवारी के नाम पर सभे एकमत हो गइल। चूँकि सम्मेलन के कार्यालय पटना में राखे के तय भइल रहे, आ हमनी के पटना में पहिला अधिवेशन करावल सुविधाजनक बुझात रहे एह से एकर तइयारी खातिर पटना में भोजपुरी प्रेमियन के एगो बड़ बैठक बोलावल गइल। तिवारी जी के स्वीकृति प्राप्त करे के जिम्मा हमनी इलाहाबाद में रहेवाला कवि भोलानाथ गहमरी के दिहलीं, आ तिवारी जी के नाँवें अनुरोध-पत्र गहमरी जी के पास भेज के उनका से अपेक्षा कइलीं कि उ तिवारी जी से स्वीकृति पत्र ले के पटना आवस आ ओह तइयारी बैठक में शामिल होखस।
तदनुसार, तिवारी जी के स्वीकृति पत्र के साथ गहमरीजी पटना पहुँचले आ ओह तइयारी बैठक में तिवारी जी के स्वीकृति पत्र के साथ हीं प्रयाग के भोजपुरी परिषद के ओर से पहिला अधिवेशन प्रयाग में करावे के निमंत्रण पत्र भी प्रस्तुत कर दिहले जे कि हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के प्रधानमंत्री श्री श्रीधर शास्त्री (अध्यक्ष, भोजपुरी साहित्य परिषद प्रयाग ) के हस्ताक्षर से लिखल गइल रहे। गहमरी जी के तर्क रहे कि ई अखिल भारतीय संस्था ह जवना के मुख्यालय पटना में रही त एकर पहिलका अधिवेशन प्रयाग में आयोजित कइला से एकर अखिल भारतीय स्वरूप उजागर होई, आ हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के परिसर में भोजपुरी के ई महाकुंभ आयोजित होखे त ई हिंदी के ओर से भोजपुरी के स्वीकृति मानल जाई। एह तर्क से सभे सहमत हो गइल आ पहिला अधिवेशन प्रयाग में, हिंदी साहित्य सम्मेलन के परिसर में करे के दिन तारीख सब तय हो गइल।
बाकिर जब डॉ. उदय नारायण तिवारी के ई सूचना मिलल कि अधिवेशन प्रयाग में होखे जा रहल बा त उहाँ के अध्यक्ष होखे से इनकार करे लगनी। गहमरी जी बहुत चिंतित होके चिट्ठी लिखले। फेर, तिवारी जी के भी चिट्ठी हमरा मिलल, जवना में उहाँ के लिखले रहीं कि हम इलाहाबाद में घर बना के रहे लागल बानी, इलाहाबाद में बस गइल बानी, एह से हम इलाहाबाद में होखे वाला सम्मलेन के अध्यक्षता ना करब। अइसने चिट्ठी उहाँ के पंडित गणेश चौबे किंहा भी लिखले रहीं।
समय कमे बाचल रहे। अधिवेशन के नियत तिथि नियराइल जात रहे, आ अब दोबारा बैठक बोलावे के आ दोबारा अध्यक्ष चुने के समय ना रहे। एह से, हम तिवारी जी के तुरंत चिट्ठी लिखनी कि अब एह सर्वसम्मत निर्णय में बदलाव ले आइल संभव नइखे, काहेकि एकर घोषणा हो चुकल बा, आ अब एह निर्णय के बदले खातिर जवन प्रक्रिया अपनावे के पड़ी ओह खातिर समय नइखे। हम इहो लिखनी कि सम्मेलन के संविधान के मोताबिक अध्यक्ष के कार्यविधि अधिवेशन से शुरू होके अगिला वार्षिक अधिवेशन के एक दिन पहिले तक खातिर बा, एह से सिर्फ दु दिन तक होखे वाली प्रयाग अधिवेशन के चलते, सालभर तक मिलेवाला अपना मार्गदर्शन से एह सम्मेलन के वंचित मत करीं, आ आपन इनकारी वापस लेवे के कृपा करीं। अंत में, हम इहो लिखनी कि अगर जे अमुक तारीख तक अइसन कृपा ना करब त हम पंडित गणेश चौबे आ श्री सिपाही सिंह श्रीमंत के साथे इलाहाबाद पहुँच के रउआ घरे भूख हड़ताल पर बइठ जाइब। एह चिट्ठी के प्रति चौबे जी आ श्रीमंत जी के भेजत हम इहाँ सभे से अनुरोध कइलीं कि इलाहाबाद चले खातिर तइयार होक रउआ अमुक तारीख तक पटना पहुंचे के कृपा करीं।
ई चिट्ठी मिलते श्रद्धेय तिवारी जी इनकारी के फैसला वापस ले लिहनीं आ गहमरी जी के सूचित कइलीं कि हम अध्यक्षता स्वीकार करत बानी। गहमरी जी टेलीफोन से एकर सूचना दिहले त मन हलुक हो गइल। तब तक श्रीमंत जी इलाहाबाद चले खातिर आ गइल रहले, आ ऊहे चौबे जी किहाँ बंगरी(चंपारण) में आदमी भेज के ई सूचना देवे के व्यवस्था कइले कि तिवारी जी अध्यक्षता करे के सँकार ले ले बानी आ अब इलाहाबाद जाए के जरूरत नइखे
एह तरे, हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के मंच पर अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के पहिलका अधिवेशन 8-9 मार्च 1975 के डॉ. उदय नारायण तिवारी जी के अध्यक्षता में विधिवत समपन्न भइल, जवना में डॉ. रामकुमार वर्मा समेत इलाहाबाद के रहवइया लगभग सभे हिंदी के विशिष्ट साहित्यकार लोग शामिल भइल रहे। मॉरीशस के राजदूत श्री रवींद्र घरभरन एह अधिवेशन के उद्घाटन कइले रहले। सम्मेलन के महामंत्री हमहीं बनावल गइलीं। सम्मेलन के काम बढ़ावे में तिवारी जी के हर संभव सहयोग हमरा बराबर मिलत रहल।
भोजपुरी के रचनात्मक आ संगठनात्मक विकास से तिवारी जी बड़ा हुलसित होत रहीं। सम्मेलन के प्रयास से जब बिहार सरकार भोजपुरी अकादमी के स्थापना कइलस त उहाँ के हुलास देखे में आवत रहे। अकादमी के स्थापना के कुछुवे दिन बाद जब उहाँ के पटना अइलीं त उहाँ के सम्मान में अकादमी के ओर से संगोष्ठी आयोजित भइल। एह संगोष्ठी में अकादमी के सदस्य लोगन के संबोधित करत उहाँ के भोजपुरी के एह उपलब्धि पर आपन आत्मिक प्रसन्नता व्यक्त कइलीं आ बतवलीं कि अकादमी पर कइसन जिम्मेदारी आ दायित्व बा अउर कइसन कइसन काम अकादमी के करे के चाहीं। अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन आ भोजपुरी अकादमी के काम के हिगरावत उहाँ के परस्पर तालमेल से काम करे पर विशेष जोर दिहलीं।
भोजपुरी के हर प्रकाशन के अवलोकन तिवारी जी बड़ा चाव से करत रहीं आ आपन शिष्य शोधकर्ता लोगन के ओकरा बारे में निर्देश कइल भुलात ना रहीं। भोजपुरी के हर गतिविधि पर उहाँ के नजर रहत रहे, आ भोजपुरी के लेखक आ कार्यकर्ता लोगन के उहाँ से आशीर्वाद आ प्रोत्साहन मिलत रहे। भोजपुरी के बारे में उहाँ के नजरिया सुलझल आ जबान साफ़ रहे। उहाँ के जमाना के हिंदी के विशिष्ट विद्वान लोगन में, भोजपुरी के जेतना खुलल आ व्यक्त समर्थन आ प्रोत्साहन उहाँ से मिलत रहे, उहाँ के पीढ़ी के कमे लोगन से मिलत होई।
तिवारी जी से व्यक्तिगत निकटता के अवसर हमके 1998 में मिलल जब उहाँ के पटना विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कुछ महीना खातिर पटना आ के रहे लागल रहीं। पटना आवे के एक हफ्ता भर के भीतरे उहाँ के हमरा आवास पर पधारे के कृपा कइलीं आ अपना आशीर्वाद से हमरा घर परिवार के कृतकृत्य कइलीं। उहाँ के हमरा से अपेक्षा कइलीं कि हफ्ता दु हफ्ता पर हम उहाँ के पटना आवास पर आवत जात रहीं। उहाँ के एह आदेश के हम सहर्ष शिरोधार्य कइलीं आ समय समय पर तिवारी जी के सेवा में पहुँचे लगलीं। हमरा साथे, जब तब भोजपुरी के नवका साहित्यकारो लोग उहाँ के लगे पहुँचल करे आ उहाँ के वचनामृत के लाभ लिहल करे।
पटना प्रवास के दौरान तिवारी जी राजेन्द्र नगर मोहल्ला में किराया के घर मे रहे लगनीं। ओही मुहल्ला में थोड़ीके दूर पर उहाँ के बेटी दामाद के मकान रहे। ऊ लोग बहुत कोशिश कइल कि तिवारी जी ओही लोग के साथ रहीं। तिवारी जी के दामाद श्री प्रमोद नारायण तिवारी हमार मित्र रहले। ऊ हमरो से कहववले कि बुढापा में अकेले रहल ठीक नइखे। बाकिर तिवारी जी के पुरान संस्कार, बेटी के घरे रहल आ बेटी के अन्न खाइल, मंजूर ना रहे।
एक दिन हम भोर के बेरा तिवारी जी के आवास पर पहुँचलीं त तिवारी जी तावा पर रोटी सेंकत रहीं। हम कहलीं कि अपने के अकेले में त बड़ा कष्ट बा, अपने हाथे भोजन बनावे के पड़त बा। तिवारी जी मुस्कुरात कहलीं कि हम ब्राह्मण नु हईं, आ ब्राह्मण के हर बालक के स्वयंपाकि होखे के संस्कार मिलल रहेला।
अपना व्यस्तता के बावजूद तिवारी जी भोजपुरी के ओइसन किताबन के अवलोकन ठीक से करत रहीं जवन उहाँ के पास उपहार के रूप में पहुँचत रहे। पढ़ला के बाद उहाँ के लेखक लोगन के प्रति लिखित भा मौखिक रूप से आपन प्रतिक्रिया व्यक्त करत रहीं। हमरा उपन्यास फूलसूंघी के उहाँ के बहुत प्रशंसक रहीं। कविवर जगन्नाथ जी के ग़ज़ल संग्रह ‘लर मोतिन के’ पढ़त उहाँ के आघात ना रहनीं। एह ग़ज़ल संग्रह पर कवनो हिंदी पत्रिका में एगो लमहर लिखे के उहाँ के विचार रहे, बाकिर व्यस्तता के चलते ई काम ना हो सकल। सत्यवादी छपरहिया के निबंध संग्रह ‘ कलमिया नाहीं बस में’ पढ़के उहाँ के एतना प्रभावित भइलीं कि सत्यवादी जी से मिले के इच्छा व्यक्त कइलीं। अपना रचना के तारीफ तिवारी जी के मुँहे सुनके सत्यवादी जी के आँखिन में लोर छलछला आइल।
ओह घड़ी हम भोजपुरी संस्थान पटना के त्रैमासिक मुखपत्र ‘ उरेह ‘ के संपादन करत रहीं। ‘उरेह’ के हर अंक तिवारी जी बड़ा मनोयोग से पढ़त रहीं। ‘भोजपुरी अकादमी पत्रिका’ के पहिलका साल के पहिलका अंक के बारे में ‘उरेह’ (जिल्द 4, अंक 1) के हमार सम्पादकीय टिप्पणी पढ़ के उहाँ के हमरा के बहुत बधाई देलीं आ भाषा विषयक हमार विचार के हार्दिक समर्थन कइनीं।
हमरा अनुरोध पर उहाँ के दोसर दोसर जरूरी काम रोक के ‘उरेह’ खातिर ‘भोजपुरी के प्रेमी ग्रियर्सन ‘ शीर्षक लेख लिख के देले रहीं, जे कि ‘उरेह’ के तिसरका जिल्द के चउथा अंक में प्रकाशित भइल रहे। तिवारी जी के उ लेख वस्तुतः डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी आ ग्रियर्सन से संदर्भित एगो रोचक संस्मरण रहे, जवना के कुछ अंश अपना एह संस्मरण में इहाँ पर उद्धृत करे के लोभ-संवरण हम नइखी कर पावत-
“हमारा गुरु डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ग्रियर्सन साहेब के बहुत बड़ा भक्त रहले। जब उ लंदन यूनिवर्सिटी में ‘बंगला भाषा के उद्गम आ विकास’ पर आपन डी लिट् के थीसिस लिखत रहले त ओमें सबसे ज्यादा सहायता ग्रियर्सन साहेब दिहले। कलकत्ता में जब हम सुनीति बाबू के छात्र रहलीं त उ हमरा से कहले कि ग्रियर्सन साहेब के भोजपुरी दही बहुत पसंद रहे। सुनीति बाबू बीच बीच मे ग्रियर्सन साहेब किहाँ जब मिले जास त ग्रियर्सन साहेब कहस कि दुनिया में सबसे मलाईदार दही भोजपुरी लोग खाला।
ग्रियर्सन साहेब लंदन से तीन चार स्टेशन पर राथफार्महम में रहत रहले। उनकरा एक मात्र पुत्र के जर्मनी वाली लड़ाई में निधन हो गइल रहे। ग्रियर्सन साहेब आ उनकर पत्नी ओकरा बहुत दिन बाद तक जियत रहे लोग। सुनीति बाबू बतावस कि ग्रियर्सन साहेब के पत्नी दही जमावे के ढंग भोजपुरी क्षेत्र से सीख के गइल रहली। ग्रियर्सन साहेब दु ठो भँईस रखले रहले। ओकरा दूध के गोइठा पर गरम करके दही बने आ फिर, ग्रियर्सन साहेब चूड़ा दही चीनी के जलपान करस। सुनीति बाबू इहो बतावस कि उ अपना घर पर एगो काकातुआ रखले रहले, जवन की बीच बीच मे बोले ‘ राम नाम मनवाँ राम-नाम बोल’।”
सन 1981 में, हम सारण जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के तेरहवाँ अधिवेशन के अध्यक्षता कइले रहीं। हमरा मुद्रित अध्यक्षीय भाषण के जब एक प्रति तिवारी जी के मिलल, त ओकरा के पढ़ के उहाँ के हमरा के आशीर्वाद देत चिट्ठी में लिखले रहीं कि ” अइसन सुंदर आ तर्कपूर्ण भाषण अबहीं ले केहू भोजपुरी भाषी नइखे देले। मन करता कि एकरा बार-बार पढ़ीं। एह भाषण खातिर रउआ के बार-बार बधाई। भाई, भाषा के समस्या पर स्पष्ट ढंग से सोचे के बा। आ रउरा सोचे के ढंग नितांत समीचीन आ मौलिक बाटे।”
श्रद्धेय तिवारी जी के अपना वार्धक्यशिथिल देह के अंत के कुछ आभास होखे लागल रहे। एह से उहाँ के अपना के समेटे लागल रहीं, आ प्रयाग ना छोड़े के मन बना चुकल रहीं। उहाँ के ई आध्यात्मिक इच्छा रहे कि जब ई देह छूटे, त तीर्थराज प्रयाग के माटी ही मिले। सन 1981 में उहाँ के ई अंतिम इच्छा पूरा त हो गइल, बाकिर उहाँ के ना रहला पर, भोजपुरी के नेही छोही लोगन के ई महसूस त भइबे कइल कि भोजपुरी के भाषिक अस्मिता के नेंव के एगो मजबूत ईंटा खरक गइल। उहाँ के पुण्य स्मृति के सादर नमन।