डॉ० ब्रज भूषण मिश्र
– ” हई देखबे नू काबुल के मोरचावालू के चटकवाही!
अइसन मरद त देखबे ना कइनी।”
– ” तू का जानो बड़का इमदी कइसन होखता है।
तोहरा नइहर में एको गो बड़का इमदी पैदे नहीं
हुआ।”
– ” आ मार बढ़नी रे ! बड़का अदमी रउआ इहाँ पैदा
होखत होइहें। हमरा नइहर के गाँवे त सिसोदिि पैदा
लेवेला।”
ई ह अपना समय के बड़ा प्रसिध्द आ कहीं त विश्व प्रसिद्ध नाटक ‘ लोहा सिंह ‘ के पात्र ‘ खदेरन के मदर ‘ आ ‘ लोहा सिंह ‘ के संवाद। एह रेडियो नाट्य श्रृंखला के लेखक, निदेशक आ मुख्य पात्र लोहा सिंह के किरदार निबाहेवाला रहीं ‘ पद्मश्री प्रोफेसर रामेश्वर सिंह ‘ काश्यप ‘। काश्यप जी के नाम के बड़ा शोर रहे, सोहरत रहे। बाकिर ई शोहरत रहे ‘ लोहा सिंह ‘ के नाम से। पटना रेडियो पर रोजे साँझ के साढ़े छव बजे आवे वाला कार्यक्रम ‘ चौपाल ‘ में एतवार के दिन एह नाटक के प्रसारण होत रहे आ ओही के मंगर के रात में नाटक कार्यक्रम में दोहरिआवल जात रहे। हम होश सम्हरनी त एह नाटक के प्रति लोग में गजब के आकर्षण रहे। गाँवा गाँई रेडियो त कम रहे। जेकरा दुआर पर रहे, सुने खातिर भीड़ लागत रहे। अपना भोजपुरिआवल अंगरेजी आ हिंदी के फेंट-फाट से बनल सिपहिया भाषा से लोहा सिंह के पात्र त प्रभाव छोड़ते रहे; खदेरन के मदर, खदेरन, बुलाकी, भगजोगनी, फाटक ( पाठक ) बाबा आ कवि जी के पात्र निखालिस भोजपुरी में चुटिला संवाद से सीधे जन साधारण से जुड़ जात रहे। भारत – चीन युद्ध के पृष्ठभूमि में श्रृंखला बद्ध नाटक अलग मोर्चा बना के लड़ल रहे, आ पेकिंग रेडियो कई बेर ई कह चुकल रहे कि नेहरू पटना रेडियो में एक भैंसा पाल रखा है जो चीन की दिवार को सिंह से टक्कर मारकर गिरा देना चाहता है। आम जनता चीन युद्ध के जानकारी खातिर समाचार से बेसी लोहा सिंह नाटक पर विश्वास करत रहे। आगे चल के जनता के जागरूक बनावे खातिर एह नाटक के प्रसारण होत रहल आ अपना भाव-भाषा-शैली से संवाद करके संदेश देवे में कामयाब रहल। कबहीं-कबहीं चौपाल कार्यक्रम में काश्यप जी तपेसर भाई के नाम से भोजपुरी के कम्पीयरर बन के आवत रहीं। ओह समय हम का जानत रहीं कि आगे चल के काश्यप जी के सम्पर्क में आवे आ आशीर्वाद पावे के अवसर भेंटाई।
काश्यप जी के सही से आ साक्षात दर्शन हमरा अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के नौंवा अधिवेशन राँची ( 25-26 अक्तूबर, 1985 ई.) में भइल। हमार पहचान ओह तरह के ना रहे पहिले से, बाकिर राँची अधिवेशन के अध्यक्ष पं० गणेश चौबे जी के घर से ले के राँची ले जाए के आ साथे रहे के जिम्मेवारी मिलला के बाद लोग कुछ कुछ हमरो के जाने लागल। राँची अधिवेशन में कवि सम्मेलन के अध्यक्षता काश्यप जी कइलीं। काश्यप जी काव्यपाठ कइलीं आ व्यापक प्रभाव छोड़लीं। अधिवेशन के दुसरका रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम रहे, जवना में गीत-गवनई-नृत्य-धोबिया नाच आ नाटक रहे। एक से बढ़ के एक कार्यक्रम। ओही में अनुरोध पर काश्यप जी द्वारा लोहा सिंह नाटक के प्रसंग आ संवाद अविस्मरणीय बन गइल। हमरा के सम्मेलन के कार्य समिति में संगठन मंत्री बनावल गइल। एक तरह से हमार पहिचान तनि मनी बने लागल रहे। मानीं त काश्यप जी से जुड़े के शुरुआत ओतहीं से हो गइल।
बात 1988 ई. के ह। मार्च के महीना रहल होई। समस्तीपुर जिला के अनुमंडल रोसड़ा में भोजपुरी कवि सम्मेलन आ सांस्कृतिक कार्यक्रम रहे। आयोजक रहीं अनुमंडलीय जन संपर्क अधिकारी विश्वनाथ सिंह। सिंह जी गोपालगंज निवासी रहीं आ भोजपुरी के बढंती के भाव से भरल रहीं। मैथिली लोग एह कार्यक्रम के विरोधी रहे, बाकिर कार्यक्रम भइल त एगारे बजे दिन से बइठल लोग एगारह बजे रात ले बइठल रहल। दिन के कवि सम्मेलन में अक्षयवर दीक्षित, अनिरुद्धजी, अंजनजी, सोमेशजी, कुबोध जी, सतीश जी, डॉ. रिपुसूदन श्रीवास्तव, कुमार विरल जइसन मंच जमाऊ कवि लोग रहे। हमहूँ रहीं। कवि सम्मेलन समाप्त होखते सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरुआत भइल। काश्यप जी रहीं आ ब्रजकिशोर दूबे के टीम गवनई खातिर। ( ब्रजकिशोर दूबे का भारत के राष्ट्रपति जी के हाथे संगीत नाटक अकादमी अवार्ड मिल चुकल बा)। कार्यक्रम शुरु होखते जम गइल। हमनी त सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरु भइला पर लवट गइल़ीं। बिहान भइला काश्यप जी मुजफ्फरपुर आ गइलीं आ रिपुसूदन श्रीवास्तव जी के इहाँ ठहरलीं। साँझ के हमरा आवास पर काश्यप जी के सम्मान में एगो गोष्ठी भइल, जवना में दीक्षित जी, अनिरुद्ध जी, सतीश्वर सहाय वर्मा सतीश जी, नागेन्द्रनाथ ओझा, विरल जी वगैरह सामिल रहीं। अध्यक्षता रिपुसूदन बाबू कइनी। एह गोष्ठी में भोजपुरी के ले के बात बतकही भइल। हमरा त मन में एही बात के उछाह रहे कि काश्यप जी हमरा आवास पर अइलीं। काश्यप जी हमरा बहिन प्रियंवदा के निहोरा पर लोहा सिंह के संवाद सुना के मन जीत लेहनी। एगो संवाद के कुछ पाँति हमरा आजुओ इआद बा –
” जानते नू हैं फाटक बाबा ! मरद दिन भर अपना दिमाग का इस्तेमाल करके मगजमारी करती है, एही से ओकरा माथा के बार उड़िया जावता है आ मेहरारू सब अपने मुँहवा का इस्तेमाल कर दिन भर चर-चर-चर-चर करती रहती है, एही से उसको दाढ़ी मोछ नहीं होखता है।”
ओह दिन हमरा इहाँ सम्मान गोष्ठी के बाद अक्षयवर दीक्षित के आ काश्यप जी के महाकवि आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री आ प्रख्यात आलोचक कामेश्वर सिंह शर्मा से मिले के कार्यक्रम बनल आ हम साथे गइनी। झुलफुलाह साँझ रहे, बिजुरी गायब रहे। पहुँचते बात बतकही से जे रोचक प्रसंग बनल, जवन भुलइले ना भुलाए। पहिले शास्त्री जी के इहाँ पहुँचलीं जा। शास्त्री जी पूछलीं – ” कौन ” ? काश्यप जी उत्तर देलीं – “काश्यप “। शास्त्री जी — “आइये, आइये, हमारे यहाँ की कुरसी में अँट सकिये तो बैठिये। ” काश्यप जी — ” गुरुदेव ! कुरसी में अँटने की बात कहाँ से आ गई ? ” शास्त्री जी फेर व्ंयग्यात्मक बोललीं- ” आप प्राचार्य हैं ओर मेरे यहाँ तो प्राचार्य की कुर्सी नहीं है।”
बइठला के साथे हाल-चाल, कुशल-क्षेम भइल। आ लगले शास्त्री जी पत्नी के हाँक लगवनी- ” भाई साहब कहाँ है? (शास्त्री जी पत्नी के बड़े चाहे भाई साहेब ही कहत रहीं) आइये, देखिए तो भला कौन आया है? आप दिन भर कान से रेडियो लटकाये चलती हैं। देखिये देखिये लोहा सिंह जी आये हैं। ” तब तक हाथ में लालटेन लिहले शास्त्री जी के पत्नी छायादेवी निकलली आ लालटेन के अँजोर काश्यप जी के चेहरा ओर करके झुक के अभिवादन करत कहली – “आप लोहा सिंह कह रहे हैं, ये तो बिल्कुल सोना सिंह लग रहे हैं। ” कहे के बात ना बा कि रौशनी में काश्यप जी के गोर भभूका चेहरा सचहूँ सोना लेखा दमक उठल रहे। कुछ देर तक पुरान-पुरान बात के इआद कइल जात रहल। हँसी ठहाका लागत रहल। बेकतीगत बात होत रहल। शास्त्री जी पूछनी कि कहाँ ठहरे के बा, त काश्यप जी बतवनी कि रिपुसूदन बाबू के इहाँ। शास्त्री जी एहू पर चुटकी लिहनी कि इस शहर में तो भोजपुरी के ठिकेदार रिपुसूदन जी ही हैं। ” ठहाका लागल। ओकरा बाद कामेश्वर सिंह शर्मा किहाँ काश्यप जी के ले के गइनी। दुनों लोग बैचमेट रहलें। घर परिवार से लेके नौकरी-चाकरी, लेखन-प्रकाशन के बारे में बात होखल। उहाँ से लेके विश्वविद्यालय परिसर, रिपुसूदन बाबू के आवास पर। आठ बजे से रात एगारह बजे रात तक कवि गोष्ठी। काश्यप जी के अलावे सतीश जी, अनिरुद्ध जी, दीक्षित जी, विरल जी, हम आ दू चार लोग हिन्दी-उर्दू वाला। बिहान भइला काश्यप जी पटना बस से वापस भइलीं। बस में शारदा सिन्हा के गीत बाजत रहे। सासाराम वापस भइला पर रिपुसूदन बाबू किहाँ सकुशल वापसी के चिट्ठी लिखनी आ लिखनी– ” बस में शारदा सिन्हा के गीत सुनत अइनी ह, क्या गाती है, मुआ घालती है।”
विश्वविद्यालय सेवा से निवृत्ति के बाद बिहार सरकार के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा स्थापित भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष बनावल गइलीं, काश्यप जी। आ ओह पद पर रहते उहाँ के निधन भइल। एह कालावधि में उहाँ से चार पाँच बेर भेंट भइल आ संगे रहे आ जतरा करे के अवसर भेंटाइल। सन् 1990 ई. के बात होई। एक बेर भोरे-भोर हम प्रसिद्ध कवि-कथाकार-लोक गायक भाई ब्रजकिशोर दूबे जी के संगे पटना से उहाँ के सासाराम आवास पर पहुँचनी, विश्वविद्यालय के चिट्ठी देके, पी-एच० डी० के परीक्षक बने के स्वीकृति लेवे खातिर। उहाँ से भेंट भइल। हल्का-फुल्का खाये खातिर आ चाय लेके उहाँ का खुद अइनी। दूबे जी उहाँ के विद्यार्थी रह चुकल रहीं, आ लोहा सिंह नाटक में कवि जी के भूमिका निबाहत रहीं। तनिक खुलल रहीं। पूछनी जे गुरुदेव अपनहीं कष्ट काहे उठावत बानी। काश्यप जी कहनी, मेहरारु इहाँ नइखी। दाइए से काम चलत बा आ लगवनी ठहाका। हमनिओ का आपन हँसी ना रोक सकनी। एही जतरा में काश्यप जी के कलम प्रेम के अँखियान कइलीं। कई-कई खाना वाला दू गो रैक में ट्रे में सजा के राखल सैकड़न तरह के सैकड़न कलम। बैठकी में आनंद आइल। तरह तरह के बात आ बीच-बीच में ठहाका। अविस्मरणीय रहल।
1991 ई. के गरमी के दिन में पटना में उहाँ के निजी आवास पर फेर भेंट भइल। हम कवनो काम से पटना गइल रहीं। दूबे जी से पता चलल कि काश्यप जी पटना में बानी। दुनों भाई उहाँ पहुँचनी। प्रणाम करके बइठ गइनी। मामला गम्हीर बुझात रहे। काश्यप जी कवनो संचिका में डूबल रहीं। अकादमी के निदेशक विक्रमादित्य मिश्र के चेहरा पर तनाव झलकत रहे। दू तीन अउर लोग रहे। उहो लोग चुपचाप बइठल रहे। हमनियो मौन बइठ गइलीं। काश्यप जी के मकान भाड़ा पर लागल रहे आ किरायादार रहत रहे। कुछ हिस्सा काश्यप जी अइला गइला पर अपना उपयोग लागि रखले रहीं। ऊ किरायादार किरायादार कम, परिवार जइसन रहे आ काश्यप जी के रहला पर अभिभावक सरूप धेयान राखत रहै। राखो काहे ना, काश्यप जी त धरोहर रहीं। हँ त एह गम्हीर वातावरण में खलल डरलस एगो तरकारी बेचेवाली- ” सब्जी लिआई, सब्जी? गोभी, टमाटर, भींडी, करैला, धनिया पत्ता, मिरचाई।” केहू कुछ ना बोलल। सब्जी वाली हल्ला करत बरामदा के गेट तक आ गइल। तब ले घर के भीतर से एगो लरिका तेजी से निकलल आ चुप रहे के इशारा करत कहलस- ” ना लिआई।” सब्जीवाली चुप रहे के इशारा पर धेयान ना देत ओतने तेज आवाज में बोलल- ” काहे ना लिआई ? इहाँ त बरमहल लिआला।” ऊ माथ के टोकरी नीचे उतार के रखलस। लरिकवा धीरहीं खिसिया के बोलल- ” जा तारू कि ना। ” काश्यपजी के धेयान भंग हो चुकल रहे। उहाँ का फाइल टेबुल पर राखत कहनी- ” ई मानी ना।” अब बिना ठहाका के रह सकत रहे। गम्हीर वातावरण हल्लुक हो गइल।
हमरा पी-एच० डी० के मौखिकी रहे 21 सितम्बर, 1991 ई. के। हमरा छुट्टी के अभाव रहे। हम परीक्षा के एक दिन पहिले पटना से सुपर फास्ट पकड़ के राँची साँझ में पहुँचनी। बूथ से अपना गाइड आ राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के आचार्य आ अध्यक्ष डॉ० दिनेश्वर प्रसाद जी के फोन कइनी, त उहाँ का होटल के नाम बतवनी, जवना में उहाँ का कवनो शिष्य के भेज के बुकिंग करवा देले रहीं। उहाँ का बतवनी कि काश्यपो जी ओही ट्रेन से आ रहल बानी आ ओही होटल में बुकिंग बा। ई डॉ० दिनेश्वर प्रसाद जी के सहजता, सरलता आ अपना शिष्यन के प्रति ममत्व रहे कि ओकरा काम के हल निकालत रहीं। खैर उहाँ के प्रति अउर कबहीं। होटल पहुँचनी त स्वागत काउन्टर पर ही काश्यप जी, उहाँ के पत्नी आ भाई ब्रजकिशोर दूबे मिल गइनी। काश्यप जी ओह घरी दूबे जी के साथ लेके कतहीं आवत-जात रहीं। प्रणामा पाती भइल आ आपन-आपन रूम पकड़ाइल। बिहने सबेरे उठ के तैयार भइनी आ दिनेश्वर बाबू के इहाँ गइनी। उहाँ का कहनी कि दुपहर में हिन्दी विभाग में परीक्षा होई। 30-35 आदमी जुट सकत बा। छात्र लोग के वर्ग नइखे चलत एह से जादे लोग ना जुटी। हम छोट भाई के जे पतरातू से उहाँ के हमरा साहित्यिक मित्र लोग के साथ आइल रहस पैंतीस लोग के बढ़िया नाश्ता के पैकेट के आर्डर देवे के कहनी आ होटल लवट गइनी। दूबे जी से पता चलल काश्यप जी बेटी के आवास पर पत्नी के छोड़े गइल बानी। जल्दीए आइब। भोजन एतहीं करब। काश्यप जी अइनी, उहाँ का भोजन अपना रूम में मँगा के करत रहीं त हम गइनी, त उहाँ का कहनी कि ‘ भोजन विजय ‘ कर रहल बानी। उहाँ के बतवनी कि भोजन के आज्ञा आ बीजे असल में आज्ञा लेके भोजन तैयार करावल ह आ बिजे करावल के मतलब भोजन विजय खातिर अनुरोध कइल ह। उहाँ के कहनी भोजन विजय सब लोग ना कर सके, ओह में मैथिली लोग पारंगत होला आ एह संदर्भ के एगो किस्सा सुनवलीं कि पटना विश्वविद्यालय के उहाँ के एगो प्रोफेसर मित्र कइसे कवनो होटल के साढ़े तीन ट्रे चंद्रकला मिठाई खा गइल रहस।
खैर, हमरा शोध निदेशक आ हिंदी के हेड दिनेश्वर बाबू के उमेद से अधिका, लगभग साठहन लोग मौखिकी कक्ष में उपस्थित रहलें। जेकरे पता चलल कि भोजपुरी के विषय पर वाइवा बा आ काश्यप जी परीक्षक बानी, ऊ जुम गइल। जेकर नाम हमरा इआद बा, ओह में विभाग के अध्यापकगण- डॉ. सिद्धनाथ कुमार, डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी, प्रो. सिद्धेश्वर आ दोसरा दोसरा कॉलेज के कई लोग, जेह में डॉ. श्रवण कुमार गोस्वामी, डॉ. ऋता शुक्ला आदि नाम प्रमुख रहे। एह लोग के उपस्थिति हमरा मन में डरो पैदा करत रहे आ गरिमो भरत रहे। हम नावाकिफ रहीं कि मौखिकी कइसे होला। हमरा ई रहे कि परीक्षक के अलावहूँ अउर लोग पूछ सकत बा। बाकिर कागजी औपचारिकता पूरा कइला के बाद काश्यप जी चार गो सवाल कइनी। तीन सवाल के हम आसानी से जवाब देनी। चउथा सवाल समझे में कठिनाई भइल त उहाँ का फरिअवनी। हमार जवाब सुनला के बाद उहाँ के कहनी कि उहाँ का संतुष्ट बानी, अउर केकरो पूछे के होखे त पूछे। दिनेश्वर बाबू कहनी कि इहाँ ई परिपाटी नइखे। तब उहाँ का कहनी – ” तो मिश्र जी को बधाई दी जाए, आज से डॉ. मिश्र।” दिनेश्वर बाबू हमरा से कहनी- ” सबसे आशीर्वाद लीजिए।” हमरा सबकर आशीर्वाद मिलल। ब्रजकिशोर दूबे के बारे में कई लोग जानत रहे। अनुरोध भइल त काश्यप जी के आदेश पर दूबे जी भोजपुरी के दू गो गीत सुनवलीं। पहिला गीत रहे महेन्दर मिसिर के पूरबी – ‘ अंगुरी में डँसले बिया नगीनिया ‘ आ दोसर गीत रहे भिखारी ठाकुर के जँतसार – ‘ डगरिया जोहत ना ‘। ई दूनों गीत दूबे जी के पहचान बनावेवाला गीत रहे। लोग गद्-गद् हो गइल। तब सभे एक सुर में काश्यप जी से लोहा सिंह के कवनो प्रसंग आ संवाद सुनावे के निहोरा कइलस। उहाँ का सुना के माहौल के खुशनुमा बना देहलीं। उहाँ के सुनवलीं –
धान के बिकरी करके जे रोपेया मिलल बा, कोठरी में बइठ के लोहा सिंह बेर-बेर गिन रहल बाड़न। खदेरन के माई पूछत बाड़ी त भगजोगनी बतावत बिया कि मलिकार कोठारी में बइठ के रूपया गिनत बानी। खदेरन के माई जा के टोकत बाड़ी- ” अजी सुनब कि ना रउआ। आ मार बढ़नी रे।” लोहा सिंह खिसिआइले बोलत बाड़न- ” काहे अतिना हल्ला करके हमरा हिसाब-किताब के ममिला में गड़बड़ेसन मारती है खदेरन को मदर।” खदेरन के माई जवाब देत बाड़ी- ” हम काहे हाला करत बानी, ई रउरा बुझात नइखे ? आ मार बढ़नी रे। ” तब लोहा सिंह बोलत बाड़न- ” हम कौनो अगमजानी है जे तोहरा मन के बात बूझ जाएगी। हमको त बुझइबे नहीं करता है कि तुम मेम है कि मेमिन है, टेलिफूँक है कि फेनूगिलास है। काबुल के मोरचा पर हम एक से एक मेम अउर मेमिन देखा, बाकिर तुम्हारा डिजैन का एको नहीं था। लगता है नू कि भगवान तुमको बनाने के बाद सँचवे तूड़ दिया जवना से कि तुम्हारा डिजैन का जनाना पैदे नत होखे।”
लागल ठहाका पर ठहाका। ताली पर ताली। आखिर में लगले काश्यप जी ई कहे में ना चुकलीं – ” मिसिर जी, ई राउर ‘ भाइभा ‘ ना, ‘ भा – भा ‘ भइल ह।” फेर से लागल ठहाका। ओतहीं ई जानत कि तेईस तारीख के वापसी के टिकट बा, तेइस के दुपहर में अपना आवास पर अभिज्ञान परिषद के एगो कार्यक्रम कै योजना डॉ० ऋता शुक्ला बना देहली। दोसरा दिन बाइस तारिख के काश्यप जी का बेटी किहाँ बितावे के रहे। हम दूबे जी के संगे पतरातू के प्रोग्राम बना दिहलीं।
मौखिकी के बाद हमनी का होटल वापस हो गइनी। अभी पूरी तरह आराम ना मिलल रहे कि राँची एक्सप्रेस, प्रभात खबर, आज वगैरह के पत्रकार लोग जुट गइल। बतिआवे के चाहत रहे। केहू के हिम्मत ना होत रहे जगावे के। आखिर कार दूबे जी जगवनी आ बतवनी कि पत्रकार लोग आइल बा त उहाँ का तैयार ना भइलीं। दूबे जी कहनी कि असरा लगा के आइल बा लोग, लवट जाई त अच्छा ना लागी। हम बइठावत बानी। अपने इत्मिनान से फ्रेस होके सबका संगही चाय पिअल जाई आ इंटरव्यू दिआई। काश्यप जी सहमत हो गइलीं। फ्रेस होके बइठनी
त सबका खातिर चाय मँगावल गइल। सवाल आ जवाब से काश्यप जी के जिनिगी के परत दर परत खुलत गइल। कइसे उहाँ का कोलकाता में नाटक करे के सीखनी। ओह समय के मुजफ्फरपुर के नाट्य कलाकार ललित सिंह नटवर से संपर्क भइल। कइसे जब आकाशवाणी, पटना में बिहार के लोकभाषा में कुछ रोचक लिखे के निर्णय भइल त उहाँ का ‘ तसलवा तोर कि मोर ‘ शीर्षक रेडियो रूपक लिखलीं। ओह नाटक के मुख्य पात्र लोहा सिंह रहे, जवना के भूमिका खुद काश्यप जी कइलीं। ऊ श्रोतालोग का बहुते पसन पड़ल। रिकार्डेड नौ सै से बेसी चिट्ठी प्रशंसा के आइल पटना रेडियो में। एह चिट्ठिया मे बेसी लोग इहे लिखले रहे कि ‘लोहा सिंह नाटक फिर से सुनवाया जाए ‘। इहे कारण भइल कि लोहा सिंह नाटक के सिलसिला शुरु हो गइल। एह बीचे भारत पर चीनी आक्रमण भइल। चीन के करतूत के पोल खोलेवाला आ भारत के पक्ष के मजबूती से राखेवाला रूपकन के प्रसारण हर हफ्ता होखे लागल। ई पूछला पर कि लोहा सिंह के किरदार रउरा कहाँ से आ कइसे सूझल, त उहाँ का बतवनी कि उहाँ के पिता जी मुंगेर में डी. एस. पी रहीं त उनके अधीन एगो हवलदार रहे जे सेना से रिटायर्ड रहे। ऊ धोती के ऊपर कमर में बेल्ट बान्हत रहे। ऊपर वर्दीवाला खाकी कमीज पेन्हत रहे। माथे मुरेठा बान्हत रहे आ हाथ में भर पोरसा के लाठी लेके चलत रहे। ऊ टूटल-फूटल अंगरेजी आ हिन्दी के भोजपुरिया के बोलत रहे। बाते-बात में मोर्चा के कहानी भा दृष्टांत सुनावत रहे। ऊ चरित्र भावल आ हम ओकर किरदार लिखनी। ई बात पूछला पर कि जिनगी में कवनो बात के अफसोस बा। उहाँ का बतवलीं कि उहाँ के एह बात के अफसोस बा कि ‘ लोहा सिंह ‘ के प्रभाव में रामेश्वर सिंह काश्यप के पहचान दब गइल। साँचहू ई बात सोचे पर मजबूर करेला कि हिंदी के आलोचना आ ललित निबंध लेखन आ भोजपुरी कवि-कथाकार काश्यप जी के कम चरचा भइल बा। पत्रकार लोग के पूछला पर उहाँ का बतवलीं कि पटना से प्रिंसपल रूप में सासाराम आ गइला आ कार्यभार बढ़ला से लोहा सिंह वाला सिलसिला भी कमजोर पड़ल, काहे से कि रिहर्सल्स वगैरह खातिर पटना में हफ्ता दस दिन रुकल जरूरी होला। उहाँ का बतवनी कि दूरदर्शन नेशनल चैनल खातिर तेईस एपिसोड बनावे पर बात चल रहल बा, कुछ औपचारिकता पूरा करके ओह में हाथ लागी।
बाइस तारीख के सबेरे हम आ दूबे जी पतरातू गइनी आ काश्यप जी अपना बेटी के आवास पर। उहाँ के पत्नी बेटिए किहाँ रहस। हम आ दूबे जी साँझ पहर राँची वापस हो गइलीं। तेइस तारीख के साँझ में साउथ बिहार एक्सप्रेस से पटना खातिर टिकट रहे। दिन में डॉ० ऋता शुक्ला जी के आवास पर काश्यप जी के सम्मान में अभिज्ञान परिषद के ओर से कार्यक्रम रहे, जवना में दूबे जी के गवनई तय रहे। तेइस के सबेरे हमनी तैयार होके होटल में बइठल रहीं। काश्यप जी अइलीं। भोजन पत्तर के बाद थोड़ा आराम। ऋता दीदी के इहाँ जाये के तैयारी। घनघोर वर्षा भइल। हमनी के दिनेश्वर बाबू के लेके ऋता दीदी किहाँ जाए के रहे। खैर विलम्ब हो गइल उहाँ पहुँचे में। काश्यपजी के सम्मान आ दूबे जी के गवनई कार्यक्रम के कमे समय में निबटावे के पड़ल। लिट्टी चोखा के बेवस्था रहे। छव बजे ट्रेन रहे, हमनी के दीदी के इहाँ से सीधे स्टेशन खातिर प्रस्थान कइनी। दीदी आपन गाड़ी निकलववली जे में काश्यप जी, दिनेश्वर बाबू आ दीदी, बालेन्दुशेखर जी, सिद्धेश्वर जी दोसरा सवारी से। हम दूबे जी ऑटो से। घर से निकले के पहिले ऋता दीदी आग पर के सेंकल लिट्टी, चोखा, अँचार आ मिठाई के झोरा थमा दिहली आ कहली कि रास्ता में खइह लोगन। चाचा जी खातिर ठीक रही। उहाँ का चीनी बा। लिट्टी से हरज ना होई। काश्यपजी ऋता दीदी के पिता जी प्रो. रामेश्वरनाथ तिवारी के बैचमेट रहीं। एही से चाचा भतीजी के रिश्ता रहे। स्टेशन पर दामाद के साथ काश्यपजी के पत्नी पहुँचली। विदाई के बेरा डाँ दिनेश्वर प्रसाद, डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी, प्रो० सिद्धेश्वर, डॉ० श्रवण कुमार गोस्वामी के अलावे अउर कई लोग रहे। ट्रेन से सफर करेवाला कई लोग प्लैटफॉर्म पर काश्यप जी से भेंट घाट कइल। कइसे कवनो धरोहर बेकती के सम्मान मिलेला देखते बनत रहे।
ट्रेन आइल। घुसला पर बर्थ पर डबल नम्बर देख के माथा चकराइल। हेर-फेर रहे, नयका चढ़ गइल रहे, पुरनका मेटल ना रहे। हमरा हिसाब से जे काश्यपजी के दू गो बर्थ रहे, एगो महिला कूपा में आ एगो अलग। महिला कूपा वाला बर्थ पर केहू औरत बइठल रहे। हम उहाँ से बतवनी त उहाँ का कहनी कि ना पूछनी ह कि रउए काश्यप जी के मेहरारू हईं का? लागल ठहाका। खैर सही बर्थ भेंटाइल, सामान सरिआवल गइल। अदमी अहथिर भइल। तबले दू गो संभ्रात महिला बोगी में घुसली आ महिला कूपा में बर्थ पकड़ली। ऊ दुनों जनी रहली- आकाशवाणी पटना के प्रोग्राम एग्जेक्यूटिव सरिता शर्मा आ लोकगायिका सिसोदिनी सिंह। सब एक दोसरा के पहचान वाला। नमस्कार अभिवादन, जतरा के बारे में एक दोसरा के बतावल। दुनों जनी शिष्टाचारवश काश्यप जी से मिलली। आकाशवाणी के बारे में बात चीत चलत रहल। ओही में चाय के दौर चलल। काश्यप जी पान के शौकीन रहनी ह। पनबट्टा राखत रहलीं ह। चाय के बाद पान के तलब भइल। पान बना के पहिले सरिता शर्मा आ सिसोदनी जी के तरफ बढ़वलीं। सिसोदिनी जी पान ले लिहली। सरिता शर्मा कहली कि ऊ ना खाली। काश्यप जी कहनी कि हर चीज कबहीं ना कबहीं पहिल बेर खाइल जाला। आज पहिल बेर पान खा लीं। तब सरिता जी पान ले लिहली। एही बीच बोकारो स्टील सीटी कॉलेज के प्रिंसपल पहुँचनी। उहाँ के पता चल गइल रहे कि काश्यप जी एही ट्रेन से जतरा कर रहल बानी त ढूढ़ँत पहुँच गइनी आ बोकारो तक बातचीत करत गइनी। काश्यप जी के दृष्टि बड़ा खोजी रहे। कवनो एगो स्टेशन पर गाड़ी रूकल। दोसरका प्लेटफार्म पर नजर गइल आ उहाँ का चिहाइले बोलनी- ” हउ देख रहे हैं, मेहरारू मरद को छनौटे-छनौटे मार रहा है। ” साँचहू कवनो मजदूरनी रहे जे कुछ रीन्हत-पकावत रहे आ कवनो बात पर मरद के छनौटा से दू चार छनौटा लगा देलस।
काश्यप जी के पत्नी काश्यप जी के बड़ा खेयाल राखत रहली। एकर प्रमाण मिलल एह बात से कि काश्यप जी के चेहरा पर कुछ लाग गइल रहे। ऊ अपना अँचरा से पोंछ दिहली। काश्यप जी मधुमेह के रोगी रहीं। उहाँ के भोजन-पत्तर संयमित रहे आ समय पर होत रहे। भोजन के कुछ समय पहिले इन्सुलिन के इंजेक्शन उहाँ के लेत रहीं। ऊ इआद करवली की खाये के बेर हो रहल बा, इंजेक्शन ले लिहीं। काश्यप जी इंसुलिन ले लिहनी। थोड़े देर बाद कहली कि इंजिनियर साहेब, इहाँ के दुइये गो लिट्टी दीं। इहाँ के रात में हम दुइए गो रोटी दीहिले खाये के। काश्यप जी के पत्नी हमरा के इंजिनियर साहेब कहत रहस, काहे से कि हम थरमल में कार्यरत रहीं। हम दूगो लिट्टी, चोखा, अचार प्लेट में निकाल के देनी। काश्यप जी कहनी कि रउओ लोग खाईं आ प्रिंसपल साहेब, सरिता जी अउर सिसोदनी जी के भी लिट्टी खिआईं। हमनी कहनी कि अपने खा लिहल जाव त हमनी खायेब। काश्यप जी का लिट्टी बढ़िया लागल। कहनी कि ऋता लिट्टी त बढ़िया बनववले रहली ह। दू गो लिट्टी खतम होखते हम पूछनी कि अउर लिआव त उहाँ का कहनी कि दीं। उहाँ के पत्नी कहली- ” ना – ना, अब ना। इहाँ का दू गो से बेसी नइखे खाये के।” काश्यप जी कहलीं कि आरे एगो खाये द नीक लागत बा। ऊ कहली कि अच्छा इंजिनियर साहेब एगो दे दीं। हम लिट्टी उहाँ का प्लेट में डलनी। उहो खइला के बाद काश्यप जी कहनी- ” मिसिर जी, एगो अउर दीं।” हम लिट्टी निकालतहीं रहीं कि काश्यपजी के पत्नी तनि तेजे आवाज़ में बोलली- ” ना ना इंजिनियर साहेब, बेलकुल ना। इहाँ का पहिलहीं तीन गो खा चुकल बानी।” हमार लिट्टी लिहल हाथ बढ़ल रह गइल, स्टैचू लेखा। ना बुझाए का करीं। खाएवाला माँगत बा, खाएवाला के खेयाल राखेवाला मना करत बा, हम का करीं ? किंकर्तव्यविमूढ़ हो गइनी। काश्यप जी पत्नी से कहनी – ” ए, लिट्टिया बढ़िया नू लागत बा, एगो अउर खाये ना द।” पत्नी साफ मना कइली- ” ना इंजीनियर साहेब, मत दीं।” आ काश्यप जी के ओर ताकत मना कइली- ” अब मत खाईं, हरज कर जाई। ” काश्यप जी के लोहा सिंह अतना सुनते जाग गइल रहे, बोलनी – ” हई देखते हैं नू , ई हमारा मेहरारू है कि थाना का हवलदार? ” पड़ल ठहाका। जतना लोग सुनत रहे सभे हँसे लागल आ आखिरकार आधा लिट्टी पर समझौता भइल। ओकरा बाद हमनियो खा लेनी। बोकारो स्टेशन नियराइल रहे। प्रिंसिपल साहेब कहनी कि अब बोकारो आ रहल बा, एह से उतरब। दूबे जी कहनी कि आखिर बोकारो के मतलब का होई ? काश्यप जी के जवाब हाजिर रहे — “जहाँ बोका लोग रो (row ) में रहेला। ” फेर ठहाका लागल। ओकरा बाद सभे सुत गइल। भोरे पटना पहुँचल। काश्यप जी दुनों बेकती अपना आवास पर गइनी। दूबे जी अपना आवास पर आ हम जतरा के सुखद स्मृति लिहले मुजफ्फरपुर खातिर बस पकड़नी। आगे चल के फेर कबो पटना में भेंट भइल त उहाँ का कहनी कि नेपाल जाए के मौका मिले त उहाँ कवनो खास तरह के पेन मिलेला, ले ले आइब। हम कहनी कि हम बीरगंज जा के ले आइब आ अपने के पहुँचा देब। ई हमरा खातिर सौभाग्य के बात रहे। बाकिर अवसर ना मिलल। कुछुए दिन बाद उहाँ के निधन हो गइल। अगर उहाँ का जीवित रहतीं त वीरकुँवर सिंह विश्वविद्यालय के वाइसचांसलर भइल रहितीं। उहाँ के प्रतिउत्पन्नमतित्व के जवाब ना रहे। उहाँ का जवन शैली इजाद कइनी, लोग लाख कोशिश कइल, आगे ना बढ़ा सकल। काश्यप जी के इआद कबहीं भोराए ना।