डाॅ0 प्रेमशीला शुक्ल
बिना दूसरा के सामिल कइले केहू की जिनिगी के बात पूरा ना होला। बाकी अइसन ‘दूसरा आदमी’ पचीस-पचास ना होलें, गिनल-चुनल होलें। अइसन कुछ लोग हमरो जिनिगी में आइल बाड़न, जेकर चर्चा कइले बिना हमार बात, हमरी जिनिगी के बात पूरा ना हो सकेला। अइसने लोगन में एक आदमी हवें-श्याम नारायण मिश्र। लोग इनके स्याम नारायन बाबू कहे आ विद्यार्थी ‘बड़का माट्साब’ कहें।
हमार पढ़ाई-लिखाई उत्तरी बिहार के मसहूर रेलवे जंक्सन बरौनी का गरहरा रेलवे काॅलनी में भयिल। अइसन रहे कि ईया-बाबा की देखभाल खातिर माई गावें (मिसिर के गउरी) रहें आ बाबूजी रेलवे में नौकरी करत रहलें। माई पढ़ाई-लिखाई खातिर बहुत जागरूक रहली। ऊ हमके घरवें पढ़ावें। जब उनका लागल कि अब हमार स्कूल गयिल जरूरी बा तब बाबूजी से ई बात कहली आ ये तरह से हम गरहरा आ गइलीं। बाबूजी ओ घरी ऊहें रहलें।
गरहरा में रेलवे स्कूल अबे नये-नये खुलल रहे। गरहरा से थोड़े दूर पर एगो गाँव रहे-बारो। बारो में एगो बहुत पुरान मिडिल स्कूल रहे। बाबूजी कहलें कि रेलवे स्कूल नया बा, सुन्दर बा, बाकिर उहाँ पढ़ाई-लिखाई बढि़या ना होई। बारो के स्कूल पुरान स्कूल बा, भले साधारण बा बाकी पुरान बा ऊहाँ पढ़ाई अच्छा होई।
बाबूजी हमके ले के स्कूले गईलें। बाहर निकलला के हमार ई पहिला अवसर रहे। एगो कमरा में बइठल स्कूल के हेडमास्टर आ उनका बगल में एगो दूसर आदिमी के हम चिहा के देखत रहलीं। बाबूजी प्रणाम करे के कहलें, तब हमार हाथ जुड़ गइल। बाबूजी आ हेड मास्टर साहेब में कुछ बातचीत भइल। थोड़े देर में हेडमास्टर साहेब दूसरका आदिमी से कहलें-‘‘दूसरे कमरे में ले जाकर इस लड़की से कुछ सवाल पूछ लीजिए और हिन्दी-अंग्रेजी में कुछ लिखवा लीजिए।’’ हम बहुत डेरा गइल रहलीं। लागे कि हमरा मुँहे से बोली ना निकली। बाकिर जइसहीं हमसे सवाल पुछाइल, हम बहुत सधल आवाज में सही-सही जवाब दिहलीं आ सही सही जवन कहल गइल लिखलीं। ऊ आदिमी आके हेडमास्टर साबह से कहलें-‘‘यह लड़की बहुत तेज है।’’ हेड मास्टर पुछलें-‘‘किस क्लास लायक है?’’ उनकर जवाब मिलल- ‘‘इससे अगर इम्तहान दिलवाया जाय तो यह आठ पास कर जाएगी।’’ हेडमास्टर हँसे लगलें। काहें कि ऊ स्कूल आठ ले रहे। फिर बाबूजी आ हेडमास्टर में कुछ राय-बात भइल आ हमार नाँव आठ में लिखावे के तय भइल। जब फारम भराये लागल तब उमिरि क सवाल उठल। हम रहलीं छोट आ क्लास रहे बड़। बाबूजी कहलें कि क्लास के हिसाब से उमिरि लिखा जाय। इहे भयिल। मिनटे भर में हम बड़ हो गयिलीं।
दूसरे दिन हम क्लास में रहलीं। क्लास में ढेर लइका-लइकी रहलें आ सामने उहे काल्हि वाला आदिमी। हम देखत रहलीं-एगो लम्बा, सुडौल कद काठी के आदिमी चाक-डस्टर, किताब आ रजिस्टर के साथे मेज का लगे लागल कुर्सी पर आके बईठ गइल। ऊँच लिलार आ गेहूँ अइसन उज्जर रंग वाला ये आदिमी के हम काल्हियो देखले रहलीं। देखते हमार बोलती बन्द हो गइल रहे। आजुवो ओइसहीं भइल। हम कवनो तरह से अपना के सम्हरलीं। माट्साब गणित पढ़ावल सुरू कइलीं। मास्टर साहब के बतावल बाति हमरा दिमाग में उतरे लागल आ बुझाए लागल कि माट्साब बहुत जानकार बानी। एतने नाहीं उहाँ के बतावल बाति बड़ी जल्दी समझ में आ जाता। शिक्षक के इहे छवि हमरा दिमाग में उतरि गइल। पाठ के सहज, सरल बनाके पढ़ावल शिक्षक के गुण त हइहे ह। धीरे-धीरे उनुकर हर बात बेवहार अच्छा लागे लागल। तबे हमार डर धीरे-धीरे खतम हो गइल। एगो शिक्षक के इहे छवि हमरा दिमाग में बइठि गयिल। दू-चार दिन में हमके पता चलल इहाँ के नाम स्याम नारायन मिसिर ह। ई नाम के सुनते एगो गहिर अपनापा हमरा भीतर जागल। हमके बुझाइल कि ई नाम ओइसहीं बा जइसे हमार बाबूजी, चाचा आ भईया के बा। ये समानता के कारण ‘मिसिर’ शब्द रहे। स्कूल के शिक्षक लोगन में केहू सिंह रहे, केहू श्रीवास्तव, केहू शर्मा रहे, केहू मंडल। अकेल स्याम नारायन बाबू मिसिर रहलें। तब हम ना जानत रहलीं कि भारतीय समाज में जातिगत संरचना के का स्वरूप बा, ना हमरे भाव में एकर तनिको असर रहे। बाकी ई जरूर कहब कि अनजाने में उहाँ से बाप-भाई जइसन रिस्ता महसूस होखे लागल। ई भाव के मन में संजो के हम ऊँहां के ऊहे कहीं जवन सब लइके कहें-बड़का माट्साब (बड़का ये से कहल जाय काहें कि ऊहाँ का सब मास्टर लोगन में बड़ रहलीं)।
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