अन्तिम बिदाई (निशा राय)

November 4, 2022
संस्मरण
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निशा राय

 

बाहरी सुख-संपत से भरल-पूरल परिवार पर दुख के पहाड़ तब टूटल जब 2006 अंतिम चरण में पता चलल कि पापा जी के कैंसर जइसन रोग जकड़ लेहले बा। डेढ़ साल ले त पापा जी बड़ी ढिंठाई से ओकरा से लड़नी बाकिर धीरे-धीरे बेमारी बरियार आ उहाँ का कमजोर परत गइनी। जइसे-जइसे देंह बदले लागल उहाँ के स्वभावो में बदलाव आवे लागल रहे। उहाँ के मने-मने ई बुझा गइल रहे कि बाल-बच्चा परिवार के साथ-संघत अब ढेर दिन के नइखे। सायद अंतिम समय में मोह के धागा अउर मजबूत हो जाला।

पापा, कबो केहू से ना कहीं कि रिपोट में कवनों कमी बा। जब बंबई से लौटीं त बहिन-बहनोई, बेटी-दमाद अउरो हीत नात सब एकट्ठा होखे, हर बेरी ईहे कहीं कि कवनो चिंता के बात नइखे। बेमारी अब एके परसेंट रहि गइल बा। मम्मियो हूँकारी पार के आपन सहमति दे देस। बाकिर एगो बड़हन बोझा लेके दूनू बेकत चलत रहे लो जवना के वजन के अंदाजा कबो केहू के ना लागे देव लोग।

 

रौबदार कद काठी, कड़क स्वभाव, कड़क अईंठल मोछ आ ओह पर तेज आवाज में नियमित शिवतांडव स्रोत के पाठ।

मुहल्ला के लइके उनके रावण अंकल कहें। दफ्तर में जेई साहब, समाज में रायसाहब, बाल बच्चा खातिर पापा जी बाकिर माई (दादी)-बाबा खातिर ऊ आजुओ बबुना रहनी।

नाम त उहाँ के ओमप्रकाश रहे बाकिर जहिया बाबा उहाँ के नाम से बोला दीं उहाँ के समझ जाईं कि हमरा से कवनों गलती हो गइल बा।

माई बाबा के बबुना आ हमनी के पापा जी जेतने जम के दफ़तर में नोकरी करीं, ओतने दम खम के साथे गाँवे आपन खेतियो बारी देखीं। सबसे अगताहे फसल तइयार हो के जब खरिहान में लागे त देखनिहार के धरनिहार लाग जाव।

पापाजी के मेहनत, सुभाव के उदाहरण लोग अपना बाल बच्चा के देव। गाँव-जवार में आर्थिक आ समाजिक प्रतिष्ठा चरम पर रहे। लेकिन ए मायावी दुनिया के ईहे त रीत हवे कि दुख चाहें सुख कुछू स्थाई ना होला।

बाहरी सुख-संपत से भरल-पूरल परिवार पर दुख के पहाड़ तब टूटल जब 2006 अंतिम चरण में पता चलल कि पापा जी के कैंसर जइसन रोग जकड़ लेहले बा। डेढ़ साल ले त पापा जी बड़ी ढिंठाई से ओकरा से लड़नी बाकिर धीरे-धीरे बेमारी बरियार आ उहाँ का कमजोर परत गइनी। जइसे-जइसे देंह बदले लागल उहाँ के स्वभावो में बदलाव आवे लागल रहे। उहाँ के मने-मने ई बुझा गइल रहे कि बाल-बच्चा परिवार के साथ-संघत अब ढेर दिन के नइखे। सायद अंतिम समय में मोह के धागा अउर मजबूत हो जाला।

जवन पापा जी के सामने खड़ा भइला में हमनी के गोड़ काँपे ऊ पापा जी अब हमनी के साथे बइठ के घंटों बतियावे लागल रहनी। सबके पसन्द, नापसन्द के खेयाल राखे लागल रहनी।

कबो केहू से ना कहीं कि रिपोट में कवनों कमी बा। जब बंबई से लौटीं त बहिन-बहनोई, बेटी-दमाद अउरो हीत नात सब एकट्ठा होखे, हर बेरी ईहे कहीं कि कवनो चिंता के बात नइखे। बेमारी अब एके परसेंट रहि गइल बा। मम्मियो हूँकारी पार के आपन सहमति दे देस। बाकिर एगो बड़हन बोझा लेके दूनू बेकत चलत रहे लो जवना के वजन के अंदाजा कबो केहू के ना लागे देव लोग।

लगभग दू बरिस ले बम्बई के जसलोक अस्पताल के चक्कर लगावत-लगावत जब पापा जी के लीबर केंसर उहाँ के एकदम अचलस्त कइ देहलस तब डाक्टर मम्मी से कहलें कि अब इनके घरे लेजा के सेवा करीं। मम्मी भारी मन से उहाँ के लेके गोरखपुर आ गइली आ चतुर्वेदी अस्पताल में भर्ती हो गइली। एने बाबा जब गोरखपुर आवे के तइयार भइनी त माई अलगे रोए पीटे लागल कि हमरो के ले चलीं हमू बबुने के लगे रहब। बाबा भरले गला से डटनी कि बर-बजार के समान त तूँ खइबे ना करेलू त बहरे में कइसे रहबू?  का खइबू?

माई कहलस हम चिउरा भूजा धs लेब, उहे खाके रहेब बाकिर अब अपना बाबुए के संगे रहेब। अस्पताले में चहुंपला पर केहू के मुँह से बोली ना निकसल बाकिर अंखियाँ चुप होखे के नाम ना लेत रहे। पापा जी के कंठ रुन्हा गइल रहे खाली आंखी के कोर पड़े पानी के एगो लकीर बन गइल रहे, ना जाने का का कहे के रहे जवन मनवे में रहि गइल।

हीत नात के आवाजाही दिन-भर लागल रहे, डाक्टर नर्स आ के आपन ड्यूटी कइले जाव। सब लोग अब दिन गीनत रहे पापा जी के कष्ट देख के मम्मियो अब उहाँ के मुक्ति खातिर भगवान से मनावे लगली। माई, बाबा, बेटा, बेटी मन ही मन सब संतोष कइ लिहले रहलें बाकिर सेकेण्डो भर खातिर जब पापा जी के देहिया पर जाव तs  हाहाकार मच जाव। डाक्टर हाथ जोड़ लिहलें कि अब घरे लेके जाईं सभे। थोर मन से लाद फान के पापाजी अपना जनम धरती पर आ गइनी।  देखे वाला लोग के तांतां से बरामदा दालान अंगना सब भरि गइल। कइसहूँ राति बीतल, बिहाने सब छेंक के बइठले रहि गइल आ 27 जून 2008 के उहाँ के प्राण पखेरू नजर बचाके फुर्र हो गइलें अपना पीछे रोवे वाला के लमहर कतार छोड़ के। माई के जवान बेटा हेराइल रहे त मेहरारू के मांगि के सिंगार,  बेटा-बेटी के पापाजी भुलाइल रहलें आ बहिन लोग के भाई साहेब।

रोवे वाला पछाड़ मार के रोवत रहे बाकिर पापा जी लमहर दरद आ थकान के बाद आराम के नींनी सुतल रहनी जेकरा केहू के झकझोरला से कवनों अंतर ना पड़त रहे।

बाबा एक आंखे रोवत रहनी त दुसरा आंखी अंतिम संस्कार के तइयारी देखत रहनी। कबो फूल के इंतजाम पूछत रहनी त कबो बाजा वाला के खोजत रहनी, बाकिर जब अपना जनेव में बान्हल चाभी से ब्रीफकेस खोल के सिक्का के झोरी लुटावे खातिर निकलनी त छोटका बाबा भड़क के खाड़ा हो गइनी कि जर जवान के मइयत में पइसा लुटावल जाला?  बाजा बजावल जाला? पगला गइल बाड़s  का मास्टर? जवान लरिका के मरला से तोहार माथा फिर गइल बा?

बाबा कहनी, ‘जवन कार इनका करे के चाहीं ऊ कार हमरा से करवावsतारें। … अंतिम बिदाई देतानीं त छूंछे कइसे दीं? ‘

एगो लमहर सांस लेके बाबा सिक्का के झोरी लिहले बाहरा निकल गइनी।

दुआरे पर सिंहा बाजल त बुझाइल कि गँउवो जवार के करेजा फाट जाई। माई मेहरारू आ सजो परिवार छाती पिटते रहि गइल आ राम नाम सत् के मद्धिम बोली के बीचे पापा जी अपना अनंत जतरा पर निकल गइनी।

पीछे-पीछे बाबा मने मन बड़बड़ात जात रहनी ”बबुना तोहार अंतिम यात्रा, अंतिम बिदाई ईहे नू ह’

त धूम धाम से निकलs हो।”

 

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