ई जिनिगिया के बा अलगे एगो खेला (उदय नारायण सिंह)

November 4, 2022
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उदय नारायण सिंह

 बेटी-तिस्ता उर्फ अनुभूति के संगे हम मंच पर प्रदर्शन करत रहीं। ऊ आपन जीउ-जान लगा के मंच पर ‘कुंवर सिंह’  के गाथा गावस आ हम उनकरा संगे-संगे गाईं। सब कुछ सुंदर रहे बाकिर अचानक- “कवन ठगवा नगरिया लुटल रे”- हमार सब कुछ लुटा गइल। हम सारा उतजोग कर के भी “तिस्ता” के बचा ना पवनीं, बेटी सुरधाम के जतरा पर निकल गइली। एह सांच से गुजरल एगो अनुभव रहल जवना के लिखल हमरा खातिर असंभव बा।  तीस्ता चल गइली, उनकर बहिन सृष्टि उनका अभियान के आगे बढ़ा रहल बाड़ी बाकिर तीस्ता के जगह केहू थोड़े ले सकेला। उनकर हूक रह-रह के हिया में उठत रहेला।

संसार की हर शय का इतना ही फसाना है,

इक धूंध से आना है, इक धूंध में जाना है!”

अब जब हर शय के, हर जीअतार जीव के, धूंध से आ के धूंधे में मिल जाये के बा त हर जीव से आदमी के महत्त्व अलगा काहे? एकर एतना बखान काहे? एकरा में का गुन बा कि सभे आदमी के योनि के ही सबसे बड़हन आ दामिल योनि मानेला? तनीं सा गहिराह हो के देखाव त एगो अंतर त जरूर लउकता आ ऊ ह हर जीव से अलगा, आदमी के सोचे-समझे के गुन। ई गुन आदमी के छोड़ के आऊर कवनो जीव में ना पावल जाला।

जइसहीं सोचे-समझे वाला बात के बोध होखे लागेला, तब आदमी एह सवाल के दबाव में आ जाला कि हम के हईं, हमरा के केऽ भेजलख आ काहे भेजलख? आखिर ऊ के बा, जेकर हम इहां साध पुरावे आइल बानीं, ऊ का चाहता हमरा से, हमरा का-का करे के बा? अइसन कई-कई गो बात बा, जवना के आज तक जबाब ना मिल सकल एह जगत के अभी ले।

बात धूंध के होखो-धूंध आखिर ह का? एह सवाल के जवाब इहे नूं होई – एगो अइसन घना बादल, जवना के भीतर ना त देखल जा सकेला आ ना झांकल जा सकेला। मतलब अइसन दुनिया, जवन सबका सोझा त बा बाकिर सबकरा खातिर गोपनीय बा-एकदम अस्पष्ट आ अभेद्य। आ इहे ह जिनगी के मूल तत्त्व। एकरा के केहू आज ले ना समझ पावल कि जिनगी पावल कइसे जाला। कहाँ से आदमी आवेला आ कहाँ चल जाला।

ई परम सत्ता के ऊ गोपनीय व्यवस्था ह, जवना के समझे-बूझे खातिर आज तक सभे अपना-अपना सोच के ऊंचाई तक ले गइल बाकिर जे जेतना समझल, ओकरा खातिर ऊ ओतने ढ़ेर रहल। ओह विचार करे वाला बेचारा के ओतने औकात रहे। कबीर दास जी एह जगहा पर कहतानीं- “मन फूला फूला फिरै, जगत से कैसा नाता रे”- माने ई भरम ही बा कि हम सब जान गइनीं आ एही फेरा में एह क्षणभंगुर जगत से आदमी मोह लगा लेहलख! कबीरदास जी एह जगहा पर कहत बानीं- “जाये के अकेल बा त झमेल कवना काम के!” जब अकेलहीं जाये के बा त भरमे के का बा, मोहाए के का बा? अकेले आइल बानीं, खाली हाथे अइनीं-अकेले जायेब आ खालिए हाथे जायेब। जवन लेहनीं, इहवें से लेहनीं, जवन देब, इहवें दे जायेब। (ई गीता भी कहेला)। एह सब बतकही के मथला के बाद एगो बात त जरूर बुझाता-जिनगी के सांच तबहीं ले बुझाई, जब ले आदमी जीअता। आदमी मतलब सभे बाकिर अभी बात अकेल के होखो। हम जवन देखतानीं भा रऊआ सभे जवन देखत बानीं, उहे सांच बा। मतलब जवन सोझा बा आ लऊकत बा, ऊ जिनगी ह बाकिर सब कुछ अन्हरिया। एकरे खातिर हमनीं के दार्शनिक भा धरम के किताबन में पहिलहीं लोग कह गइल बा-“सत्यम् शिवम् सुंदरम्”। जवन आंख के सोझा बा, उहे सांच ह आ जवन सांच बा, ऊ देवता के तरफ से संचालित होता, ईश्वर के प्रतिनिधित्व करता, एह से ई शिव ह। चूंकि शिव ह, एह से एकरा से बढ़-चढ के कुछुवो आऊर सुन्दर होइए ना सके -एकदम साफ-सुथरा आ बाईस कैरेट के सोना।

एह ‘सत्यं-शिवं-सुदरम्’ के खाली रउरे भा हमहीं नइखीं स साधत। ढ़ेरे कोई सधलख, ढ़ेरे कोई साधत आइल बा आ ई आजो सिलसिला जारी बा। जे साध लेहल, पा लेहलख सूत्र, ऊ त ई कहत इहां से निकल गइल-“पिया मोरा मिलिया रे, पिया मोरा मिलिया रे-सत्त, गेयानी रे। ऐसा पिया हम कबहुं ना देखा, सूरत देखी लुभानी रे, पिया मोरा मिलिया रे-बकौल कबीर दास जी”। जे जीवन आ मरण के जतरा के बीच में कबहुं एह फिलॉसफी के समझ गइल, ऊ अब हमरा भा रउआ के बतावे खातिर रूकल ना, ऊ तर गइल।

अइसन अनगिनत प्रसंग बा, जवन हमनीं के आध्यात्मिक किताबन के पन्ना में छुपल बा। अइसन साधक, अपना सफल साधना के बाद एह मोह-माया के तेअगलख आ जगत के टाटा-बाय बाय कह के चल देहलख। ओकरा साधना के का स्तर रहे, ऊ जीवन-मरण के कइसे देखलख, का समझल, केतना समझल, ओकर ऊ आपन प्रयास रहे आ ऊ ओहि ढ़ंग से एकरा के खोजे के प्रयास कइलख। हमनीं के दिक्कत ई बा कि हमनिओ के उहे खोजतानीं स बाकिर साधना के ओह ऊंचाई के नइखीं स पकड़ पावत।

सब आदमी अपना-अपना ढ़ंग से जिअता। अब हर आदमी के आपन-आपन अनुभव बा। अगर सभे आपन-आपन अनुभव साझा करो, तब त जिनगी के परिभाषा के ओरे-छोरे ना भेंटाई। केहू कहेला-जीवन संघर्ष ह त केहू कहेला- “जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम”, केहू कहले बा-“जिंदगी, हंसने-गाने के लिए है पल-दो पल।” केहू त इहवां तक कह गइल बा- “जिंदगी एक सफर है सुहाना,यहां कल क्या हो,किसने जाना!”

जब सभे आपन-आपन विचार दे सकता जिनगी के ले के, त हमहूँ कुछ कहे के चाहेब कबीर साहेब के गीत के परतोख देत-“ई जग खाली माया रे साधु, ई जग खाली माया, के बा आपन, के ह पराया, केहू  समझ ना पाया रे साधु, ई जग खाली माया।” बड़ी आस लगा के जिनगी के सजावे के उतजोग कइनीं। हमार जिनगी बहुत ही खुसहाल गुजरत रहे, जब आपन बेटी-तिस्ता उर्फ अनुभूति के संगे हम मंच पर प्रदर्शन करत रहीं। ऊ आपन जीउ-जान लगा के मंच पर ‘कुंवर सिंह’  के गाथा गावस आ हम उनकरा संगे-संगे गाईं। सब कुछ सुंदर रहे बाकिर अचानक- “कवन ठगवा नगरिया लुटल रे”- हमार सब कुछ लुटा गइल। हम सारा उतजोग कर के भी “तिस्ता” के बचा ना पवनीं, बेटी सुरधाम के जतरा पर निकल गइली। एह सांच से गुजरल एगो अनुभव रहल, जवन कहल ना जा सके काहे कि एकरा के लिखल हमरा खातिर असंभव बा।  तीस्ता चल गइली बाकिर उनकर बहिन सृष्टि उनका अभियान के आगे बढ़ा रहल बाड़ी लेकिन तीस्ता के जगह केहू थोड़े ले सकेला। उनकर हूक रह-रह के हिया में उठत रहेला।

हमनीं के भोजपुरी पारंपरिक गीत में मटकोर के एगो गीत के दोसर अर्थ में भी हमरा समझे के मौका मिलल- “कवना बने रहलु ए कोईलर, कवना बने जास/ केकरा दुअरिया हो कोईलर, उछहस जास!”

अइसन भी जिनगी में हो सकेला, ई पहिल बेरा बुझाइल। जवन जिनगी हमरा खातिर हॅंस-हॅंस के जीवन बितावे के अवसर देहलख, ऊ अब कुहुक-कुहुक के मूए खातिर छोड़ देलख। हमरा सोझा, हमरा देखत देखत, हमरा ना चहला के बादो, हमार दुनिया उजड़ गइल। एड़ीं में कुचुट लागित त एगो बात रहित, ई त तरहत्थीं में कुचुट गड़ गइल। मनोज भावुक जी के एगो भोजपुरी गजल के एह पंक्ति से हमार भाव आऊर स्पष्ट हो जाई- “बहुत नाच जिनगी नचावत रहल / हॅंसावत-खेलावत-रोआवत रहल।”

दुनिया में एगो सोच बा- जे आइल बा, ऊ लइका से सेआन होई, बूढ़ होई, तब मऊअत के राही बनीं, इहां त उल्टे हो गइल।”

‘’ अभी लाजे घूंघट ना उठवनीं कि झट से बिहान हो गइल।” मात्र साढ़े सत्रह साल में बेटी हाथ छोड़ा के चल गइली। हमार आपन सोंच बा-अगर जिनगी बा त एकर एगो मानक, एगो नियम होखे के चाहीं। बालपन, जवानी आ बुढ़ऊती – जवना के सभे मनबो करेला, तक के जतरा करे के अधिकार त होखहीं के चाहीं। अगर ईश्वर कवनो उद्देश्य पूर्त्ति खातिर भेजलहीं बाड़ें त कम से कम एतना त अवसर देवहीं के चाहीं उनका। सभे कही कि ई हमार मोह बोलता, हम मानतानीं बाकिर कुछुवो त खेले-खाये के मन हर जीव के होला।

एही बतकही में एगो रोचक बात आऊर उठता-हम बुढ़ऊती ले अगर जी भी लिहीं आ तबहूँ ले हम अपना उपस्थिति के होखल साबित ना कर पवनीं, कवनो पहचान ना दे सकनीं त हमार दाम ई समाज कइसे लगाई? समाज हमरा के कवना आंखि देखी? इहे नूं कही-फलनवा के बेटा भा फलनवां के पोता छछन-छछन के मू गइल, ओकरा पिलुआ पड़ गइल रहे-कादू कादू।

“मौत वही जो दुनिया देखे”- बाकिर कइसे देखी, एकरा खातिर त इतिहास रचे के पड़ी, आपन एगो पहचान बना के चले के पड़ी, तबहीं त देस-दुनिया के लोगो चिन्हीं। जिनगी के उद्देश्य त तय करे के पड़ी तबहीं से, जब से सोचे समझे के बूता आवे लागे।

हमरा हिसाब से जिनगी आ मऊअत एगो डरेंड़ ह। एगो चिचिरी पार दिहल जाला। जइसहीं केहू जन्म लेलख, ओकर चिचिरी पराइल। जहां से शुरू भइल, ऊ जिनगी ह आ जहां पर जा के ओराईल, ऊ मऊअत ह। जे जिअता, ओकरा मृत्यु तक के जतरा करहीं के बा। जीवन बा त मृत्यु होई। जीवन प्रारंभ ह आ मृत्यु अंत। अइसने डरेंड़ भा राह पर चल के सभे के आपन-आपन कर्तव्य करे के बा। ऊ कर्तव्य का होई, ई भी तय करे के जिम्मेवारी ओही आदमी के होई, जे आपन जिनगी जिअता। एगो इतिहास रचाव, उहो अइसन कि आदमी जाव त समाज के मुंह से आह निकलो। लोग रोवो भोंकार पार-पार के। कुछ लोग त अइसनो जाला कि अइसनका लोग के गइला पर समाज थपरी पिटेला-ठीक भइल, चल गइल। ई धरती के बोझ रहल ह सरवा। माने लोग गरिअइबो करेला। अइसन आदमी के चार गो कान्धा ना मिलेला। जीवन आ मृत्यु के बीच के एह अंतराल के मूल्यांकन कइल ही खांटी जिनगी जिअल कहल जा सकेला। जे अपना के भवगर बना लेहलख, ऊ भवसागर से पार उतर गइल, ऊ अमरत्व पा ली। कबीर दास जी कहले बाड़ें- कबीरा जब पैदा हुए, जग हॅंसे हम रोय / ऐसी करनीं कर चले, हम हॅंसे जग रोय”।

एही जगहा पर कबीरे दास जी के एगो आऊर पद इयाद पड़ता-“तोर हीरा हेरा गइल कचरे में।” एह जीवन के ऊ हीरा के रुप में देखले बाड़ें। अगर हीरा रुपी जीवन के चमक से रउआ जोत फइला सकनीं त राउर जीवन सार्थक बा।

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