आवरण कथा
डॉ. प्रेमशीला शुक्ल
विज्ञान के जबरदस्त हस्तक्षेप जन्म आ मृत्यु-दूनू में भइल बा। एसे जन्म मृत्यु के अवधारणा आ जीवन दर्शन पर त असर पड़ले बा सामाजिक संरचाना आ जीवन मूल्य पर भी बहुत असर पड़ल बा। जन्म नियंत्रण के तमाम कृत्रिम उपकरण, सिजेरियन डिलीवरी, सरोगेसी, टेस्ट ट्यूब बेबी, लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम जइसन विधि-प्रविधि के उदाहरण लेके एह बात के समझल जा सकेला।
जन्म आ मृत्यु के चाहे जेतना वैज्ञानिक आ दार्शनिक व्याख्या कइल जाए, ए दूनू से महत्वपूर्ण ए दूनू के बीच के समय ह, जवना के नाम जीवन ह, ऊ समय जवन जीव धरती पर बितावेला। भले ही कवनों अदृश्य शक्ति आ अदृश्य लोक शाश्वत होखे,सुंदरतम होखे, ओसे मिलले के आधार ई दृश्य मर्त्य लोक धरती ही बनेला, ईहे जीव के कर्म स्थली ह। अगर जीव मनुष्य योनि में बा तब त ओकर संस्कार, बुद्धि, विवेक, बल, विद्या सब ओकरे साथे होला। ऊ परम सौभाग्यशाली होला। एही से मनुष्य जीवन अनमोल ह, अलभ्य ह, सौभाग्य ह। एकरी महिमा के बखान बड़े बड़े लोग कइले बा।
जन्म आ मृत्यु का बारे में पूरब से पच्छिम तक बहुत विचार भइल बा। अद्वैत वेदान्त के आधार बना के सरल भाषा में एके समझल जाए। आभासवाद, अवक्षेपवाद आ अजातवाद- ए तीनों से अद्वैत वेदान्त के त्रिभुज बनेला। आभासवाद का अनुसार संसार मिथ्या ह। देहभाव में रहला से संसार, सत्य मालूम होला। अवक्षेपवाद क अनुसार जवन परमात्मा ह ऊहे जीव में रहे वाला आत्मा ह। जेतना आयु परमात्मा के बा ओतने आयु आत्मा के बा। अजातवाद का अनुसार ना केहू जनम लेला ना मरेला।
जीवन में मर्मांतक पीड़ा मिल सकेले, संघर्ष के झंझावात आ सकेला। ए सब का बावजूद जीवन सौभाग्य ह, जीवन अलभ्य ह। ए बात के ऊहे समझेला जे जीवन का रस के पान कइले होखे। सुख होखे चाहे दुख-ओमें से डूब के निकल गइल होखे, जीवन के मर्म समझ गइल होखे। अइसन आदमी खातिर मृत्यु जीवन के समापन ना ह। ओइसे उत्सव ह जइसे जन्म। ए स्थिति तक बिरले पँहुच पावेलें।
दरअसल जे जीए के जानी ऊहे मरे के जानी
जब हम कवनों आपन बात कहे बइठेनी, हमरा दिमाग में सबसे पहिले गरहड़ा के रेलवे कालोनी आवेले। आजुओ ऊहें के प्रसंग, ऊहें के दृश्य बेर बेर सामने आ रहल बा।
तs जहाँ हमनी के खेले के मैदान रहे, ऊहें क्वाटर में एगो बंगाली लईका अकेले रहत रहे- गोरा-चिट्टा, हट्टा-कट्ठा। ओकरी चाल में अइसन मस्ती रहे कि लागे जब ऊ रास्ता चलेला त दुसरा सब का हट जाएके चाहीं। जब सांझी के हमनी क मैदान में खेले पहुँचीं, ऊ ड्यूटी से आके आपन चाय-पानी बनावत ऊंच सुर में बंगला के गीत गावत रहे। दू गो गीत अक्सर सुनायी दे-खोल द्वार खोल, लाग्लो जे दोल आ “मरण रे तुंहुँ मम श्याम समान”। गीत के मतलब त समझ में ना आवे हं पहिलका गीत में उल्लास आ दुसरका गीत में पीड़ा के टेर साफ-साफ झलके। ओकर नाम रहे वीरेंद्र बनर्जी। सब लोग ओके बीरेन कहे। हमरी टोली के ऊ बीरेन दा रहे। गावत गावत बीरेन दा अक्सर बहरा निकरि आवें, जोर से बोलावें- “ओ दीदी मोनी, मिश्टी मिए जाव, चा खेये जाव” हमार टोली खेल छोड़ि के दउरल जाए। जेके जवन मिले-कप, गिलास, कटोरी चाय उझिल उझिल पी ले। गाना सुने-सुनावे। फिर खेल में लागि जाए।
बीरेन दा धीरे धीरे हमरी टोली के हिस्सा हो गइलें।
जाड़ा के दिन रहे। एक दिन सबेरे सबेरे ईया हमके जगावत कहली, “उठ उठ हऊ बंगाली लइकवा नाहीं हो गइल”। ईया दू-तीन बेर ईहे बात कहली। हमरी समझ में कुछ ना आइल बाकी उनका हड़बड़वले से हम का? का? कहत उठि बइठनीं। ईया रिसियात कहली ए बऊरही का कुछ समझ में ना आवेला। ऊ मरि गइल। ह्म एक बारगी बिस्तर से निकल के खड़ा हो गइनी। “के कहल ह?, हम पुछनी। ”
मारे हल्ला हो गइल बा। बाबू ऊँहें गइल बाने” ईया कहली।
हमहूँ जाईं?” पूछत हम बाहर निकल गइनी।
बीरेन दा बाहर चदरा ओढ़ा के सुतावल रहलन। केहू से कुछू पूछे के हिम्मत ना पड़त रहे। हम बीरेन दा के देखल चाहत रहनी। बाबू जी चादर हटा के देखा दिहलन आ हमसे कहलन, ”घरे जा”।
हम चुपचाप घरे आ गइनी।
हमारी आँख से धार बह चलल।
हम फूट फूट के रोए लगनी। बीरेन दा अब कब्बों ना मिलिहें, देखहउँ के ना, सुनहुँ के ना। एतना ताकतवर, एतना कोमल आदमी के मौत उठा ले गइल।
हे भगवान! केहू के मरल हम पहिली बेर देखनी।
भगवान हमरा नजर में अत्याचारी, निर्मम, अन्यायी ठहरलें आ मौत भयावह, केहू के कब्बो दबोच लेवे वाला क्रूर पंजा।
मौत से भय आ जीवन के क्षण भंगुरता ओही दिन हमरा मन में बइठि गइल। पहिलका हमके कमजोर बनवलस जबकी दुसरका जीवन खातिर सचेत।
अपना समाज में जनम के उत्सव के रूप में लिहल जाला। गर्भ धारण के समय से ही घर परिवार में खुशनुमा माहौल बन जाला। ई बात अलग बा कि ई सब ए आशा मे होला कि गर्भ में पले वाला जीव बेटा होई। आशा अगर पूरा भइल त ठीक नाहीं त उत्सव ठमकि जाला। तब्बो एतना त होइबे करेला कि अगर कवनों अनहोनी ना होला त घर में जीयत-जागत जीव सदेह आवेला एसे जनम खातिर स्वागत भाव सहज रूप से सबका भीतर रहेला। मौत में अइसन होला कि जीव त देह से निकसी गइल आ देह पड़ले रहि गइल। बल्कि अच्छा होइत कि जीव का निकसते देहियों बिला जाइत। बाकिर निर्मम नियति देहियाँ के माटी बना के छोड़ि देले, अपनन के बिलखावे खातिर, बिलखि बिलखि किरिया करम करे खातिर, अंतिम बिदायी देवे खातिर।
का जाने कब से आदमी ए स्वागत बिदाई का झमेला में पड़ल बा।
ओइसे विज्ञान के जबरदस्त हस्तक्षेप जन्म आ मृत्यु-दूनू में भइल बा। एसे जन्म मृत्यु के अवधारणा आ जीवन दर्शन पर त असर पड़ले बा सामाजिक संरचना आ जीवन मूल्य पर भी बहुत असर पड़ल बा। जन्म-मृत्यु के तमाम कृत्रिम उपकरण, सिजेरियन डिलीवरी, सरोगेसी, टेस्ट ट्यूब बेबी, लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम जइसन विधि-प्रविधि के उदाहरण ले के ए बात के समझल जा सकेला। एगो-दू गो छोट छोट उदाहरण लिहल जाए- जन्म नियंत्रण के कृत्रिम उपकरण से व्यभिचार में बढ़ोत्तरी भइल। एके यौन स्वतंत्रता कहि के ढाँप दीहल गइल। लेकिन एसे जवन सामाजिक संबंध पर असर पड़ल ओके ठीक कइले के कवनों उपाय ना रहल। सरोगेट मदर का मन में अगर बच्चा पर स्वाभाविक ममता जागे, ओकर दूध छलक जाए त का ऊ बच्चा के अपना पास ना रखला के दुख से प्रभावित ना होई? अइसन अनीवन कन्छा बाड़े जवना के असर समाज पर पड़ रहल बा। अगर चेतल ना जायी त एक दिन सुव्यवस्थित मानव समाज अराजक मानव समूह में बदल जायी। हमरा कहला के ई मतलब नइखे कि विज्ञान के तिरस्कार कइल जाय, नया के अंगीकार ना कइल जाय बाकी बदलत आदमी आ समाज का अनुरूप नैतिकता के नया पाठ त तइयार करहीं के पड़ी।
एह पर विचार कइल एहू से जरूरी बा कि जन्म आ मृत्यु के चाहे जेतना वैज्ञानिक आ दार्शनिक व्याख्या कइल जाए, ए दूनू से महत्वपूर्ण ए दूनू के बीच के समय ह, जवना के नाम जीवन ह, ऊ समय जवन जीव धरती पर बितावेला। भले ही कवनों अदृश्य शक्ति आ अदृश्य लोक शाश्वत होखे,सुंदरतम होखे, ओसे मिलले के आधार ई दृश्य मर्त्य लोक धरती ही बनेला, ईहे जीव के कर्म स्थली ह। अगर जीव मनुष्य योनि में बा तब त ओकर संस्कार, बुद्धि, विवेक, बल, विद्या सब ओकरे साथे होला। ऊ परम सौभाग्यशाली होला। एही से मनुष्य जीवन अनमोल ह, अलभ्य ह, सौभाग्य ह। एकरी महिमा के बखान बड़े बड़े लोग कइले बा।
कवि कुलगुरु रवींद्र नाथ ठाकुर के प्रसिद्ध गीत ह – “मरन रे तुहुँ मम श्याम समान”। गीत में कृष्ण के वियोग में दुखी राधा मृत्यु के कृष्ण का समान मानत कहताड़ी कि जइसे कृष्ण के वर्ण श्याम बा, केश श्याम बा, अधर आ करतल लाल बा ओइसे मृत्यु के भी बा। मृत्यु अपना गोद में ले के कृष्ण का समान राधा के सब ताप हर ली। गीत का अंत में पंक्ति बा “- ई राधा छिए छिए चंचल चित्त तोहारी, जीबनवल्लभ मरन अधिक सो अब् तुहुँ देख बिचारी”
कवि राधा के संबोधित करत कहताने कि राधा का फिर से बिचार करे के चाहीं। मृत्यु प्रीतम का समान ताप मोचक ना हो सकेले। भाव बा कि प्रेम सर्वोपरि बा। मान्य सत्य ह कि राधा कृष्ण के अनथक प्रतीक्षा में रत रहली। राधा के मृत्यु के वरण ना कइली, जीवन के वरण कइली।
जीवन में मर्मांतक पीड़ा मिल सकेले, संघर्ष के झंझावात आ सकेला। ए सब का बावजूद जीवन सौभाग्य ह, जीवन अलभ्य ह। ए बात के ऊहे समझेला जे जीवन का रस के पान कइले होखे। सुख होखे चाहे दुख-ओमें से डूब के निकल गइल होखे, जीवन के मर्म समझ गइल होखे। अइसन आदमी खातिर मृत्यु जीवन के समापन ना ह। ओइसे उत्सव ह जइसे जन्म। ए स्थिति तक बिरले पँहुच पावेलें।
हमार माई ओही में से एक रहली। माई शिक्षित आ सुसंस्कृत रहली। उन कर लालन-पालन शहरी उन्मुक्त परिवेश में भइल रहे। नाना उन कर बियाह पढल-लिखल, अच्छा नौकरी वाला लईका, संपन्न जमींदार परिवार में कइलें। परिस्थिति कुछ अइसन बनल कि माई के जीवन जादातार ग्रामीण परिवेश में बड़हन संयुक्त परिवार का साथे बीतल। उनका स्कूल में पढ़ावे के भी अवसर मिलल बाकी परिवार से अनुमति ना मिलल। कहे के मतलब ई कि अपना रुचि आ स्वभाव का उल्टा उनका रहे के पड़ल। बाकी कब्बो उनकर जीवन उत्साह कम ना भइल। ऊ जवार भर में स्त्री शिक्षा के अलख जगवली। ई समय देश के स्वतंत्रता मिलला का कुछ बरीस पहिले वाला रहे। माई स्त्री समाज में देश-दुनिया के चर्चा करें, सबके जागरूक बनावें। देश के स्वतंत्रता दिवस हमरा बड़का अंगना में कुछ स्त्री लोगन द्वारा भी मनावल गइल रहे।
जीवन में माई का सुख-दुख दूनू मिलल। हमरे सबसे छोट भाई “आनंद” का तीन साल का उमर में मेनेन्जाइटीस बीमारी हो गइल। ऊ बचि त गइलन बाकी उनकर हाथ-पैर काम कइल बंद क दिहलस। ना ऊ चल पावें, ना ठीक से बोल पावें, ना समझ पावें। बीमारी का बाद ऊ इक्कीस साल का उम्र तक जियलें। उनकर शरीर सेयान आदमी के शरीर हो गइल रहे। उनकर देखभाल बहुत कठिन काम रहे। माई पूरा मनोयोग से एकर निर्वाह कईली। ऊ कहे – इनकर अपमान भगवान के अपमान ह, ई हमार इम्तहान लेवे आइल बाड़े।
माई कहें, “जवन कर पूरा मन से कर, आधा मन के काम कवनों काम ना ह”।
आनंद के शरीर के शांत भइल माई खातिर शोक के असह्य वेग रहे। ओ घटना के बतावत माई कहें, “हम देखते रहनी, उनकर आँखि उलटि गइल, देखते देखत मुंह खुलल, कुछ बहुत हल्का भाप अइसन निकलल आ आँख बंद हो गइल। गोदिए में हमरा लाल के प्राण निकल गइल”।
माई प्राण देखले रहली। सबका खातिर ई बात अविश्वसनीय हो सकेला। हमरा खातिर माई की बात पर अविश्वास – असंभव।
एक दिन उनका सीना में दर्द महसूस भइल। उनके अस्पताल ले जाइल गइल। ऊ गावें जाए के इच्छा व्यक्त कइली। अइसने कइल गइल। रास्ता में जब हमनी का आँख में आँसू आवे त ऊ कहें, “रोअ लोगन मत। एक दिन जाहीं के बा, ई सब त माया के खेल ह, उत्तर कांड के पाठ कर लोगन”। घरे पहुंचला पर धार्मिक रीति-रिवाज का अनुसार सब व्यवस्था कइल गइल। माई ओइसे त शांत रहली लेकिन कभी कभी पीड़ा के एगो लहर आवे आ चलि जाए।। एक बेर ऊ उठि के बइठली आ कहली, “अब् कहाँ जाईं ए राम”। फिर लेट गइली। मिनट भर में सांस उलटल आ प्राण निकल गइल। जहाँ जाए के रहे, माई पहुँचि गइली, जइसे राम उनके बता देले होखें कि कहाँ जाए के बा। हम ओह समय उनका सिरहाने बइठल रहनी, राम नाम के जाप करत रहनी, हमके प्राण ना दिखाई दीहल। हमरा पास ऊ दृष्टि कहाँ?
गइला का पहिले माई कुछ-कुछ का अंतराल पर तीन गो सपना देखली। पहिला में ऊ एगो कोहांर देखली जवन चाक पर कुछ बनावत रहे। पुछला पर कोहांर बतवलस कि ऊ माई के अरदुआई बनावता। दुसरा में ऊ एगो रास्ता देखली, जवना पर ऊ गइल चाहताड़ी। तब तक केहू आ के कहल कि ई रास्ता उनका खातिर नइखे। उनका खातिर बढ़िया रास्ता बनता, ऊ तनि रुके। तीसरा में ऊ एगो दरबार देखली जहाँ कई लोग बइठल बा, ओही में से केहू एगो खाली सिंहासन देखा के कहता- आव, बइठ।
स्वप्न, मृत्यु-जइसन रहस्य लोक का बारे में हमरा कवनों प्रत्यक्ष ज्ञान नइखे बाकी प्रत्यक्ष ज्ञान क अलावा ज्ञान के दूसरों माध्यम बा।
माई की बात पर अविश्वास! असंभव।
बीरेन दा का गइला के बाद हमरा मन में मृत्यु के जवन भय समा गइल रहे, ऊ माई के गइल देखि के बहुत हद तक कम हो गइल।
जन्म आ मृत्यु का बारे में पूरब से पच्छिम तक बहुत विचार भइल बा। अद्वैत वेदान्त के आधार बना के सरल भाषा में एके समझल जाए। आभासवाद, अवक्षेपवाद आ अजातवाद- ए तीनों से अद्वैत वेदान्त के त्रिभुज बनेला। आभासवाद का अनुसार संसार मिथ्या ह। देहभाव में रहला से संसार, सत्य मालूम होला। अवक्षेपवाद क अनुसार जवन परमात्मा ह ऊहे जीव में रहे वाला आत्मा ह। जेतना आयु परमात्मा के बा ओतने आयु आत्मा के बा। अजातवाद का अनुसार ना केहू जनम लेला ना मरेला। अनुकूलता-प्रतिकूलता का आधार पर घटना के ग्रहण क के आदमी कहेला कि जनम हो गइल आ मृत्यु हो गइल। ए भावभूमि में पहुंचला पर समझ में आवेला कि ‘कर्म‘ करेला ना, करत प्रतीत होला। इहाँ आ के कर्मफल खंडित हो जाला। फिर कइसन तीरथ, कइसन व्रत आ कइसन उपासना?
वेदान्त भारत का जनजीवन में कवनों ना कवनों रूप – भले हि टुकड़ा दुकड़ा रूप – में विद्यमान बा। अनपढ़ गंवार कहाए वाला आदमी भी ई जानेला कि आदमी, जवना मे लागल-बाझल बा, माया के खेल ह। एक दिन सब छूटे के बा, इहाँ तक कि देह भी। माटी के देह, माटी में मिल जाई। पंचतत्व, पंचतत्व में विलीन हो जाई। गौर कइल जाए इहाँ खतम भइला के अवधारणा नइखे। कुछऊ खतम कहाँ होला? जहाँ के रहेला ऊहें चल जाला। बीरेन दा के बारे में ईया कहली, “नाहीं हो गइले”। ऊ खतम नाहीं भाइलें, ‘हं’ से ‘न’ हो गइले, ‘अस्ति’ से ‘नास्ति’ हो गइले। जवन व्यक्त बा ऊ व्यक्ति ह। जब ऊ अव्यक्त हो जाला तब अनुपस्थिन हो जाला। अनुपस्थित के उपास्थिन कइल जा सकेला। जइसे हम बीरेन दा आ माई के स्मरण से उपस्थित कइनी। जेकरा में क्षमता होई ऊ साक्षात उपस्थिति के अनुभव भी कर सकेला। बहुत लोग कइले बा। ई त आपन आपन क्षमता ह। भारतीय दृष्टि से काल के गति वर्तुल ह। इहाँ ना कुछ अतीत ह ना वर्तमान ना भविष्य, ना केहू के जनम होला ना मृत्यु। कालचक्र में सब गतिमान बा। काल की ए गति के हमार प्रणाम।