मात दिहल मिरतू के

November 4, 2022
आवरण कथा
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आवरण कथा

चंद्रेश्वर

मिरतू के एगो विकल्प स्मृतियो ह, हो सकेला। केहू मरियो के ज़िंदा रह सकेला, अपना प्रियजन के स्मृति में। ई स्मृति एगो अइसन गहिरारे तहखाना आ कि भंडारखाना ह जवना में सबकिछु समा जाला। ई ओह में समा के दिन प दिन अवरू निखरत आ चमकत जाला। एकर रंग गाढ़ चटख होत जाला।

ई जिनगी जनमते संन्यास से आ बैराग से ना चले। ई चलेले राग-अनुराग से। ई साँच बा कि मिरतू अटल बा; साँच बा कि केहू आपन काया के संगे अमर नइखे भइल। बाकी एही काया भा देहिया से एक से बढ़ि के एक लीला भइल बा। कारज भइल बा। एही के आधार प लोग लोक में अमर बा। लोक के स्मृति में नायक आ महानायक बनि के बा। ओकर नाँव गवात बा। 

हमरा दिमाग़ में हरमेस किछु  सवाल रहि-रहि के  बिजुरी अस कौंध जाले स कि आख़िर एह लोक में मिरतू के मात के दे सकेला ? मिरतू के विकल्प का हो सकेला ? के पार पवले बा एकरा से ? कबीर के काहे कहे के परल कि ‘हम ना मरब, मरिहें संसारा। हमको मिला जियावनहारा।’  काहे संसार भर के लोग मरि-बिला जाई आ कबीर जियते रहिहें ! ई ‘जियावनहारा’ के ह, का ह ?  कइसे ई केहू के जिया के राखी ? हमरा त बुझाला कि ईहे सबद ह, ई ताक़त सबदे में बा भा हो सकेला। ओह से रचल रचना में ई ताक़त भा जादू बा जवन केहू के एह नस्वर संसार में बचा के राखि सकेला।  कबीर के गुमान त एह सबदवे के दम प पएदा भइल होई नू !  कथाकार-चिंतक  स्मृतिशेष रमेश उपाध्याय एही ‘जियावनहारा’ के ‘कालजयी साहित्य’ कहले बाड़न।  ई काल प जीत हासिल करेला। ई कराल आ क्रूर काल के पटकनिया दे देला। आपन कला से ओकरा के चारो खाने चीत्त करे के हाल जानेला।

जे होखे, एगो दोसर बात ई बा कि मिरतू के एगो विकल्प स्मृतियो ह, हो सकेला। केहू मरियो के ज़िंदा रह सकेला, अपना प्रियजन के स्मृति में। अगर बाबा-आजी के मिरतू होई त ऊ लोग पोता-पोती  के स्मृति में ज़िंदा रह सकेला ; एगो बाप आपन बेटा-बेटी  के स्मृति में ज़िंदा रह सकेला। ई स्मृति एगो अइसन गहिरारे तहखाना आ कि भंडारखाना ह जेवना में सबकिछु समा जाला।  ई ओह में समा के दिन प दिन अवरू निखरत आ चमकत जाला।  एकर रंग गाढ़ चटख होत जाला।

एहतरी त मिरतू प बहुते चिंतन आ मंथन भइल बा। एकरा के ध्रुव सत्य अने निस्चित मानल गइल बा। मरला के बाद काँच बाँस के चाँचर प जब लहास लेके गंगा जी के किनारे भा कवनो नदी के किनारे जाइल जाला दाह-संस्कार खातिर त पीछे से पंच लोग बोलत जाला कि राम नाम सत्त बा, मरे से मुगत बा !’ अने सत्त त एके बा आ ऊ ह राम के नाम। मिरतू से आदमी के मुकुती मिल जाला। कहे के अरथ ई बा कि मिरतू से आदमी के अंत ना होखे बलुक एगो ठहराव से, जड़त्व से, सड़ांध से बाहर निकले के मोका मिलेला अने नया गति मिल जाला।  एही से ईहो कहल जाला कि मिरतू आत्मा के अनंत यात्रा के अंत ना बलुक आरंभ ह। जीवन त कबो रूकबे ना करे। एही से वेद में कहल गइल बा —“चरैवेति……चरैवेति !”

केहू के मिरतू ओकर एह दुनिया में देहरूप में अनुपस्थिति हो सकेला। काया आ देह के भले अनुपस्थिति हो जाए नाँव त बाँचल रहेला ……जस आ खेयाती  ना मिटे। एही से लोक में कहल जाला कि किछु अइसन करतब आ लीला देखाईं कि राउर नाँव बाँचल रहो। आजु ले राम आ किसुन के, बुद्ध आ कबीर के,सूर आ तुलसी के नाँव लिहल जा रहल बा। आख़िर काहे ?

हमरा साफ़ बुझाला कि अमर होखे के एकही राह बा आ ऊ राह सिरजन के बा, रचना के बा, कर्म के बा। ईहे सब  सिरजनवा जियावनहार बनि जाला।

पिछिला साल-दू साल में कोरोना अस महामारी के फइलला के बाद आपन बीच के एतना लोग असमय चलि बसल कि ढेर लोग के मन में मिरतू के डर समा गइल बा। मिरतू के करिया छाया सबके आसपास मँड़राए लागल बा। अगर आपन केहू क़रीबी गुज़र जाला त मन में एगो अजगुत उदासी आ ख़ालीपन फइल जाला। लागेला कि भीतर के एगो ‘स्पेस’  के चमक मिट गइल। ओहिजा अन्हार आपन डेरा बसा लेलस।

हर आदमी हर आदमी में जियेला आ रचल-बसल रहेला संवेदना के मार्फ़त। ई संवेदनवे  जिनगी ह रे मरदे !

पहिले हमरा समुझ में ना आवत रहे कि शंकराचार्य के कथन के असल गूढ़ रहस्य का बा –“ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या!”

ऊ एह जगत के झूठफूर काहे कहलन। ई त देखे में साँच बुझाला बाकी टिकाऊ ना होखे। सत्य त ब्रह्म हो सकेला जे हरमेस एके लेखा बनल रहेला, बदलत ना रहे। बदलत त रहेला मिरतूलोक के बनावट आ रूपरेख जवन आभासी होला अने खलिसा छाया मात्र !

ई बुझाला ……ख़ाली फील होला कि साँच ह बाकी होखे ना; जइसे सोशल मीडिया के दुनिया में राउर सांच के फील करावत कवनो फोटो होखेला। ऊ लागी साँच बाकी साँच ना ह, ओकर आभास ह।

सभे जानेला कि एक दिन मरे के बा तबो केहू मरल ना चाहे। सभे जानेला कि ई संसार नस्वर ह तबो लोग अपना के जनमजुगी आ अजर-अमर मानेला। ईहे भरमवा से संसार चलेला आ चललो आवत बा।

कबीर कहले बाड़न कि-

रहना नहिं देस बिराना है ।

ई संसार कागद के पुड़िया बूँद पड़े घुल जाना है।

ठीक बा कि देस ई बिराना बा। ई संसार कागद के पुड़िया ह बूँद परी त गलि-पचि जाई; बाकिर ईहे सोच लेके संसार में ना जिएला आदमी। जे एह दुनिया में आइल बा ओकरा अपना पुरुषार्थ देखावहीं के परल बा। जे ना देखाई ओकर ई दुनिया कबो लोहा ना मानी। ई जिनगी जनमते संन्यास से आ बैराग से ना चले। ई चलेले राग-अनुराग से। ई साँच बा कि मिरतू अटल बा; साँच बा कि केहू आपन काया के संगे अमर नइखे भइल। बाकी एही काया भा देहिया से एक से बढ़ि के एक लीला भइल बा। कारज भइल बा। एही के आधार प लोग लोक में अमर बा। लोक के स्मृति में नायक आ महानायक बनि के बा। ओकर नाँव गवात बा।

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