हम न मरैं मरिहैं संसारा

November 4, 2022
आवरण कथा
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आवरण कथा

अनिरुद्ध त्रिपाठी अशेष

अपने चैतन्यरूप वास्तविक स्वरूप के उपलब्ध होके आदि शंकराचार्यो एही परम सत्य के उद्घोष कइले रहें। कहले रहें-“हम न मन हईं, न बुद्धि हईं, न अहंकार हईं, न चित्त हईं, न कान हईं, न जीभ हईं, न नाक हईं, न ऑंख हईं, न आकाश हईं, न पृथ्वी हईं, न अग्नि हईं, न वायु हईं। हम त चिदानन्दरूप शिव हईं, शिव हईं।”

 

‘श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण’ में वर्णित महिषासुर के कथा वास्तव में ‘दैवीचेतना’ के ‘दानवीचेतना’ में पतन हो गइला के आवरण कथा हवे। आजु सगरो संसार देह के सत्य मानिके जीयेवाले ये महिषासुरन के कारने जुद्ध के सर्वनाशी आग में झॅंउसा रहल बा। इनहने के वजह से आजु जंगल-झाड़, धरती, अकास, हवा, पानी, सबके सत्यानाश हो रहल बा आ सगरो सृष्टि बहुते तेज चाल से विनाश के ओर बढ़ति जा रहलि बा।

मृत्यु के अर्थ नास ना हवे। इहाँ कवनो चीज के नास ना होखे, खालीभर ओकर रूप बदल जाला, आकार बदल जाला। जगत के हर चीज एगो विशेष रूप भा विशेष आकार में जन्म लेले। माने ई कि इहाँ जनमेवाली हर चीज के एगो आपन आकार बा, आपन रूप बा, आपन गति बा, आ ओह गति के आपन पड़ाव बा। देखल जाउ त सगरो जगत रूपे त हवे, तब्बे त ऊ लउकत बा, दिखाई देत बा। आ, तब्बे त ओके ‘दृश्यमान जगत’ कहिके बोलावल-बतियावल जाला।

रामकृष्ण कहलें-“शारदा! तू रोवत बाड़ू! बाकिर काहें?” शारदा जी कहली-“हम बेवा हो रहल बानीं, आ तू पूछत हवऽ कि हम काहें रोवत बानीं!” रामकृष्ण कहलें-“जदि तू हमार पत्नी हऊ, त तुहॅंके बेवा होखेके उपाये नइखे। तू सुहागिन बाड़ू, सुहागिने रहबू। काहेंकि हम कबो मू नइखीं सकत। हम त बस कपड़ा बदलत बानीं। आ, जदि तू शरीर के पत्नी हऊ, त रोवऽ, हम मना ना करब।” रामकृष्ण के प्रज्ञा-शब्दन के ज्वाला में शारदा के सगरो अज्ञान जरिके राख हो गइल। शारदा जी शायद भारत के इकलौता अइसन मेहरारू रहली ह जे पति के मूअला का बाद चूरी ना फोरली, सेनुर ना पोंछली, बेवा के कपड़ा ना पहिरली, जिनिगी भर सुहागिन के वेश में रहली।

आत्मज्ञानी मनुष्य मय जड़-चेतन सभके खातिर सब समय समान रूप से प्रेम, करुना आ मंगल के दिव्य अहोभाव में रहेला, केहू खातिर ईर्ष्या-द्वेष, घृणा भा हिंसा आदि ना रखेला। एही अर्थ में कृष्ण कहत बानें कि जे पुरुष सब जगह समभाव से स्थित ईश्वर के समभाव देखत-‘समम् पश्यन्’ यानी कि अपने से अभिन्न देखत खुद के द्वारा खुद के हनन ना करेला, ऊ परम गति के प्राप्त होला। मतलब ई कि जे ईश्वर आ खुद में भेद-बुद्धि ना रखेला, बलुक अपनिये के सब जगह समानरूप से स्थित देखेला, ऊ खुद के द्वारा खुद के हत्या कइसे क सकेला!

भारतीय चिन्तन-साहित्य में देह हरमेसा से परिधि पर, आ आत्मा केन्द्र में रहलि बा। वेद-उपनिषद् आदि वैदिक आ पौराणिक संस्कृत-साहित्य से लेके तुलसी, कबीर, नामदेव, नानक, दादू, रैदास, धर्मदास, सींगा, जंभदास, सुन्दरदास, मलूकदास, धन्ना, दयाबाई, सहजोबाई, रज्जब, हरिदास निरंजनी आदि जन-भाषा के तमाम संत कवियनो के काव्य-साहित्य एकरा उपस्थिति से बाँचल नइखन। अध्यात्म-केन्द्रित एह देश के प्रज्ञा आदिकाल से आत्मा के नित्य आ देह के अनित्य बतावति आ रहलि बा। ओकरानुसार देहे मूएले, आत्मा ना, आत्मा त जन्म-मृत्यु से परे अज, अजर, अमर, शुद्धबुद्ध चैतन्य आ सच्चिदानन्द स्वरूप हवे। साँच ई बा जे आत्मा ईश्वर के पर्याय हवे, यानी कि आत्मे ब्रह्म हवे। आत्मा आ ब्रह्म दू ना हवे, अ-दू हवे, अभिन्न हवे। आत्मा के यथार्थ रूप में ठीक-ठीक जानल, ठीक-ठीक कहल-सुनल भा ठीक-ठीक समुझल-समुझावल आसान नइखे। आत्मा एगो अजगुत हवे, एगो रहस्य हवे। तब्बे त कृष्ण कहत बानें कि केहू एगो महापुरुष एह आत्मा के आश्चर्य के नाईं देखेला, आ ओही तरे केहू दूसर महापुरुष आश्चर्य के नाईं एकर वर्णन करेला, आ केहू दूसर अधिकारी पुरुष आश्चर्य के नाईं एके सुनेला, आ केहू-केहू त सुनियो के एके ना जान पावेला। जइसे-

 

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-

माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य:।

आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति

श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।

श्रीमद्भगवद्गीता-2/29

आत्मा एगो अजगुत आ रहस्य एहूलिए बा कि, जदि केहू एके जानियो जाउ, तब्बो ओकरे खातिर ई अनजाने रहि जाले, ज्ञात हो गइला का बादो अज्ञाते रहि जाले। शायद एहीलिए जे-जे लोग एके जनले बाड़न, ऊ सभे जना अपने रचनन में एके ‘अज्ञेय’ कहिके गवले बाड़न। एही अर्थ में ‘केनोपनिषद्’ के ऋषि कहत बाड़न- “ब्रह्म जेके ज्ञात नइखे, ओहीके ज्ञात बा। आ, जेके ज्ञात बा, ऊ ओके नइखे जानत। काहेंकि, ऊ जानेवालन क बिना जानल हवे, अउर ना जानेवालन क जानल हवे।” यथा-

 

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद स:।

अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम्।।

कनोपनिषद्-2/3

 

आ, एहीलिए आत्मा के जान लिहला का बादो ऋषि जान लिहला के दावा नइखें करत, बलुक बहुते नम्रता से कहत बाड़न- “हम ना त ई मानत बानीं कि हम ब्रह्म के ठीक-ठीक जान गइल बानीं, आ ना त

इहे समुझत बानीं कि ओके नइखीं जानत।” यथा-

 

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च।

-केनोपनिषद्-2/2

 

तुलसी एके ‘अकथ कहानी’ कहिके सम्बोधित कइले बानें, यानी अइसन कहानी, जवन समझ में त आवेले, बाकिर कहे में ना आ पावेले। यथा-

 

सुनहु तात यह अकथ कहानी।

समुझत बनइ न जाइ बखानी।।-7/116,ख-1

 

एह प्रसंग में कबीरो तुलसिए के भाषा बोलत बाड़न, अचिको भिन्न नइखें बोलत। यथा-

कहै कबीर सुनो हे संतो, ई सभ अकथ कहानी।

 

यम अउर नचिकेता के बीच कहल-सुनल गइल ‘कठोपनिषद्’ एही आत्मा आ जन्म-मृत्यु के अकथ कहानी हवे। एह अकथ कहानी के कहले से पहिले उपनिषद् के ऋषि ‘ॐ’ यानी कि सच्चिदानन्दघन परमात्मा के नाँव लिहल जरूरी समुझत बाड़न ताकी ओकरे कृपा से एह अकथ कहानी के कहल सम्भव हो सके। यथा-

ॐ उशन् ह वै वाजश्रवस: सर्ववेदसं ददौ।

तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।।१।।

कठोपनिषद्, प्रथम वल्ली

 

एह अकथ कहानी कहेके शुरूआत हम अपना छात्र-जीवन के एगो अइसन संस्मरण से कइल चाहब, जवन प्रस्तुत विषय के समुझे-बुझे में बहुते सहायक साबित होई। बात सन् 1985-86 के हवे। ओह घरी हम बी.एड. के पढ़ाई करत रहीं। फादर हिलेरी लोबो ‘एजुकेशनल फिलासफी’ के घंटी लेत रहलें हां। उनके द्वारा शिक्षा में ‘प्रकृतिवाद’ पर व्याख्यान देत आजु हफ्तन बीत चलल रहे, बाकिर पाठ खत्मे ना होत रहे। एकर कारन रहे। कारन ई रहे कि फादर लोबो शिक्षा में भारत के ‘आदर्शवाद’ के घोर विरोधी आ पश्चिम के ‘प्रकृतिवाद’ के कट्टर समर्थक रहलें हां। हिन्दू छात्र ‘प्रकृति’ के सत्य मानेके कतई तइयार ना रहलेंहा सन। ऊ सभ आत्मा-परमात्मा आ जन्म-मृत्यु से सम्बन्धित अपने मान्यता पर अड़ियाके ठाढ़ रहलेहा सन। बाकिर, फादर लोबो खातिर जन्म-मृत्यु आ आत्मा-परमात्मा से जुड़ल भारतीय दर्शन के बात बहुते अजगुत, रहस्य से भरल, अतार्किक आ अव्यवहारिक रहे। हफ्तन बीत गइला का बादो एह लमहर आ अनओराय सम्वाद में केहुओ अपना मत से पीछे हटे के तइयार ना रहे। आजिज होके फादर लोबो ओह दिन चुनौती भरल लहजा में कहले रहें-

“देखऽ लो, हम बेर-बेर इहे कहब कि ‘प्रकृति’ सत्य हवे। उहे सगरो सृष्टि के रचयिता हवे। सभ कुछ ओकरे से उपजेला आ ओकरे में बिला जाला। आ, सबसे बड़ बात ई कि ‘प्रकृति’ इन्द्रियाधीन बिया, इन्द्रियातीत ना। एहलिए ओकरे सत्यता के सिद्ध करे खातिर कवनो प्रमाण के जरूरत नइखे। आत्मा-परमात्मा के बात कपोल कल्पना हवे, मनगढंत भवें, मिथ्या हवे। आखिर जे इन्द्रियातीत बा, यानी कि जेके ऑंख से देखल ना जा सके, हाथ से छूवल ना जा सके, नाक से सूँघल ना जा सके, कान से सुनल ना जा सके, जेकर जीभ से सवाद ना लिहल जा सके, ओके सत्य कइसे मानल जा सकेला! आ, जदि केहू मानत बा त साबित करिके देखावे, कुतर्क जनि करे।”

फिरु का, साबित करेके चुनौती सुनिके सगरो हॉल में सन्नाटा छा गइल रहे। हम शुरुवे से एह सम्वाद के हिस्सा ना रहलीं हाँ, तटस्थ श्रोता रहलीं हाँ। बाकिर, हिन्दू छात्रन के बहुते आग्रह आ दबाव पर हम ठाढ़ हो गइल रहीं आ विनम्रतापूर्वक कहले रहीं-

“फादर! हम साबित करिके देखाइब। बाकिर, एकरे खातिर हमके राउर सहयोग, आ कवनो कसूर हो जा त क्षमा, दूनों चाहीं।”

फादर से जबान पाके हम एगो नजर अपने चारों ओर डरले रहीं। संयोग से ओह दिन व्यख्यान-मंच के सीलिंग-फैन खराब हो गइल रहे। एहलिए फादर लोबो खातिर मंच के बगल में स्टैंड-फैन लगा दिहल गइल रहे। हम फैन के लगे पहुँच गइलीं आ स्वीचबोर्ड के साँकिट से प्लग निकाल दिहलीं। फैन कुछ सेकेंड चलल, फिर बंद हो गइल। फादर कुछ पूछें कि हम झट से उनकर कलाई पकड़िके स्विचबोर्ड के लगे आ गइलीं, आ मिसिरी नियन मीठ आवाज में कहलीं-

“फादर! तनीं साँकिट के छेद में आपन अँगुरी घुसाईं त!”

फादर लोबो ब्लडप्रेशर के मरीज रहलें हॅं। अतना सुनते उनके माथे प पसीना छलछला गइल आ हाथ-गोड़ काँपे लागल। हालांकि साँकिट के छोट छेद में अँगुरी घुसल एकदम्मे सम्भव ना रहे, बाकिर भय के मारे उनकर सुधि-बुधि हेरा गइल रहे। हाथ छोड़ावे खातिर छटपटात ऊ चिल्लाके कहले रहें-

“छोड़ऽ छोड़ऽ! हाथ छोड़ऽ ! ई का करत बाड़ऽ तू?”

उनके चिल्लइला-छपटइला का बादो हम उनकर हाथ ना छोड़लीं। आ, ओही मीठ आवाज में कहलीं-

“ये स्वीचबोर्डवे में भारतीय आदर्शवाद के ऊ इन्द्रियातीत सत्य लुकाइल बा जेके देखल, छूवल, सूँघल, सुनल भा जेकर सवाद लिहल सम्भव नइखे। रउवा साँकिट में अँगुरी घुसाईं, घुसवते रउरा देह के हर इन्द्रिय ओकर सवाद चीखि लीहें सन। बाकिर, रउवा आपन अनभो सुनावे लायक रहब कि ना, नइखे कहल जा सकत।”

फादर लोबो के दशा अइसन हो गइल रहे, जइसे उनका दिल के दौरा पड़ि गइल होखे। देखिके हमहूँ डेरा गइल रहीं। ब्लडप्रेशर के मरीज फादर जदि साँचो के हार्ट अटैक के शिकार हो गइलें त बड़ा अनर्थ हो जाई। जन्म के रहस्य खुले ना खुले, मूअल त लोग ऑंखके सोझहीं देख ली। हम फादर के हाथ छोड़ दिहलीं आ बहुते आदर से उनके कुर्सी प बइठाके कहलीं-

“फादर! हमरा वजह से रउरा जवन कष्ट भइल, ओकरा खातिर हम माफी माँगत बानीं। हमार उद्देश्य रउरा के दु:ख पहुँचावल ना रहे, बलुक ई समुझावल रहे कि ये हॉल में जवन बल्ब आ ट्यूबलाइट जरत लउकत बानें सन, भा पंखा चलत दिखाई देत बानें सन, ऊ सजे प्रकृति हवे, सत्य ना। सत्य त ऊ अदृश्य, अरूप आ इन्द्रियातीत विद्युत-ऊर्जा हवे, जवने के वजह से ई सब बल्ब आ ट्यूबलाइट प्रकाशित बानें सन, आ पंखन में गति मौजूद बा। ओ ऊर्जा से अलग होते सगरो बल्ब आ ट्यूबलाइट ओही छन बुता जालें सन, आ पंखन के गति थथमि जाले, माने कि सब बेपरान के हो जालें सन, मू जालें सन। अइसहीं जवन सर्वव्यापी दिव्य ऊर्जा जड़-चेतन समेत अखिल सृष्टि के धारण कइले बा, सबके जीवन देति बा, उहे सबके आत्मा हवे, आ उहे परमात्मो हवे। ओकरे से सगरो सृष्टिरूप प्रकृति जन्म लिहले बा, अस्तित्व में बा, सजीवता में बा। उहे सबके आधार-शक्ति हवे। ओकरे से बिलग हो गइल मृत्यु हवे। एहलिए ऊ अदृश्य, अरूप, चैतन्य आ इन्द्रियातीत ऊर्जे सत्य हवे, जड़ प्रकृति ना।”

एह संस्मरण से हमार अभिप्राय ई स्पष्ट कइल बा कि बल्ब, ट्यूबलाइट आ पंखा आदि के तरे आदमी के देहियो प्रकृतिये हवे। एकरो रचना प्रकृतिये के पाँचो तत्वन से भइल बा। पृथ्वी, जल, वायु, आग अउर आकाश, एह पाँच तत्वन के अलावा मन, बुद्धि आ अहंकार, इहो तीनों प्रकृतिये हवें सन। एही अर्थ में कृष्ण प्रकृति के अष्टधा कहिके सम्बोधित कइले बानें। यथा-

 

भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।

अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।

श्रीमद्भगवद्गीता-7/4

 

प्रकृति स्वभावे से जड़ हवे, चेतन ना। बाकिर, ऊ चैतन्यस्वरूप आत्मा के कारण चेतन प्रतीत होति बिया, सजीव बुझाति बिया। ई चैतन्यस्वरूप आत्मे मनुष्य के वास्तविक स्वरूप हवे। तब्बे त महाराज जनक के समुझावत अष्टावक्र कहले रहें- “हे जनक! तू न धरती हवऽ, न आग हवऽ, न पानी हवऽ, न बयार हवऽ, न अकास हवऽ। एहलिए तू मुक्ति खातिर अपने आपके ये सबके साक्षी जानऽ, चैतन्यस्वरूप जानऽ।” यथा-

 

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्।

एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये।।

-अष्टावक्रगीता-3

 

अपने चैतन्यरूप वास्तविक स्वरूप के उपलब्ध होके आदि शंकराचार्यो एही परम सत्य के उद्घोष कइले रहें। कहले रहें-“हम न मन हईं, न बुद्धि हईं, न अहंकार हईं, न चित्त हईं, न कान हईं, न जीभ हईं, न नाक हईं, न ऑंख हईं, न आकाश हईं, न पृथ्वी हईं, न अग्नि हईं, न वायु हईं। हम त चिदानन्दरूप शिव हईं, शिव हईं।” यथा-

 

मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं

न च श्रोत्रजिह्वे न च ध्राणनेत्रे।

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायु:

चिदानन्दरूप: शिवोऽहं शिवोऽहं।।

-निर्वाणषट्कम्-1

चिदानन्दरूप शिवे हर मनुष्य के असली रूप हवे। हर मनुष्य मूल रूप में शिव हवे, पशुपति हवे, ईश्वर हवे। ऊ पञ्चमहाभूत-निर्मित मरणधर्मी देह ना हवे, मन, बुद्धि, अहंकार ना हवे, यानी कि क्षुद्र चित्तवृत्ति ना हवे, परमात्मा हवे। बाकिर, ओकर दुर्भाग्य ई बा कि ऊ अपने एह पशुपतिस्वरूप के भुलाके पशु के तरे जी रहल बा। पशु के तरे एह अर्थ में कि ऊ अपने आपके देह मानिके जी रहल बा, मन-बुद्धि-अहंकार आ मिथ्या चित्तवृत्ति मानिके जी रहल बा। ओके ग्याने नइखे कि ऊ नाशवान देह भा मिथ्या चित्तवृत्ति ना हवे, शुद्ध-बुद्ध-चैतन्य हवे, परमात्मा हवे, पशुपति हवे। एह अग्याने के कारन ऊ अपने त दुःख, पीड़ा, चिन्ता, तनाव अउर अशांति में पड़ले बा, दूसरो के तरे-तरे के ताप, संताप, शोक, कष्ट आ अशांति के आग में झोंक देले बा आ झोंकते जा रहल बा। अग्यान के अन्हार में जियले त पशु के तरे जीयल हवे। अग्यान आदमी के पशुवे ना, पशुवनो में ‘राछसपशु’ बना देला, यानी कि भॅंइसा त बनाइये देला, भॅंइसनो में ‘भॅंइसासुर’ बना देला, यानी कि ‘असुरभॅंइसा’ बना देला,’राछसभॅंइसा’ बना देला। ‘श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण’ में वर्णित महिषासुर के कथा वास्तव में ‘दैवीचेतना’ के ‘दानवीचेतना’ में पतन हो गइला के आवरण कथा हवे। आजु सगरो संसार देह के सत्य मानिके जीयेवाले ये महिषासुरन के कारने जुद्ध के सर्वनाशी आग में झॅंउसा रहल बा। इनहने के वजह से आजु जंगल-झाड़, धरती, अकास, हवा, पानी, सबके सत्यानाश हो रहल बा आ सगरो सृष्टि बहुते तेज चाल से विनाश के ओर बढ़ति जा रहलि बा।

भारतीय ऋषि-प्रज्ञा के अनुसार अग्याने बन्धन आ जन्म-मृत्यु से जुड़ल सब तरे के दुःख-पीड़ा के अकेले कारण हवे, आ ग्याने एह सब तरे के दुःख-पीड़ा आ बन्धन से मुक्ति हवे। ग्यानी मनुष्य खातिर आत्मा परम सत्य हवे। ग्यानी जानेला कि ऊ छनभंगुर देह आ चित्तवृत्ति से पैदा अहंकार के विकार ना हवे, ऊ त निर्विकार, अजर, अमर, अद्वैत, अखण्ड, विराट आ सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा हवे। तब्बे त शंकराचार्य कहले बानें- “हम शरीर से अद्भुत हईं। एलिए हमरे में जन्म, बुढ़ापा, क्षय आ मृत्यु आदि विकार नइखें सन। हम बिना इन्द्रियन के हईं। एलिए शब्दादि विषयन से हमार कवनो सम्बन्ध नइखे।।32।। चूंकि हम मन ना हईं, एहलिए हमरे में दुःख, राग, द्वेष आ भयो आदि दोष नइखें सन।।33।। हम त उहे परमब्रह्म हईं जवन नित्य, शुद्ध, मुक्त, एक, अखण्ड, आनन्द, अद्वय आ सत्य-ज्ञान-आनन्दस्वरूप बा।।36।। यथा-

 

देहान्यत्वान्न मे जन्मजराकार्श्यलयादय:।

शब्दादिविषयै: संगो निरीन्द्रियतया न च।।32।।

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अमनस्तवान्न मे दुःखरागद्वेष भयादय:।।33।।

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नित्य शुद्धविमुक्तैकमखण्डानन्दमद्वयम्।

सत्यं ज्ञानमनन्तं यत्परं ब्रह्माहमेव तत्।।36।।

आत्मबोध

बाकिर, आत्मज्ञान से रहित अग्यानी मनुष्य खातिर देहे सब कुछ हवे। ऊ देहे के सत्य मानिके जीयेला आ देह के मू गइला प छाती पीटि-पीटिके रोवेला। ऊ जनबे ना करे कि देह अनित्य हवे। जन्म, बुढ़ापा आ मृत्यु देह के स्वाभव हवे, गुण-धर्म हवे। इहे देह के आखिरी सत्य बा। विषाद-ग्रस्त अर्जुन के समुझावत देह के एही सच्चाई के ओर इशारा करत कृष्ण कहत बानें- “जे जनम लिहले बा, ओकर मउत निश्चित बा, आ जे मू गइल बा, ओकर जनम निश्चित बा। एहलिए ये अपरिहार्य विषय के लेके तू शोक करे योग्य नइखऽ।” यथा-

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तसमाद्परिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।

श्रीमद्भगवद्गीता-2/27

एह प्रसंग में ‘श्रीरामचरितमानस’ के एगो मधुर कथा इहाँ जाने-समुझे लायक बा। कथा ई बा कि बाली के मउत हो रहल बा। बाकिर, राम चाहत बानें कि ऊ मूयें ना, जीयें। एहलिए ऊ कहत बानें- हे बाली! हम तुहरे देह के अचल क देत बानीं, तू प्रान राखऽ, त्यागऽ जिन- “अचल करौं तनु राखहु प्राना।”(4/9/2) बाकिर, बाली राम के एह प्रस्ताव के नामंजूर करत जे कुछ कहत बानें ऊ अद्भुत बा। बाली कहत बानें- “हे कृपानिधान! मुनिजन जनम-जनम जतन करत रहेलें, यानी कि साधना करत रहेलें। तब्बो अन्तकाल में उनके मुँह से रामनाम ना निकसेला। जेकर नाँव लेके शिवजी काशी में सबके समानरूप से अविनाशिनी गति, यानी कि मुक्ति देलें। उहे राम आजु खुद आके हमरे ऑंखिन के आगे ठाढ़ बानें। हे प्रभो! अइसन संजोग फिर कबो मिली का? श्रुति ‘नेति-नेति’ कहिके हमेशा जेकर गुनगान करत रहेली सन, प्रान अउर मन के जीतिके आ इन्द्रियन के नीरस करिके मुनिगन ध्यान में जेकर कबो-कभारे झलक पावेलें, उहे प्रभु हमरे आगे ठाढ़ बानें। हे नाथ! रउवा हमके बहुते अभिमानी जानिके देह राखेके कहत बानीं। बाकिर, अइसन मूर्ख के होई जे हठपूर्वक कल्पवृक्ष काटिके बबूर के बाड़ लगाई?”

यथा-

जन्म जन्म मुनि जतन कराहीं।

अंत राम कहि आवत नाहीं।।

जासु नाम बल संकर कासी।

देत सबहि सम गति अबिनासी।।

मम लोचन गोचर सोइ आवा।

बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा।

 

सो नयन गोचर जासु गुन नित

नेति कहि श्रुति गावहीं।

जिति पवन मन गो निरस करि

मुनि ध्यान कब पावहीं।।

मोहि जानि अति अभिमान बस

प्रभु कहेउ राखु सरीरही।

अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु

बारि करिहि बबूरही।।

-श्रीरा०मा०-4/9/3-5/ 1

 

इहाँ राम के दर्शन होते बाली के भीतर ग्यान के उदय, अग्यान के अस्त, देह के प्रति अनासक्ति आ मृत्यु के भय से मुक्ति के जवन दिव्य अवस्था दिखाई देति बा, ओकर रहस्य समुझे लायक बा। असल में, इहाँ बाली द्वारा राम के दर्शन के अर्थ बा- अपनिये आत्माराम के दर्शन, अपनिये सहज स्वरूप के प्राप्ति। राम शबरी से अपने दर्शन के मर्म समुझावत ठीक इहे बात त कहले रहें। कहले रहें- हे शबरी! हमरे दर्शन के फल परम अनुपम बा। आ, ऊ ई बा कि जीव अपने सहज स्वरूप के प्राप्त हो जाला-

 

मम दरसन फल परम अनूपा।

जीव पाव निज सहज सरूपा।।-3/35/9

इहाँ ‘अनूपा’ के अर्थ बा- उपमारहित, माने कि अद्वितीय। कहे के जरूरत नइखे कि उपमा खातिर उपमान आ उपमेय, दू के होखल जरूरी बा। बाकिर जहाँ उपमान आ उपमेय, दूनों दू नइखें सन, अपितु अ-दू बानें सन, अभिन्न बानें सन, उहाँ केसे, केकर उपमा? आ, ‘परम’ के अर्थ बा- आखिरी, यानी कि जेसे इतर केहू दूसर नइखे, माने कि ब्रह्म। एकर अर्थ ई हवे कि अपने सहज स्वरूप के प्राप्त हो गइला के अवस्था में आत्मा आ ब्रह्म के भेद समाप्त हो जाला, दू के भाव मिट जाला। एही परम दशा के ओर इशारा करत ब्रह्म के उपलब्ध सद्गुरु कागभुशुण्डि से कहले रहें- “तोरे में आ ओकरे में, माने कि आत्मा आ ब्रह्म में, कवनो भेद नइखे। वेद कहेलन कि जल आ लहर के भाँति दूनों अभिन्न हवें सं।” यथा-

 

सो तैं ताहि तोहि नहिं भेदा।

बारि बीचि इव गावहिं बेदा।।-7/110/घ-6

 

तब्बे त द्वैत में जी रहल पाखण्डी ग्यानियन के पोल खोलत उपनिषद् के ऋषि कहले बानें कि- “जे ई कहेला कि ऊ (ब्रह्म) दूसर हवे आ हम दूसर हईं, ऊ ओके (ब्रह्म के) नइखे जानत-

 

अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति न स वेद।

बृ०उ०-1/4/10

 

आत्माराम के प्राप्त होत आदमी ओही छन क्षुद्र से विराट हो जाला, नर से नारायण हो जाला। एही रहस्य के समुझावत तुलसी कहत बानें- “जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई” आ, कबीर कहत बानें- “बूँद समानी सिंधु में सो कत हेरी जाय।” ऊ एक जगह इहो कहले बानें- “मैं जाना कोई और था, मैं तो भया अब सोय।” कठोपनिषद् के ऋषि नचिकेता के इहे त समुझावत बानें। कहत बानें- “हे गौतमवंशी नचिकेता! जइसे बरसात के शुद्ध पानी दूसरे शुद्ध पानी में मिलके ओकरिए जइसन हो जाला, ओइसहीं परमात्मा के जानेवाला मुनिजन के आत्मा परमात्मामय हो जाले, तद्रूप हो जाले।” यथा-

यथोदकं शुद्धे शद्धमासिक्तं तादृगेव भवति।

एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम।।15।।

 

चूँकि ये दिव्य दशा में मनुष्य देह के मोह-माया, राग आ आसक्ति से मुक्त हो जाला, एलिए ऊ देह में रहला का बादो देह में ना रहेला, विदेह हो जाला। इहे राम-दर्शन, यानी कि आत्म-दर्शन के सुफल हवे। इहाँ बाली अब अपने सहज स्वरूपावस्थारूपी आत्माराम के पाके ये बोध में स्थित हो गइल बाड़न कि ऊ देह ना हवें, अ-देह हवें, चित्तवृत्ति ना हवें, आत्मा हवें, जड़ इन्द्रिय ना हवें, साक्षी चैतन्य हवें, शोक-कष्ट ना हवें, सच्चिदानन्द हवें, मउत ना हवें, अमरित हवें। अपने अबिनासीरूप के प्राप्त होते बाली एह सत्य के जान गइल बाड़न कि देह माटी हवे, छनभंगुर हवे। आ, जे माटी बा, ऊ माटी में मिलबे करी, जे छनभंगुर बा, ओकर नाश होइबे करी, जे मरणधर्मा बा, ओके मूअही के बा। आ, एहीलिए ऊ मउत से तनिको डेराइल नइखें, छूटि रहल देह के प्रति कवनो मोह-माया, राग आ आसक्ति के बन्धन में नइखें, बलुक सब तरे के बन्धन से निर्बन्ध, अपने अजर, अमर, मुक्त, निर्भय, निर्विकार, चैतन्य आ सच्चिदानन्द स्वरूप में स्थित बानें।

 

बाकिर, बाली के पत्नी तारा अपने अजर,अमर, सहज आत्मस्वरूप के ग्यान से बंचित बाड़ी। एहलिए ऊ देह के प्रति मोह-माया आ रागासक्ति से मुक्त नइखी। ऊ देहे के सत्य जानत बाड़ी। आ, एहीलिए ऊ बाली के मृत देह प बिलखि-बिलखि के रोवत बाड़ी। तब राम देह के नश्वरता आ आत्मा के अमरता के रहस्य समुझावत तारा से कहत बानें- “धरती, आग, हवा, पानी आ अकास से बनल ई देह नित्य ना हवे, अनित्य हवे, नित्य त जीव हवे, फिर नित्य खातिर विलाप का? आ, जदि तू पंचमहाभूतन से गढ़ल ये देह खातिर रोवत बाड़ू, त ऊ त अब्बो तुहरे आगे सूतल पड़लि बा, कहीं गइलि नइखे, त फिर काहें रोवत बाड़ू?” यथा-

 

छिति जल पावक गगन समीरा।

पंच रचित अति अधम सरीरा।।

प्रगट सो तनु तव आगें सोवा।

जीवन नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।।-4/10/4-5

 

राम के कहेके माने ई बा कि देह सत्य ना हवे, सत्य रहिति त मूअति ना, नष्ट ना होइति। सत्य त ऊ आत्मा हवे, जे स्वभाव से ब्रह्मरूप बा। ई ब्रह्मरूप आत्मे ज्ञानेन्द्रियन समेत सगरो कर्मेन्द्रियन के असली संचालक हवे। एहीलिए केनोपनिषद् के ऋषि कहले बाड़न कि जे कान के कान हवे, मन के मन हवे, वाणी के वाणी हवे आ उहे प्राण के प्राण हवे अउर उहे ऑंख के ऑंख हवे। ये सत्य के जानिके धीर पुरुष संसार से मुक्त होके अमर हो जालें-

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं

स उ प्राणस्य प्राणश्चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीरा:

प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।”

केनोपनिषद्-1/2

 

हर जीव स्वभाव से ब्रह्म हवे। बाली के पत्नी तारो ब्रह्मे हई। बाकिर, जन्म-जन्म से देह के प्रति गहिर तादात्म्य के कारन ऊ अपने ब्रह्मरूप के भुला गइल बाड़ी आ देहे के आपन असली रूप मान लेले बाड़ी।

उनके शोक-पीड़ा के इहे मूल कारन बा। आ, इहे दशा संसार के सब जीव-जाति के बा। तुलसी कहत बानें कि अपने असली स्वरूप के बिसार दिहले के कारने मनुष्य दारुन दुःख के शिकार बा-

 

मायाबस स्वरूप बिसरायो।

तेहि भ्रम तें दारुन दुख पायो।।

-वि०प०-136

बाकिर, मृत्यु के अर्थ नास ना हवे। इहाँ कवनो चीज के नास ना होखे, खालीभर ओकर रूप बदल जाला, आकार बदल जाला। जगत के हर चीज एगो विशेष रूप भा विशेष आकार में जन्म लेले। माने ई कि इहाँ जनमेवाली हर चीज के एगो आपन आकार बा, आपन रूप बा, आपन गति बा, आ ओह गति के आपन पड़ाव बा। देखल जाउ त सगरो जगत रूपे त हवे, तब्बे त ऊ लउकत बा, दिखाई देत बा। आ, तब्बे त ओके ‘दृश्यमान जगत’ कहिके बोलावल-बतियावल जाला। आ, एगो बात इहो कि ऊ हर छन बेरुकले चल रहल बा, हरदम एगो गति में बा। जगत के अर्थे होला (गम्+क्विप् नि. द्वित्वं तुगागम:) हरदम हिलत-डोलत रहेवाला, स्थिर ना रहेवाला। जगत समेत जगत के  कवनो चीज बिना आकार के, बिना रूप के आ बिना गति के ना जनमेले। ई रूपे जन्म हवे। आ, रूप में जे गति बा, उहे जीवन हवे, अउर ओह गति के थथमि गइल मृत्यु हवे। बाकिर, मृत्यु के अर्थ रूप के विनाश ना हवे, ई त यात्रा के आखिरी पड़ाव प रूप के पट-परिवर्तन हवे। भोजपुरी प्रबंध-काव्य ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ के कृष्ण जन्म-मृत्यु के रहस्य समुझावत गांधारी से इहे त कह रहल बानें-

 

गंधारी! ‘रूप’ जनम ह,

ओमे जे गति, ऊ ‘जीवन’,

गति के थम गइल ‘मौत’ ह

पल-भर के पट-परिवर्तन।।8।।

 

आ, ई मृत्यु संसार के मंगल खातिर केतना जरूरी बा, आ एकर हिरदय करुना से केतना लबालब भरल बा, एकर एगो बानगी भोजपुरी महाकाव्य ‘प्रेमायन’ के कुछ छंदन के अँजोर में देखे लायक बा। अपने पिता दशरथ के मृत्यु से दुखी भरत के समुझावत आ तसल्ली देत गुरु वशिष्ठ कहत बानें-

 

तरु के पाकल फल के टूटल अनिवार्य, उचित,

एलिए कि फिरु से डारन में फल नया फले।

मिट सके कबो ना महकत बगिया के सिॅंगार

एलिए रोज खिल फूल, धूल के गले मिले।।92।।

 

लौ जरत दिया के बुता चले ताकी फिरु से

जग के अन्हार में नया दिया के जोति जले,

आ सके सबेरा नया, नया उग सके सुरुज

एलिए रोज चुप रात ढले, चुप सुरुज ढले।।93।।

 

जे उगल ढली ऊ अवसि, झरी हर फूल खिलल

संभव न जीर्न के ध्वंस बिना, नव सृष्टि-सृजन

अज अमर अनासी नित्य जीव, का सोक पुत्र

बा होत मौत में मात्र जीर्न-पट-परिवर्तन।।94।।

 

तू देख पिता के ओर तनिक निज ऑंख खोल,

मौतौ जीवन के सत्य, लास अइसन कठोर

पर, बड़ा दयामयि, ममतामयि, माँ के समान

बा बड़ा करुन एकरे नैनन के हर हिलोर।।95।।

 

जो देत प्यार ना मौत सृष्टि के समय-समय

पड़ जात सृष्टि में कीट, करत भू नरक बास

छा जाइत चारों ओर असह दुर्गंध सड़न

ना दिखत सृजन के ओंठन पर सुरभित सुहास।।96

 

जो दीप दिखाइत मौत न जीवन-संझा के

ठोकर अन्हार में खात बुढ़ापा गली-डगर

का पाइत थाकल जीव-पथिक आपन पड़ाव

देइति न मौत आ पग-पग पर बिश्राम अगर।।97।।

 

प्रेमायन, सर्ग-9

मृत्यु, रूप के यात्रा क एगो पड़ाव हवे, ओकर अंत ना। जन्म से शुरू भइल रूप के ई यात्रा चक्का के नाईं गोलाकार गति करत मृत्यु प आके पूरा हो जाले, बाकिर रुकेले ना, पुरान रूप त्यागिके नया रूप के साथे आगे सरकि जाले। एतरे जन्म-मृत्यु के ई चक्र हरदम चलत रहेला, कबो समाप्त ना होखे। बाकिर, जन्म-मृत्यु के चक्र जवने कील पर गति करेला, ऊ कील कबो गति ना करेले, हमेशा अ-गति के अवस्था में रहेले, अचल रहेले। आ, ओकर कवनो रूप नइखे, नाँव नइखे। ऊ अरूप आ अनाम अस्तित्व हवे। बाकिर, हर रूप पानी में बुलबुला के भाँति ओही अरूप से उपजेला, ओही प ठहरेला आ फिर ओही में हेरा जाला। ऊ अरूप कीलवे सत्य हवे, रूप ना, ऊ अरूप आ अनाम अस्तित्वे सत्य हवे, देह ना। उहे आत्मा हवे। जे परिधि से सरकि के ओह आत्मारूपी कील से जुड़ जाला, ओके मौत न डेरवा पावेले, न ओकर कुछू बिगाड़ि पावेले। तब्बे त संत कमाल कहले रहें-

 

चलती चक्की देखकर कह कमाल खुश होय।

जो कीली से लग गया, बाल न बाँका होय।।

 

ओह आत्मारूपी कील के उपनिषद्न के ऋषि ‘कूटस्थ ब्रह्म’ नाँव देले बाड़न। कूटस्थ के अर्थ हवे- ‘निहाई’। लोहार खेती-बारी आ घर-गिरहस्ती के सामान बनावे खातिर भठ्ठी के आग में गरम कइल अँगारा के भाँति लाल-लाल दहकत लोहा निहाई प रखिके हथउड़ा से हुमचि-हुमचि के पीटेला। आग के ऑंच आ हथउड़ा के मार से लोहा के आपन पहिलेवाला रूप ओ निहाई के ऊपर ना जाने कहाँ बिला जाला आ ऊ हॅंसुआ, खुरुपी, कुदार, खंती, छूरा, चाकू आदि नया-नया रूप-शक्ल में रूपान्तरित हो जाला। बाकिर, ये सब के आधार ऊ निहाई आग के ताप आ हथौड़ा के असर से एकदम बेअसर, अपने सहज स्वभाव आ मूल स्वरूप में स्थित रहेले। आत्मो स्वभाव से निहाइये के भाँति एकरस, अचल, निर्दोष, आ अपरिवर्तनशील हवे। आत्मे के ऊपर देह जन्म लेले। आ, ओकरिये ऊपर ऊ बचपन, जवानी आ बुढ़ापा से गुजरत नाना तरे के सुख-दु:ख, रोग-बियाधि, हर्ष-विषाद, हानि-लाभ, मान-आपमान, यश-अपयश, पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ आदि द्वैत-द्वंद्व सहत-भोगत रहेले। बाकिर, आत्मा देह द्वारा सहल-भोगल गइल ये सभ तरे के द्वैत-द्वंद्व के आधार होखला का बादो निहाई के भाँति ओ सभके असर से हमेशा बेअसर, अचल, निर्विकार, अछूता, एकरस आ जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर रहेले। ई आत्मे आदमी के असली स्वरूप हवे। आत्मा अउर परमात्मा, दूनों दू ना हवे, एक्के अ-दू हवे “एकमेवाद्वितीयम्।”(छा०उ०, 6/2/1) एहलिए ओके, यानी कि आत्मा आ परमात्मा के, एक्के रूप देखेके चाहीं- “एकधैवानुद्रष्टव्यम्।”(बृ०उ०,4/4/20)

 

 

जे दूनों में तनिको अन्तर करेला, यानी कि दूनों के दू मानेला, ऊ हमेशा भय में रहेला, यानी कि मृत्यु के भय से कबो मुक्त ना होला- “उदरमन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति।” (तै०उ०,2/7/1) आ, ऊ मृत्यु से मृत्यु के प्राप्त होत रहेला, अर्थात् ओके बार-बार मूये के पड़ेला-“मृत्यो: स मृत्युमाप्नोति।”(क०उ०,2/1/10)

बाकिर, जे ओ परब्रह्म के जान लेला ऊ ब्रह्मे हो जाला। ओकरे कुल में केहू अब्रह्मवित् ना होला। ऊ शोक तर जाला, पाप तर जाला आ अज्ञानजन्य ग्रंथियन से मुक्त होके ओही छन अमर हो जाला-

 

स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति

नास्याब्रह्मवित्कुले भवति। तरति शोकं तरति

पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति।।

मु०उ०3/2/9

 

रामकृष्ण परमहंस के कैंसर रहे। कैंसरे से उनके मौत भइल रहे। जवने छन ऊ मूअत रहलें हॅं, ओ छन उनके ओंठन पर मधुर मुस्कान उतर आइलि रहे। बाकिर, उनके पत्नी शारदा जी फूट-फूट के रोवत रहली ह। रामकृष्ण कहलें-“शारदा! तू रोवत बाड़ू! बाकिर काहें?” शारदा जी कहली-“हम बेवा हो रहल बानीं, आ तू पूछत हवऽ कि हम काहें रोवत बानीं!” रामकृष्ण कहलें-“जदि तू हमार पत्नी हऊ, त तुहॅंके बेवा होखेके उपाये नइखे। तू सुहागिन बाड़ू, सुहागिने रहबू। काहेंकि हम कबो मू नइखीं सकत। हम त बस कपड़ा बदलत बानीं। आ, जदि तू शरीर के पत्नी हऊ, त रोवऽ, हम मना ना करब।” रामकृष्ण के प्रज्ञा-शब्दन के ज्वाला में शारदा के सगरो अज्ञान जरिके राख हो गइल। उनकर हृदय सत्य के निर्मल उजास से जगमगा उठल। पास-पड़ोस के मेहरारू सब बहुत कहली-“शारदा! तें चूरी फोरि दे, सेनुर पोंछि ले, बेवा के कपड़ा पहिर ले।” बाकिर, शारदा जी साफे मना क दिहली। कहली-“रामकृष्ण मूअल नइखें। हम सुहागिन हईं, सुहागिने नियन रहबि।” शारदा जी शायद भारत के इकलौता अइसन मेहरारू रहली ह जे पति के मूअला का बाद चूरी ना फोरली, सेनुर ना पोंछली, बेवा के कपड़ा ना पहिरली, जिनिगी भर सुहागिन के वेश में रहली।

आत्मज्ञानी पुरुष खातिर सगरो संसार आत्मे क विराट स्वरूप हवे। उपनिषद् के ऋषिगण कहले बानें-

आत्मा के अलावा कुछ ना हवे-

न तु तद्द्वितीयमस्ति। (बृ०उ०-4/3/23)

ई जे कुछ बा, सब आत्मे हवे-

इदं सर्वं यदयमात्मा। (बृ०उ०-2/4/6)

ई सब आत्मे हवे-

आत्मैवेदं सर्वम् ।(छा०उ०-7/25/2)

शंकराचार्यो इहे कहले बानें-

ई सगरो संसार वास्तव में आत्मे हवे। इहाँ आत्मा के सिवा केहू अउर के अस्तित्वे नइखे। जइसे घड़ा आदि सब कुछ माटिए हवे, ओइसहीं आत्मज्ञानी सब कुछ आत्मारूपे देखेला-

 

आत्मैवेदं जगत्सर्वमात्मनोऽन्यन्न विद्यते।

मृदौ यद्वद्वटादीनि स्वत्मानं सर्वमीक्षते।।48।।

आत्बोध

 

आत्मज्ञानी मनुष्य सब में खुद के, आ खुद में सबके देखेला। येही परम सत्य के प्राप्त होके कबीर कहले रहें-

 

हम सब माँहिं सकल हम माँहीं,

हम थैं और दूसरा नाहीं।

तीन लोक में हमारा पसारा,

आवागमन सब खेल हमारा।।

खट दरसन कहियत हम भेखा,

हमहीं अतीत रूप नहीं रेखा।

हमहीं आप कबीर कहावा,

हमहीं अपनां आप लखावा।।  -क०ग्रं०,पद सं०-332

 

आ, एहीलिए आत्मज्ञानी मनुष्य मय जड़-चेतन सभके खातिर सब समय समान रूप से प्रेम, करुना आ मंगल के दिव्य अहोभाव में रहेला, केहू खातिर ईर्ष्या-द्वेष, घृणा भा हिंसा आदि ना रखेला। एही अर्थ में कृष्ण कहत बानें कि जे पुरुष सब जगह समभाव से स्थित ईश्वर के समभाव देखत-‘समम् पश्यन्’ यानी कि अपने से अभिन्न देखत खुद के द्वारा खुद के हनन ना करेला, ऊ परम गति के प्राप्त होला। मतलब ई कि जे ईश्वर आ खुद में भेद-बुद्धि ना रखेला, बलुक अपनिये के सब जगह समानरूप से स्थित देखेला, ऊ खुद के द्वारा खुद के हत्या कइसे क सकेला! जे ये तरे देखेला, उहे परम दशा के प्राप्त होला-

 

समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।

न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम्।।

श्रीमद्भगवद्गीता-13/28

 

ठीक इहे बात दादू कहत बानें, बाकिर अपने ढंग से।

यथा-

 

काहें को दुख: दीजिये, साईं है सब माहिं।

दादू एकै आत्मा, दूजा कोई नाहिं।।

 

एही सत्य के तुलसी अपने ढंग से कहत बानें। यथा-

 

उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।

निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।

रा०मा०-7/112,

 

इहे द्वैत से मुक्त होके अद्वैत में स्थित होखल हवे। बाकिर, विभेदकारी चित्तवृत्ति ‘मैं’, यानी कि अहंकार के रहते ई स्थिति सम्भव नइखे। अहंकारे काम, क्रोध, मद आदि सब तरे के मनोविकार, मनोरोग, सब तरे के विभाजन आ सब तरे के भेद-भाव के एकमात्र कारन हवे। एकरिये वजह से आदमी समुद्र-स्थित जल नियन अपने अथाह आ असीम ईश्वरीय स्वरूप के बिसारि के घड़ा-स्थित जल नियन लघु आ ससीम स्वरूपवाला हो गइल बा। बाकिर, जब देहरूपी घड़ा के अहंकाररूपी दीवार गिर जाले त घड़ा-स्थित उहे लघु आ ससीम जल समुद्र-स्थित जल से मिलके ओही छन विराट आ असीम हो जाला। एकरे ओर इशारा करत कबीर कहले बानें-

 

जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है,

बाहरि भीतरी पांनी।

फूटा कुंभ जल जलहि समांनां

यह तत् कथौ गियानीं।।

क०ग्रं०,पद-44

 

आ, एकरे ओर संकेत करत केहू शायर कहले बानें-

 

घटे तो एक मुश्त-ए-खाक है इंसां।

बढ़े तो वुसअतें कौनैन में समा न सके।।

 

अहंकारे के वजह से जिनिगी में सब तरे के संकीर्णता, भेद-भाव, विभाजन, असमानता, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा-नफरत, लड़ाई-झगड़ा, हिंसा, लोभ, स्वार्थ, असंतोष, डर-भय, चिन्ता-तनाव, अशांति आदि दोष व्याप्त बानें सन। जबले अहंकार रही तबले जिनिगी में सेवा, त्याग, करुना, क्षमा, प्रेम आ समानता के अवतरण सम्भव नइखे। अहंकार आदमी के पशु बना देला। पशु के अर्थो इहाँ समुझे-बूझे लायक बा। पशु ‘पाश’ शब्द से बनल बा। ‘पाश’ के अर्थ हवे- बन्धन। माने ई कि अहंकार के पाश में बन्हाइल रहल, पशु होखल हवे। जे अहंकार के पाश से मुक्त हो जाला ऊ पशुपति हो जाला, शिव हो जाला, आपन वास्तविक स्वरूप पा जाला। अहंकार के अस्ते त शिवत्व के उदय हवे। इहे परम अवस्था हवे। येही परम अवस्था के प्राप्त होके आदि शंकराचार्य गा उठल रहें- “चिदानन्दरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम्।” एक बात अउर। अहंकार नामक ई चित्तवृत्तिये जनमे-मरेले, आत्मा ना। एहीलिए ज्ञानी आ भक्तजन के दृष्टि में अहंकार के मौते असली मौत हवे। ये मौत में बहुते मधुरता बा, बहुते मिठास बा। तब्बे त कबीर कहत बानें- “ई मूअल बहुत मीठ बा। गुरु के कृपा से जे ये मरन के देख लिहले बा ओकरे खातिर ये मरन में कर्तापन के अहंकार मूवेला, कर्म-भावना मूवेले, देह आ संसार के प्रति आसक्ति के स्मृति मूवेले भा सुन्नर घरनी के सुघराई मूवेले। अहंकार आ मान प्रपंच के साथ अभिमान मूवेला। बाकिर, राम में रमण करिके जे ये मृत्यु के पा जाला ऊ अबिनासी ब्रह्म हो जाला।’

यथा-

 

जे को मरै मरन है मीठा,

गुरु परसादि जिनहिं मरि दीठा।

मूवा करता, मुई ज करनी, के

मुई नारि सुरति बहु घरनी।

मूवा आपा, मूवा मान,

परपंच लेइ मूवा अभिमान।।

राम रमें रमि जो जन मूवा,

कहै कबीर अविनासी हुआ।।

क०ग्रं०,पद-46

 

येही दिव्य मृत्यु के पाके तुलसी झूमि-झूमि के गा

उठल बानें-

 

अब लौं नसानी, अब ना नसैहौं।

राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं।।

वि०प०-105/1

भारतीय ऋषि-प्रज्ञा येही मृत्यु के पा लिहला के कला सिखावेले। जे जीते-जी ये मृत्यु के वरण कइला के

हिम्मत रखेला ऊ मृत्यु से बाहर सरकि जाला, अमरत्व पा जाला, काहेंकि इहे इहाँ के विधान हवे।

जे खुद के बचावे के जतन करेला, ऊ मिट जाला आ जे खुद के मिटा देला, ओकरे मिटला के सगरो डगर बन्द हो जाले।

कठोपनिषद् के कथा कहेले कि नचिकेता जब यम के दुआरे पहुँचल आ उनके किवाड़ खटखटवलस त यम के ना पवलस। यम कहीं गइल रहें, माने कि मृत्यु अपने घर में ना रहे, घर से बाहर रहे। मृत्यु हमेशा हमनीके किवाड़ खटखटावेले आ ऊ उहाँ हमनीके पइबो करेले। नचिकेता मृत्यु के किवाड़ खटखटावत बा आ मृत्यु नदारद बा। एकर मतलब ई कि जे खुद मृत्यु के किवाड़ खटखटावेके हिम्मत राखेला, ऊ पावेला कि मृत्यु एगो भ्रम हवे। ऊ मृत्यु से अमरत्व लेके लौटेला, अमर होके लौटेला। सावित्रियो के कथा एही मृत्यु से अमरत्व लेके लौटे के प्रतीक-कथा हवे।

कबीर एही मृत्यु से अमरत्व पाके गा रहल बानें, अपने आत्माराम के पाके नाच रहल बानें, अमर होके गुनगुना रहल बानें-

हम न मरैं मरिहैं संसारा

हम कूं मिल्या जियावनहारा।।टेक।।

अब न मरौं मरनैं मन मांनां,

तेई मूए जिनि राम न जांनां।

साकत मरै संत जन जीवै,

भरि भरि रांम रसाइन पीवै।।

हरि मरिहैं तो हमहूँ मरहैं,

हरि न मरै हमं काहे कूं मरिहैं।

कहै कबीर मन मनहि मिलावा,

अमर भये सुख सागर पावा।।

 

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