किताब: दीपशलभ
लेखक: मार्कण्डेय शारदेय
विधा: प्रबंध काव्य
प्रकाशक:सर्वभाषा ट्रस्ट प्रकाशन
प्रकाशन वर्ष : 2020
पृष्ठ संख्या : 84
मूल्य : 150 ₹
भोजपुरी में पौराणिक प्रसंगन भा चरितन पर रचित प्रबंधकाव्यन चाहे ऊ महाकाव्य होखे भा खंडकाव्य के संख्या बेसी बा। आधुनिको विषयवस्तु के ले के प्रबंधकाव्य भोजपुरी में रचत जात रहल बा। बाकिर ऐतिहासिक विषय वस्तु के ले के रचल जाए वाला प्रबंधकाव्य कम बा। बौद्धकालीन इतिहास पर बउधायन, कुणाल आ बुद्धायन हम पढ़ले बानी, जबकि मध्यकालीन इतिहास पर ‘ किरणमयी ‘ आ ‘ शेरशाह पढ़े के मिलल रहे। ओकरा बाद मार्कण्डेय शारदेय रचित प्रबंध काव्य ‘ दीपशलभ ‘ 2020 ई. में छपल बा जेकर कथावस्तु मध्यकालीन इतिहास से जुड़ल बा। मेहरुन्निसा ऊ दीप बाड़ी जेकरा पर सुरनाथ शर्मा, शेर आ सलीम जइसन शलभ आकर्षित होत बाड़ें आ जर के मर जाए के हालत में पहुँच जात बाड़ें।
युवा सुरनाथ शर्मा सुघर नौजवान रहलन, बिद्या बुद्धि से भरल पूरल रहलन। ऊ अकबर जइसन राजा के खजांची गयाशुबेग के मुंशी रहलन। साहित्य, व्याकरण, न्याय, ज्योतिष आ वेदांत के विद्वान रहलन। युवामन रूप आ सुघराई के ओर खिंचाजाला आ कर्तव्य पथ से भटके लागेला, सौन्दर्य ओकरा के विचलित करे लागेला। ऊ यमुना तट पर प्रकृति नटी के नर्तन देख के विचलित हो जात बाड़न, बाकिर अपना के सम्हार लेत बाड़न काहे से कि गयाशुबेग जइसन सनेह देवेवाला राज अधिकारी के कर्मचारी भइला के बोध रहे। असल में कवि शारदेय जी प्रकृति चित्रण से ही एह काव्य के शुरुआत कइले बानी।
बेग साहेब के बेटी रही मेहरून्निसा, अनिंद्य सुन्दरी। कुल खानदान के मान बढ़ावेवाली मेहरुन्निसा रूप आ शील से भरल पूरल रहली। उनका सोझा जाये में विद्वानो लोग का भय लागत रहे। प्रबंधकाव्य के कवि शारदेय जी उनका रूप के बरनाका करत लिखत बाड़ें-
सुन्दर चंचल बृहन्नयन आ ओठ सरस अति पातर।। रससे भरल कटोरी जइसन गाल, शंख जस गर। पातर लमछर करिया कुचुकुचु नरम केश मन मोहे। रेशम के करिया में रँगि के सूता सझुरल सोहे ।।
मेहरुन्निसा सद्व्यवहारी त रहले रही, ज्ञान खातिर पियासल रहली। उनकर पढ़ाई घर पर होत रहे। मोलवी साहेब पढ़ावत रहलें जे फारसी पढ़ावत रहलें। संस्कृत के शिक्षा देवेला सुरनाथ शर्मा के रख लिहल गइल जे कचहरी के काम के बाद गयासुद्दीन बेग के घर पर आके पढ़ावे लगलन। बाकिर सुरनाथ के जवानी मेहरुन्निसा के सुघर आ मादक रूप में भटके लागल-
शिष्या के सुन्दरता से मन उनुकर डोले लागल। नीति-रीति आ धरम-करम के गीरह खोले लागल।। हिरदय में हिलकोरा होखे यौवन से गदराइल। भावत्रय के सम्मिश्रण से मादकता बढ़िआइल।।
सुरनाथ शर्मा प्रेमरोग के आत्मनियंत्रण से दबावे के कोशिश करत पढ़ावे के काम करत रहलन। बाकिर उनकर मन आँवक में नइखे आवत। ऊ मेहरुन्निसा के रूप आ देह के घाटी में भटके लागत बा –
शर्मा जी के मन बानर अस डाढ़-डाढ़ प फाने। लाख मनावसु रोकल चाहसु बाकिर ऊ ना माने।।
जइसे शलभ दीप के भीरी आवेला, हट जाला। छिन छिन का दो सोच समझ कुछ हट जाला, सट जाला।।
चरित्र के बिछिलाए से बचावे खातिर, ऊ गयासुद्दीन बेग के सेवकाई छोड़े के चाहत बाड़न। ई बात ऊ मेहरून्निसा से बतावत बाड़न, ऊ उनका के एगो अँगूठी गुरूदक्षिणा के रूप में देत बाड़ी। बेग साहेब का पता चलत बा कि सुरनाथ शर्मा सेवकाई छोड़ के जाए के चाहत बाड़न, ऊ मनावे के चाहत बाड़न, बाकिर शर्माजी आपन आ बेग साहेब के इज्जत प्रतिष्ठा के हानि से बचे खातिर नइखन मानत, विदा कर देत बाड़न। शर्मा जी अपना के कोसत घर वापसी करत बाड़न। बाकिर घर पहुँचियो के उनकर मन उचिटल रहत बा-
रहसु दार्शनिक अस अपने में नित-नित, बिसरल बिसरल स्वप्निल रहल सदा चित।
खाइल-पीयल-सूतल कुछो न भावे, स्वजन समझ ना पवलें रोग उपस्थित।
एने मेहरुन्निसा के रूप आ जवानी पर बादशाह अकबर के पुत्र सलीम आ वजीर शेर खाँ लोभाइल बाड़ें। दुनों लोग चाहत बाड़न कि मेहरुन्निसा उनकर हो जास। गयासुद्दीन बेग का ई ज्ञान रहे कि सलीम बादशाह पुत्र बा जे मेहर के सब रस चूस के छोड़ दी, ऊ कुछ ना कर पइहन। बेटी के समझावत बाड़न कि सलीम से बढ़िया वीर शेर खान से बिआह कइल ठीक रही –
तहरा लायक बा सिर्फ शेर। जेमें गुण बाड़े बहुत ढेर।
वजीर शेर वीर बा आ ऊ अइसन ना कर सकी। सलीम बादशाह से अपना मन के बात बता के शादी करावे के विनती करत बाड़न। बादशाहो नइखन चाहत कि सलीम से बिआह होखे। झूठा दिलासा दे के सलीम के लवटा देत बाड़न। गयाशुबेग से बतिया के वजीर शेर से मेहर के बिआह करा देत बाड़न। अकबर आ गयाशुबेग के मन मोताबिक काम हो जात बा। बंगाल के राजपाट शेर के दे देत बाड़न।
ओने सुरनाथ शर्मा मेहरुन्निसा के बिछोह आ अपना कर्तव्य से चुकला के चलते ग्लानि में पड़ल गलल जात रहन-
मेहरुन्निसा उनकरा हृदय में जब समइली, तब से शरीर उनुकर पचकत गइल सदा ही।
ऊ हृष्ट – पुष्ट आकृति, ऊ दर्शनीय यौवन, ठठरी मतिन अशोभन होखत गइल सदा ही ।।
विक्षिप्तता में एक दिन घर छोड़ के वन में भटक गइलन आ घाहिल हो के पड़ल रहलन-
बढ़ते रहन तलक ऊ फेड़ा में जाई लड़लें, भइलें निठाह घाही सब तंतु झनझनइलें।
बेजान अस अचानक मुँह के बले बिगइलें, चेतन अचेत होखल मृतप्राय ऊ बुझइलें।।
कवनो तपस्वी के नजर पड़ल, ऊ अपना आश्रम में ले गइलन आ इलाज बात करके उनका तन आ मन दुनों के निरोग कइलन अउर उनका के राह धरावत विदा कइलन।
बंगाल के शासन बढ़िया से चलत रहे। अपराधी लोग दंडित होत रहे। प्रजा खुशियार रहे। बाकिर, मेहरुन्निसा के पावे में विफल सलीम बंगाल राज में उपदरो मचावत रहे। ऊ ना चाहत रहे कि बंगाल शांत रहे। ऊ शेर के जानी दुश्मन बन गइल रहे। सुरनाथ शर्मा जंगल में तपस्वी आश्रम से निकललें त भटकत राति खा कतहीं टिक गइलें। निसबद रात में कुछ लोग के बातचीत से पता चलल कि ऊ लोग सलीम के आदमी ह, जे शेर के जान लेवे के उदेसे निकलल बा। उहो तालमेल बइठा के ओह दल में शामिल भइलें आ बुद्धि लगा के शेर खाँ के जगवा देलें। शेर के जान बचल आ सुरनाथ के प्रायश्चित पूरा भइल। गला के हार दे के शेर शर्मा जी के पुरस्कृत कइल चहलें। जाते-जाते ऊ कह गइलें –
पुनः करजोरि कहलें, ‘ हे नृपतिवर। न चाहीं कुछो भौतिक वस्तु सुखकर।
रखीं ; ई न बा हमरा काम लायक। बने हम जा रहल संन्यास धारक।
इहे सब साधना के हवें बाधक। गृही जन भले मानसु सुखद साधक।
निवेदन करे हम बस पास अइलीं। हृदय के बात सँउसे कह सुनइलीं। ‘
जहाँ तक काव्य शास्त्र के निष्कर्ष पर एह प्रबंध काव्य के कसल जाई त संस्कृत के आचार्य मारकण्डेय शारदेय जी, एकरा के सात सर्ग में निबद्ध कइले बानी। बाकिर अपना काल के छोटे प्रसंग पर आधारित भइला से ई खंडकाव्य के श्रेणी में आई। एह में प्रसंगानुकूल प्रकृति चित्रण, दिन-रात, साँझ-प्रात, सूरज-चान, नदी-ताल के बरनन मिलत बा। प्रकृति के मानवीकरण भी खूब भइल बा।
जहाँ तक चरित्र शिल्प के बात बा, एह प्रबंधकाव्य के नायक सुरनाथ शर्मा बाड़ें। कथा उनके से शुरु होत बा आ उनके से समाप्त होत बा। ई मेहरुन्निसा के चारित्रिक शुचिता आ अपना आचरण के बचावे खातिर आपन पेशा तक छोड़ देत बाड़न। पुत्रीतुल्य शिष्या पर इनकर कामुक दृष्टि पड़ल, जवन इनका के पछतावा में डारि दिहलस, जवना के ऊ सह नायक शेर के जान बचा के प्रायश्चित से दूर कइलें। शेर सह नायक बाड़ें, जे नायिका मेहरुन्निसा के प्राप्त करत बाड़न, बंगाल के कुशल शासक बाड़न आ उनका हत्या के उदेसे सलीम के भेजल उपद्रवियन के मार गिरावत बाड़न। सलीम खल नायक बाड़ें, ऊ ऐयाश बाड़न, मेहरुन्निसा के पावे में विफल रहला पर तरह-तरह के उपदरो करत-करवावत बाड़न। मेहरुन्निसा नायिका बाड़ी, जे रूप आ गुण दुनों से भरल बाड़ी। ऊ अपना गुरु के दिशा देखावत बाड़ी आ अपना बिआह के बारे में पिता के सलाह मानत बाड़ी। अकबर, गयाशुबेग, मौलवी आ जंगल के तपस्वी गोण पात्र बाड़ें।
शारदेय जी के भाषा तत्सम बाहुल्य बा, काहे से कि उहाँ का संस्कृत के आचार्य बानी। बाकिर ई तत्सम के बाहुल्यता खटकत नइखे। भोजपुरी में सहज आ गतिमान रहत बा।
आखिर में हम एह प्रबंध के उदेस पर विचार करत बानी त पावत बानी कि मध्यकालीन इतिहास के ई प्रसंग आजुओ काल के समय में बड़ा प्रासंगिक बा। आजु समाज में कतना घटना अइसन घट रहल बा, जवना में प्रेम में प्राण तक ले लिहल जात बा। सात्विक प्रेम ना, दैहिक प्रेम में पड़ल युवा पीढ़ी बेलगाम बा। ई प्रबंधकाव्य प्रेम में पवित्रता बरकरार राखे के ऊपर बल देत बा।