भोजपुरिया समाज आ लोक की संवेदना के संगीतात्मक दस्तावेज ह‘झनकि बाजे हो’

February 13, 2023
पुस्तक समीक्षा
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पुस्तक-समीक्षा

डॉ. महेश सिंह

पुस्तक : झनकि बाजे हो

लेखक- बलभद्र

प्रकाशक- सर्व भाषा ट्रस्ट, नई दिल्ली

पेज- 72,

मूल्य ₹140.00

कथेतर गद्य संग्रह ‘झनकि बाजे हो’ एगो अइसन रम्य-रचनन के संग्रह बा जेमे स्वाभाविक रूप से पाठक रमत चलि जाला। एकर कारन बा लेखक की लेखनी के लालित्य। एहमें अनुभव में हर उ चीज बा जवन घर, परिवार, गाँव, जवार, खेत-बारी, खर-खरिहान, गढ़हा-गुडुही, बाग-बागइचा, ताल-पोखरा, नदी-नाला, चिरई-चुरङ्ग, पेड़-रुख़, हर-फार, जर-जुआठ आदि के बीचे हर मनई के आरे-पास से हो के गुजरेला। एहमें स्त्री जाति के दुःख-दर्द बा, संघर्ष बा तएही बीच से निकलल गीत आ संगीत भी बा। संगीत भी अइसन कि पाठक चाहि के भी एसे किनारा ना क सकेलन। एह संग्रहमें ज गो लेख बा उ त तरह के मनोरम दृश्य पाठक के सोझा रखि रहल बा। असल में ई एह संग्रह के लेखक डॉ. बलभद्र की लेखनी आ अनुभव के ताकत बा जवन पाठक के अपना भीतर आहिस्ता-आहिस्ता न खाली जगह दे रहल बा बलुक अपना भीतर रमि जाए के मजबूर क रहल बा। हम त इहे कहब कि जवना तरह से कहल जाला- हिंदुस्तान के जाने के होखे त प्रेमचंद के उपन्यास गोदान पढ़ लिहल जाव। असहीं भोजपुरिया समाज आ संस्कृति के जाने के होखे त डॉ. बलभद्र के ई कथेतर गद्य-संग्रह ‘झनकि बाजे हो’ पढ़ लिहल जाय।

आईं देखल जाव कि अउर का-का बा एह संग्रह में। त एह संग्रह में कुलि बारह गो कथेतर गद्य-रचना बा, जवन 1993 से 2019 तक भोजपुरी के तमाम पत्र-पत्रिकन में समय-समय पर प्रकशित भइल रहे। ओ समय अधिकतर पाठक आ संपादक लोग एह रचनन के पढ़ि इहे कहलन कि ई रम्य रचना ह, कुछ लोग ललित निबंध भी कहले बा। एह संबंध में हम भी इहाँ  कवनो नया स्थापना नइखीं देबे जात काहें कि हमके भी एह संग्रह के सब रचना रमा देबे वाला ही लागल। एह संग्रह में जवन पहिलका रचना बा ओकर नाम ह ‘टभकल से टुभुकल ले’। एह में बेटा के जन्म भइला के अवसर पर सोहर गावे खातिर जुटल गाँव के मेहरारुन आ लइकिन के स्वच्छंद बतकही आ गीतन के माध्यम से आपन दुःख-दरद, संघर्ष आ स्वतंत्रता के अभिव्यक्ति देखाई दे रहल बा।

“तोर मन बसे कि ना रे साँवरका

मोर मन बसेला तोरा में

चाहे मराइब चाहे कटाइब

चाहे कसाइब बोरा में”

एह गीत में खाली लय, सुर, राग आ ताल नइखे बलुक पितृसत्तात्मक व्यवस्था से विद्रोह करत अपना मन भा आत्मा की अभिव्यक्ति के बात बा। लेखक के हवाले से देखीं- “छाती के भीर। समय के माथा ठनकल। लइकिन के आपन दरद। लइकी भइला के दरद। समाज के आधा हिस्सा के दरद। आपन बात अपने राग में।”

दोसरका रचना के नाम ह ‘बिरह से जिरह में’। एह रचना में देखल जा सकेला कि लेखक आधा हिस्सा के साथे पूरा मन से खड़ा हो रहल बाड़न। उ जानि रहल बाड़न कि “लइकिन के मन के भीतर बहुत कुछ बा अइसन जवना के लेके कहल जा सकेला कि ऊ ऊपर-ऊपर से बेसी भीतर-भीतर होली।” चूँकि भारतीय समाज में पहिलहीं से एह आधा हिस्सा खातिर कवनो खास स्थान ना रहल, जेकरे चलते ऊ अपना भीतर के बात गीतन के माध्यम से अभिव्यक्त करे ली। डॉ. बलभद्र एह रचना में वोही भीतर की बात से समाज के रूबरू करावत बाने। 

‘समय के साँचा में’ एह संग्रह के तीसरका रचना ह। “अबकी बाजार के एकरा खातिर एगो हलुको-पातर कपड़ा कीनब जरूर। आपन त तोप-ढाँप लेब कसहूँ। पिलुआ भ के लइका। सवख का एह से दोसर होला । एकरा खातिर अबकी…!” इहाँ हम नइखीं समझत कि एह से अधिका कुछ कहला के जरूरत बा। लेखक कहि रहल बाड़न कि अभाव मन में बड़ा खीझउपजावेला एकरे बावजूद भी मजदूर वर्ग के हँसुआ समय की साँचा में बइठि के निरंतर गतिशील रहेला। काहें कि ऊ सारा खीझ हँसुआ पर उतर आवेला।

‘बाकी चइत के झकोर जानि माँगऽ’ आ ‘ताल टूटे ना’ एह दुनो रचना में पूरा भोजपुरिया समाज आ संस्कृति के बड़ा सलीका से लेखक प्रस्तुत क रहल बाने। चइत एगो महीना के नाम ह त चइता भोजपुरी लोक गीत के एगो शैली। चइता के विषय बड़ा व्यापक होला एमे जतने व्यापकता मिली अतने गहरायी भी अतने विविधता। विविधता की व्यापकता आ गहराई एह रचना के सौंदर्य बा। ताल टूटे ना में लेखक बता रहल बाने कि “शहर होखे भा गाँव- एही ताव आ ताल प साधारण आदमी के सँउसे जीवन नाचत रहेला।… किसान के जीवन में एह ताव आ ताल के एगो आपन रंग-ढंग होला। जोतनी-बोअनी से लेके कटनी-पिटनी तक के आपन ताव आ ताल होला।” लेकिन आज के पूँजीवादी आ बाजारवादी व्यवस्था में एह ताव आ ताल प खतरा मंडरा रहल बा। एही खतरा से समाज के अवगत करवले के प्रयास कहल जा सकेला ई रचना। एहि तरे ‘एकहवा’ में एगो आम के पेड़ (जवना के अब काटि दिहल गइल बा)  के माध्यम से लेखक गाँव-जवार के बीच मे ओकरे रहले के महत्व के बता रहल बाड़न। एह लेख में उनकर चिंता खाली पर्यावरण के लेके नाही बा बलुक ओकरे स्नेह की छाया में अंगे लागल आमजन आ हर प्राणी से भी बा।

एह संग्रह के अन्य रचनन में ‘अटका में परल बसन्त’, ‘पीर हउवे जहँवा के पहचान’, ‘झनकि बाजे हो धनि खेते-खेते चुरिया’, ‘कॉलेज में तोंत’, ‘लेवा’ आ ‘ढूढंन हम आइब’ बा।

अटका में परल बसन्त आ पीर हउवे जहँवा के पहचान में लेखक के चिंता आम आदमी के दैनंदिन समस्या आ प्रकृति के साथे हो रहल जबरदस्ती के ले के बा। त झनकि बाजे हो धनि खेते-खेते चुरिया में जीवन खातिर गीत आ श्रम के साथे गीत में रचल-बसल भोजपुरिया समाज के जीवंत मिश्रण वाला संस्कृति देखे के मिल रहल बा। कॉलेज में तोंत के बहाने लेखक पवनी-पंसारी के बात कर रहल बाने त लेवा आ ढूढंन हम आइब में लेखक के नितांत आपन आ अपना परिवार के साथ जुड़ाव, लगाव, स्नेह आदि उभर के आइल बा। लेकिन एकरे बावजूद भी ई रचना आपन से बढि के सबकर बनि गइल बा।

अंत मे इहे कहब कि डॉ. बलभद्र के ई संग्रह भोजपुरिया समाज आ लोक की संवेदना के संगीतात्मक दस्तावेज ह।

परिचय – डॉ. महेश सिंह, शिक्षक आ संपादक (‘परिवर्तन’ ई-पत्रिका) , उत्क्रमित उच्च विद्यालय, फुलची,  गांडेय, गिरिडीह, झारखण्ड 815312

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