संपादक – मनोज भावुक
बबुआ रे, ई देश-विदेश काहे बनल ?…काहे बन्हाइल बाँध सरहद के ?…दुनिया के ऊपर एके गो छत -आसमान आ एके गो जमीन-धरती। के कइलस टुकड़ा-टुकड़ा?…झगड़ा के गाछ के लगावल? के बनावल नफ़रत के किला ?… का दो, धरती माई हई। माईयो टुकी-टुकी ???
एह टुकी-टुकी में हीं सारा समस्या के जड़ बा। टुकी-टुकी में वर्चस्व के लड़ाई बा। अहंकार, शक्ति-प्रदर्शन, धोखा, गद्दारी, जमाखोरी, साजिश, सियासत सब एह टुकी-टुकी में बा। ‘ वसुधैव कुटुंबकम ‘ खाली नारा में बा आ मानवता में बानर नर से आगे निकल गइल बाड़न।
चीन के चेहरा देखीं। देखीं का, कोरोना शब्द बोलते भा सोचते चीन के क्रूर चेहरा नज़र का सामने नाचे लागता। चीन के चाल आ चक्रव्यूह के सउँसे दुनिया समझ गइल बा। तनिक विचार करीं, चीन कोरोना वायरस के संक्रमण से जुड़ल सूचना दबवलस काहे? दबवलस त दूर, अब त इहो सुने में आवता कि कोरोना वायरस के उत्पत्ति चीन के प्रयोगशाला बुहान इंस्टीच्यूट आफ वायरोलाजी में ही भइल बा। मतलब ई एगो मानव निर्मित वायरस बा। अइसन काहे कइलस चीन ?… बात उहे, टुकी-टुकी वाला बा। चीन धरती के बाकी टुकड़ा के गैर समझलस, दुश्मन समझलस, बाजार समझलस। ‘ वसुधैव कुटुंबकम’ के राज, रहस्य आ सुख ओकरा भेजा में घुसबे ना कइल।
दरअसल हमनी के प्रेम कइल छोड़ देले बानी जा। प्रेमे सब बेमारी के ईलाज बा। प्रेम रही तबे ‘ वसुधैव कुटुंबकम ‘ के रहस्य समझ में आई। प्रेम खाली आदमी के आदमी से ना… पशु, पंक्षी आ प्रकृति से भी।
त अब चिचिअइला आ छाती पिटला से का होई कि प्रकृति के हमनी के दोहन कइनी जा। ओकरा साथे अन्याय कइनी जा, ओकरे सजा मिल रहल बा। गाँव के गाँव ना समझनी जा, जंगल के जंगल ना, ओकरे सजा मिल रहल बा। गगनचुंबी टॉवर के पॉवर देखावे में संवेदना के महल खंडहर बन गइल, ओकरे सजा मिल रहल बा। जीवन से प्रेम गायब हो गइल त एह सूखल ढाँचा में ‘ स्ट्रांग इम्यून सिस्टम ‘ रहो त रहो कइसे। फेर त कोरोना डायन खातिर जिनिगी के डंसल बहुत आसान बा। ई अलग-अलग रूप में आवते रही। …
विद्वान लोग के मत बा आ इतिहासो साक्षी बा कि हर महामारी के बाद हमनी के जागेनी जा। …जागल बानी जा। जगला पर कुछ समीकरण बदलेला। कुछ मान्यता टूटेला। कुछ नया सामने आवेला। ई महामारी या त्रासदी कवनो पहिला बेर त आइल नइखे। प्लेग, ब्लैक डेथ आ स्पैनिश फ्लू के समय भी दुनिया हिल गइल रहे। ओही तरे महामारी के बाद आर्थिक संकट के खड़ा भइल भी कवनो नया नइखे। चिंता, आर्थिक संकट के साथे साथ ओह संकट से समाज में उपजे वाला विषमता आ करप्शन के बा। अपना सपना के मेहनत के कढ़ाही में रोजे पकावे वाला निम्न आ मध्य वर्ग के हालत त अउरो चिंतनीय बा।
कोरोना कवनो जाति, धरम, अमीर, गरीब के ना ह। तब्लीगी जमात के वजह से भारत में कोरोना के मरीज बढ़ल बाड़े। निःसंदेह दोषी के सजा मिले के चाहीं। बाकिर एकरा चलते हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य ना फइले के चाहीं।
सउँसे दुनिया में रोयेला आदमी त रुलाई एके जइसन होला। मानवीय अनुभूति के मानवता के आधार पर समझे के जरुरत बा। जात-पात, धर्म, भाषा, देश, क्षेत्र, सरहद के आधार पर ना। एह से, संकीर्ण राष्ट्रवाद से ऊपर उठ के मानवतावाद पर जोर देवे के होई। दुनिया के तमाम देशन के बीच निहित स्वार्थ से ऊपर उठ के एगो नया समीकरण आ संतुलन पर जोर देवे के होई। तबे मानव जाति के अस्तित्व पर से खतरा टली। अरे, जब अदिमिये ना रही त कवँची सरहद, कवँची सेना, कवँची बाज़ार, कवँची व्यापार। रही जीव तबे नू पीही घीव।
एह से अभी विश्व कल्याण के भावना से काम करे के जरुरत बा। अइसन पहल पहिलहूँ भइल बा। संयुक्त राष्ट्र, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइ एम एफ अउर विश्व बैंक … के जनम संकट काल ( द्वितीय विश्व युद्ध ) के बादे भइल बा।… एहू महामारी के बाद कुछ तब्दीली आई। वैश्विक स्तर पर कुछ नया उपाय होई। फिलहाल त घर में रहीं। लॉकडाउन के पालन करीं। ओकरा बाद रोजी-रोजगार के सोचीं। प्रधानमंत्री जी जान आ जहान दूनू के बात करत बानी। आत्मनिर्भरता के बात करत बानी। गाँव प थोड़ा सा फोकस कइल जाय। अपना जड़ आ जमीन प। जड़ से कट के फूल ना खिली। खिलबो करी त उ प्लास्टिक आ कागजे के होई। बाकी सब त समय खुद ब खुद समझा दी। समझावते बा।
ई अंक समय के दस्तावेज बा। भविष्य में जब कबो पीछे पलट के कोरोना काल के समझे के कोशिश कइल जाई त ओह समय ई अंक आज के समय के कहानी सुनाई। एह अंक में कवि, गायक, कथाकार, पत्रकार, चिकित्सक, समाजसेवी सबकर कोरोना के लेके उदगार बा, चिंता बा, चिंतन बा, सुर बा, स्वर बा, समस्या बा, समीक्षा बा। पढ़ीं। पढ़ाईं।
कोरोना के जगह अब करुणा बरिसे, एही प्रार्थना के साथ