संस्मरण
अजय कुमार पांडेय
माई होईत तब नु कुछ बोलित। ऊ त चल देले रहे आपन अंतिम जातरा पर। छन भर पहिले जे हमनी के बतकही में हुँकारी भरत रहे, उ सदा खातिर मौन हो गइल। केतना बारीक आ पलक झपकाई भर के दूरी बा जिनगी आ मौत में। पानी के बुलबुला ह जिनगी। पल भर में चमकत, चुलबुला आ इंद्रधनुषी बुलबुला दोसरे पल गायब हो जाला। बुझइबो ना करे ला कब फूट गइल ।
जिनगी केतना विविधता आ उतार-चढ़ाव से भरल रहेला आ मौत चिरनिद्रा ह, मौन-निश्चिंत। सारा दुख-तकलीफ ओरा जाला, जब जिनगी बुता जाला। राग-द्वेष, सुख-दुख, अमीरी-गरीबी आ ऊंच-नीच सब जिनगीये में होला, मृत्यु के बाद सब ओरा जाला। जाने ला सभे ई सच्चाई के लेकिन केहू माने के तैयार ना होला। दौड़ रहल बा सभे धन-वैभव आ विलासिता के अंधा दौड़ में लेकिन ई दौड़ के कौनो मतलब मायने नइखे ई केहू ना बूझे ला।
माई के जब प्राण निकलल, ऊ पूरी तरह होश में रहे। हमनी तीनो भाई ओकरा सिरहाने-गोन्थारी बइठल रनी जा। भइया ओकर कपार सहलावत रलें, छोटकू गोड़ जातत रलें आ हम बेना डोलावत रनी।
हमनी के बतकही में माई हुँकारीओ भरत रहे। माई बीच में छोटकू के टोकबो करे, ” रे, हड्डीआ चटकईबे का ? तनी हल्के हाथे गोड़वा जात।”
छोटकू हँसे लगले आ कहलें, ” टूटिये जाई त का हो जाई माई ? अब ई बूढ़ गोड़ कवना काम के ? ”
माई मुस्कुराइल आ कहलस, ” गोड़वा टूट जाई त पहिले तू ही डॉक्टर के इहाँ ले जाये के तइयारी शुरू करबs “।
क्षन भर खातिर हम बेना रख के दुआर पर गइनी। केहू आइल रहे।
अभी पांचो मिनट ना भइल रहे, तले छोटकू हड़बड़ाइल अइलें।
” भैया हो, माई त बोलते नइखे, सांसो नइखे लेत। ”
हम झटकल माई के लगे गइनी। भइया मुड़ी निहुरवले ओहितरे माई के कपार सहरावत रलें।
हम नाक के लगे हाथ ध के, सांस चलता कि ना, देखे में लागल रनी। माई के पेटपोछनु, छोटकू खाली, ” माई रे, माई, रे माई, …. छोड़ के चल गइले का ? दोहरावत रलें।
माई होईत तब नु कुछ बोलित। ऊ त चल देले रहे आपन अंतिम जातरा पर। छन भर पहिले जे हमनी के बतकही में हुँकारी भरत रहे, उ सदा खातिर मौन हो गइल।
केतना बारीक आ पलक झपकाई भर के दूरी बा जिनगी आ मौत में। पानी के बुलबुला ह जिनगी। पल भर में चमकत, चुलबुला आ इंद्रधनुषी बुलबुला दोसरे पल गायब हो जाला। बुझइबो ना करे ला कब फूट गइल ।
गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन के समझावत कहलें,
‘जातस्य हि ध्रुवो, मृत्यु ध्रुगे जन्म मृतस्य च, तस्मात परिहार्यो.., न त्वं शोचितुमर्हसि।’
अर्थात जेकर जनम भइल बा ओकर मृत्यु अवश्यंभावी ह आ जेकर मृत्यु हो गइल, ओकर जनम भी जरूर होई। ई अपरिहार्य चक्र ह।
जिनगी केतना विविधता आ उतार-चढ़ाव से भरल रहेला आ मौत चिरनिद्रा ह, मौन-निश्चिंत। सारा दुख-तकलीफ ओरा जाला, जब जिनगी बुता जाला। राग-द्वेष, सुख-दुख, अमीरी-गरीबी आ ऊंच-नीच सब जिनगीये में होला, मृत्यु के बाद सब ओरा जाला। जाने ला सभे ई सच्चाई के लेकिन केहू माने के तैयार ना होला। दौड़ रहल बा सभे धन-वैभव आ विलासिता के अंधा दौड़ में लेकिन ई दौड़ के कौनो मतलब मायने नइखे ई केहू ना बूझे ला।
कबीर कहलें बाड़न ,
” हाड़ जलै ज्यूँ लाकड़ी , केस जले ज्यूँ घास ,
सब तन जलता देखि करि , भया कबीर उदास ।
जिनगी के बहुत बड़ा सच्चाई ह शमशान घाट पर जरत देह । शमशान घाट से बड़का कौनो तिरथ ना होला आ लोग ओतहिये जाए से कतराला ।
माई जहां फुकाइल रहे उ नदी के किनारा हमारा आवे – जाए के रस्ता में बा । माई के गइला दस बरिस से ऊपर हो गइल लेकिन जब भी उ रस्ता से गुजरेलीं बुझाला , माई कहतिया , ” बाबू ठीक से जइह ।” मन करेला तनिक भर ओतहिये खड़ा रहीं आ माई से बतिआई ।
जेतना हमनी जिनगी से करीब बानी , ई ईयाद रखे के पड़ी की मृत्यु भी नियरे बा । एगो किताब के मुखपृष्ठ जिनगी ह त पिछला पृष्ठ मृत्यु । किताब जबले सीधा रखल बा सब कुछ जीवंत आ गतिमान बा , किताब के पन्ना उलटल ना कि सब थम जाला ।
जीवन के सार्थक आ उद्देश्यपूर्ण बनावे के प्रयास ही सही मायने में जीवन ह , ना त जिअत आदमी लाश के समान होला । जीवन के सोद्देश्य बनावे के जगह झूठ – साँच , जाल – फरेब , भाई से बेईमानी , बाप – मतारी के अपमान आ भौतिक लिप्सा के प्रति आसक्ति , एहि में अधिकांश लोग आपन जिनगी बिता देला । आखिर का ले के जाला केहू ? एगो सूत ले साथे ना जाला । हाड़ – मास के देह जर के राख हो जाला । सभे ई देखे ला , लेकिन समझे के केहू समझे के तैयार ना होला ।
संत लाल दास कहले बाड़न ,
” थोड़ा जीवण कारनै, मत कोई करो अनीत,
वोला ज्यों गल जावोगे, ज्यों बालू की भीत।
खूबी के बात ई बा कि बाजे ला दुनु बेरा, जनम भइला पर थरिया आ मुअला पर बैंड-बाजा। थरिया पर थाप आगमन के सूचना देला आ बैंड बाजा के साथे अंतिम बिदाई हो जाला। जनम के समय थरिया के आवाज के साथे ” केहाँ-केहाँ ” के आवाज मिल जाला जे मन में खुशी आ उल्लास भर देला लेकिन जाये के समय केतनो बैंड बाजा बजेला, आपन लोग के आँसुये निकलेला। बाजे ला दुनु बेरा, एगो खुशी आ स्वागत के ध्वनि आ दोसर दुख आ विछोह के।
वास्तव में एके सिक्का के दु गो पहलू त जिनगी आ मउअत। चित्त त जिनगी, पट त मौत, आ सिकवा पाकीटे में रहेला।
” जीवन कटना था कट गया
अच्छा कटा
बुरा कटा
यह तुम जानो
मैं तो यह समझता हूँ
कपड़ा पुराना था ,
फटना था
फट गया ।”
कवि नीरज