बिसरइहो जनि बालम हमार सुधिया

February 13, 2023
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ज्ञानेश उपाध्याय

किताब : फुलसुंघी

विधा : भोजपुरी उपन्यास

 उपन्यासकार: पाण्डेय कपिल

प्रकाशक : भोजपुरी संस्थान

प्रकाशन वर्ष : 1977

पृष्ठ संख्या : 88

आपन माटी से उपजल सब्द जब चलचित्र बुने लागेला, तब ‘फुलसुंघी’लेखा सुघढ़ रचना संसार के सोझा अइसे आवेला, जइसे छठ के भोर वाला सुरुज देव। भोजपुरी में भी किसिम-किसिम के माटी बा, बाकी ‘फुलसुंघी’ के माटी में घाघरा आ गंगा के पनिया तनी ढेरे बहेला। एही पानी-बानी में महान कलाकार भिखारी ठाकुर आ महान गीतकार महेन्दर मिसिर सनाइल रहे लोग। ‘फुलसुंघी’के रचयिता पाण्डेय कपिल भी एही माटी के लाल हउवन, त फुलसुंघी में सगरे एह माटी के रंग-ढंग निखर उठल बा।

ई मान लिहल जाला कि 1977 में पहिलका बेर छपल ‘फुलसुंघी’ परसिध गीतकार महेन्दर मिसिर पर लिखल उपन्यास ह, बाकिर पाण्डेय कपिल त साफे लिख देले बाड़न, ‘एह उपन्यास के कथावस्तु कवनो इतिहास ना ह’। इहां एही माटी के एगो अउरी रचयिता रामनाथ पाण्डेय के लिखल आ 1994 में छपल ‘महेन्दर मिसिर’ उपन्यास के चरचा बेजांय ना होई। रामनाथ पाण्डेय के ‘महेन्दर मिसिर’ 200 से ज्यादा पेज पर पसरल एगो लमहर रचना ह आ ‘फुलसुंघी’ पच्चासिए पेज के कसल उपन्यास ह। सब्द, वाक्य, खिस्सा सांगोपांग कसल बा। तुलना कइल जाव, त ‘महेन्दर मिसिर’ उपन्यास में परमुख पात्र के चरित चमकावे आ ओकर कमजोरियन के छुपाए के खूबे परयास भइल बा। ‘फुलसुंघी’ में अइसन कवनो चेष्टा नइखे भइल। अफसोसे बा, महेन्दर मिसिर पर प्रामाणिक काज भोजपुरी में अबले सोझा नइखे आइल। खइर, ‘फुलसुंघी’ में महेन्दर मिसिर के दूध के दूध आ पानी के पानी कइल गइल बा। महेन्दर मिसिर होइहन त अइसने होइहन जइसन ‘फुलसुंघी’ में बाड़न। एह उपन्यास पढ़ला के बाद ई कहे में कवनो हरजा नइखे कि हमनी के जिनगी ना पूरा ऊजर होला, ना पूरा करिया। जिनगी भुअर होला आ ‘फुलसुंघी’ में उहे भुअर जिनगी संवार के परोसाइल बा।

एह उपन्यास में खाली महेन्दर बाबू नइखन। अंग्रेज रिविल साहब आ हलिवंत बाबू से उपन्यास शुरू होखला के बाद महेन्दर मिसिर आ ढेला बाई के लगे सिमट आवेला। उपन्यास शुरुये में आपन मोहपाश में बान्ह लेवेला। पहिलका पैरा एतना छबीला होके आवेला कि एगो अंदाजा हो जाला कि आगे तमाशा जोरदार होई। शुरुआत देखीं, ‘नाम ढेला हो गइल रहे। रूप के रानी आ नाच-गान के महरानी। कवनो महफिल में ढेला चल गइल आ असली नाम छूट गइल, हो गइल ढेला। तबला पर थिरकत तबलची के अंगुरी के बेग बढ़ते जाय, आ लहँगा अइसन लहराए जइसे समुन्दर में चकोह पड़ गइल होखे। गीत मुँह से फूटे त बुझाय जे बंसवरिए बंसी बन गइल होखे आ हवा ओकरा के अपने से बजा जात होखे। ढेला जइसे मेनका होखे भा उर्वशी होखे। अम्बपाली के इलाका के मुख्य नगर मुजफ्फरपुर के रहेवाली गणिका, जइसे अम्बपाली होखे।’

‘फुलसुंघी’ में अंग्रेजन के समय के छपरा आ रिविलगंज बा। शीतलपुर गांव भी आवेला, जहवां से हलिवंत बाबू आइल रहलन। धियान रहे कि पाण्डेय कपिल भी शीतलपुर के जन्मल रहलन। उपन्यास कभी शीतलपुर ना जाला, शीतलपुर जरूर बार-बार उपन्यास में चहुंप जाला। ठीक अइसे ही पंजाब, दिल्ली, कोलकाता भी कथा में हाजिर हो जाला। ई खास ह कि ई उपन्यास आपन जमीन कभी ना छोड़े। आपन पूरा तेजी आ साज-संवार के संघे झटक के खिस्सा दर खिस्सा, पात्र दर पात्र सबकरा के लेले बढ़ेला। रिविल साहब आ हलिवंत सहाय के लगाव, अधबूढ़ बाकिर मन से जवान रसिक बाबू हलिवंत सहाय आ नाचे-गावे वाली ढेलाबाई के अध-बैध जुड़ाव, महेन्दर मिसिर आ ढेला बाई के पबित्तर संगीत-गीत संगत, ढेलाबाई उर्फ गुलजारी बाई आ उनकर पोता-बेटा समान रामप्रकाश सहाय के ममता भरल जुड़ाव पर मन मोहाइल रह जाला।

भोजपुरिया जमाना के मीन-मेख बहुते पियार से ई उपन्यास अनायासे निकलले बा। विस्थापनो के दरद भी खूब उमड़ल बा। बाहर देस जात पोता-लइका नीअन रामप्रकाश से गुलजारी बाई कह तारी, ‘जल्दी अइह बबुआ।’ आ बबुआ तब लउटता, जब गुलजारी बाई खाट पकड़ लेले बाड़ी। बड़की लालकोठी अइसे उजाड़ हो गइल बिया, जइसे गांव में लोग के छूटल घर-दुआर हो जाला। जहवां केहू बूढ़ बा, इंतजार करत दिनवा गीनता। जे पीछे छूट जाला, ऊहे नू ढेर जानेला बिछोह के दरद। बाहर जाय वाला लोग त अक्सर भूलिये जाला, फेर ना लउटे।

उपन्यास में पूरा हिरदय दुलार से तब उमड़ आवेला, जब रामप्रकाश जेल से छूटल महेन्दर मिसिर के ले के चहुंपलन। गुलजारी बाई बोले लगली, ‘आ गइल बबुआ? मिसिर जी रउओ आ गइनीं? भाग हमार! हम जिनगी के जिनगी लेखा जी लेले बानीं! अब हमरा जाय के बेरा आ गइल बा! हम अपना मउअतो के ओही बहादुरी से अपनाये के चाहत बानीं! राउर गीत सुन के हम जीये के सिखले रहीं! अब राउर गीत सुन के मरे के चाहत बानी..।’

आ महेन्दर मिसिर के गला से गीत के एगो सोता फूट चलल –

‘माया के नगरिया में लागल बा बजरिया, ए सोहागिन

चीझवा बिकाला अनमोल, ए सोहागिन।’

महेन्दर मिसिर सचहुं एगो बिचित्रे इनसान रहले। नकली नोट छापे में धराके जेल गइल रहले। गवनिया-नचनिया लोग के बीच ऊ खूब पूजल जात रहले। उनकर लिखल गीत के गावे वाला खूबे गाये आ नाचे वाला खूबे नाचे। उपन्यास में ओह समय के तवायफ, शासक, धनिक-सभरांत आ गीत-संगीत बिरादरी के ताना-बाना जेतना चमकल बा ओतने अझुराइल बा।

एगो सवाल इहो उठेला, फुलसुंघी का है? ई ढेला बाई के गढ़ल एगो रूपक ह। जब हलिवंत सहाय के दिल लूटे आ लुटाए खातिर उमड़ल, त ढेला बाई उनकरा के समझावत कहतारी, ‘बाबू साहेब! फुलसुंघी के जानीले नू? ऊ  पिंजड़ा में ना पोसा सके। ऊ  एगो फूल से रस खींच के चल देले दोसरा फूल का ओर। हम त तवायफ के जात हईं। हमरो काम फुलसुंघी लेखा एगो जेब से पइसा खींच के दोसरा जेब का ओर चल दिहल ह।…’

बाकिर उपन्यास के ई बरियार कामयाबी ह कि हलिवंत सहाय के पिंजड़ा सुधरत आ जागल समाज साबित हो जाला, जहां फुलसुंघी ढेला बाई मान-मरजाद संघे आपन जिनगी बिता देवेली। मतलब, कवनो बुराई समाजे पैदा करेला आ समाजे ओकरा के सुधारेला, अपना में मिला लेवेला।

भोजपुरी समाज के लोगवो फुलसुंघी जइसन हो गइल बा, आवता, सूंघता आ फेर चल देता। मतलब, भोजपुरी क्षेत्र के सुधारेके पड़ी, पिंजड़ा अइसन नीमन-चीकन बनावे के पड़ी कि कौन फुलसुंघी के दर-दर भटके के ना पड़ो।

कवनो अचरज नइखे कि ‘फुलसुंघी’ भोजपुरी के पहिला उपन्यास ह, जेकर अंगे्रजी में तर्जुमा भइल बा। अनुवादक गौतम चौबे के जेतना तारीफ कइल जाओ, कम बा। अंग्रेजी तक चहुंपल पाण्डेय कपिल के मीठ भाषा-बोली के कवनो मुकाबला नइखे, मिसाल देखीं, ‘झुलफुलाह भइल। गाछ-बिरीछ, गाँव-जवार जइसे चद्दर ओढ़ के अगल-बगल में खड़ा हो गइले। चिरई चह-चह चहके लगली – बिसरइहो जनि बालम हमार सुधिया।’

परिचय- ज्ञानेश उपाध्याय, फीचर संपादक, हिन्दुस्तान

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