राहुल सांकृत्यायनः भोजपुरी साहित्य के गौरव

June 8, 2020
धरोहर
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लेखक : प्रो. राजगृह सिंह

बिहार के एकमा-मांझी के धरती ढेर उर्वर आ ऐतिहासिक हऽ। संत-शिरोमणि धरनी दास के जन्मभूमि मांझी के इतिहास बहुते पुरान बा। इहां गढ़ के खोदाई में जवनपुरान सामान मिलल बा, उ प्रमाणित करता कि ई गढ़ बुद्धकाल से भी पहिले के हऽ। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के पुरातत्त्व विभाग तऽ इहां ले प्रमाणित कइले बा कि मांझी प्रागैतिहासिक स्थान हऽ। ओही तरे एकमा के परसागढ़ के प्राचीनता भी असंदिग्ध बा। ‘परसागढ़’ पुरान संत प्रसादी बाबा का नाम पर बा। परसागढ़ के मठो बहुते प्राचीन हऽ। एही पुरान परंपरा में जगत विख्यात विद्वान प्रसिद्ध घुमक्कड़ महापंडित राहुल सांकृत्यायन के नाम ‘बाबा रामोदार दास’ संज्ञा से जुड़ल बा। बाबा के जनम भलहीं उत्तर प्रदेश (आजमगढ़) में भइल होखे बाकिर उनका के विश्व प्रसिद्ध व्यक्ति एकमे-पारसगढ़ बनवलस। बाबा के कर्मक्षेत्र आ ज्ञानक्षेत्र इहे रहल बा। एह जगह का लोग से आ एह स्थान से उनका एतना स्नेह रहे कि स्मृति भंग भइलो पऽ एह जगह आ पुरान साथी सब के बार-बार नाम लेस। ई बात कमला जी (बाबा के पत्नी)1993 का एकमा परसागढ़ के यात्रा में हमनी से बतावत रहली।

केदार पाण्डेय के रामोदार दास रूप में परसागढ़ आगमन

महापंडित राहुल सांकृत्यायन के जिनगी के आधार एही एकमा परसागढ़ से शुरू भइल। बाबा लक्ष्मण दास महंथ (परसागढ़ मठ) चिंतित रहत रहनी, काहे कि युवा साधु रामोदार दास के मृत्यु हो चुकल रहे। उनका नाम से मठ के जमीन-जायदाद रहे। युवा साधु के महंथी देत समय बाबू लोग (जमींदार, परसागढ़) नाखुश हो गइल रहे। मठ के जमीन-जायदाद पर बाबू लोग मुकदमा ठोक देले रहे। मठ के जमीन-जायदाद के सुरक्षा खातिर एगो अइसन युवक के तलाश रहे, जे तेज-तर्रार अउर महंथी के काबिल होखे।

नयका मंदिर खातिर पत्थर खरीदे बाबा लक्ष्मण दास महंथ वाराणसी गइल रहनी। ओहिजा के महंथ के एगो छावनी रहे, जवना में संस्कृत के अध्यापन भी होत रहे। अचानके बाबा लक्ष्मण दास के धेयान एगो अइसन 19 वर्षीय युवक पऽ गइल जवन ओहिजा संस्कृत पढ़े आइल रहे अउर ओकरा साधु बने के मनो रहे। ऊ पंडित राजकुमार जी के माध्यम से आइल रहे। ओह युवक के नाव केदार पाण्डेय रहे अउरउ आजमगढ़ के पंदाहा के रहे वाला रहे। बाबा लक्ष्मण दास के संपर्क में आ के अउर पंडित रामकुमार के कहला पऽ केदार पाण्डेय छपरा परसागढ़ चले खातिर तइयार हो गइले। महंत जी केदार पाण्डेय के छपरा लेके अइनी आ 2 दिन रुक के तीसरा दिने एकमा होत परसागढ़ पहुंचनी। केदार पाण्डेय के मठ में ओही चबूतरा प बइठावल गइल, जवना चबूतरा पऽ रामोदार दास बइठत रहनी। एकादशी, 1912 के केदार पाण्डेय के नाम बदलके रामोदर दास कऽ दिहल गइल। शुभ मुहूर्त में वैदिक रीति से उनकर नामकरण संस्कार कइल गइल। सनातनी पद्धति के अनुरूपे उन्हका के कंठी-माला दिहल गइल। छापा लगावल गइल अउर झूल पहिनल अनिवार्य कऽ दिहल गइल। राम मंत्र से उन्हका के दीक्षा दिहल गइल। उन्हका से कहल गइल कि आज से रउरा रामोदार दास साधु हो गइनी। जमीन-जायदाद रउरे नाम से बा। ओकर देखभाल करे के होई अउर मुकदमा के सगरी कागजात रउरे देखे के होई।

परसागढ़ मठ के जिम्मेवारी

बाबा लक्ष्मण दास के बात सुनि के केदार पाण्डेय जी के लागल कि ऊ कहां आ के फंस गइलन। हालांकि जमीन-जायदाद अउर मठ के मिलकियत देखे के भार त ऊ ले लेलन, बाकिर उनका लागल कि उनका अपना सोच के उल्टा एहिजा रहे के पड़ी। उनकर शिक्षा ना हो पाई। महंथ जी  रामोदार दास के आश्वस्त कइनी कि उनकर पढ़ाई-लिखाई के पूरा व्यवस्था होई। खाली उहां के जमीन-जायदाद के रक्षा करे के बा। रामोदार दास के बड़ा आराम आ चैन से नौकर-चाकर के बीच में रहे के पड़ल। राजकुमार के जइसन उनकर देखभाल शुरू भइल। रामोदार दास जमीन-जायदाद के सुरक्षा के जिम्मा त ले लेहलन बाकिर ऊ बंध के ओहिजा रहे के ना चाहत रहन। एह से उहां से भाग के दक्षिण चल गइलन मठ से संबंधित स्थानन के भ्रमण करे लगलन। महंथ लक्ष्मण दास के निहोरा पर ऊ 1913, 1914, 1917 अउर 1918 में परसागढ़ आवत रहलन अउर मुकदमा के देखभाल करत रहलन। देश के पूरा तीर्थ, मठ से जुड़ल स्थानन के घूमत रहलन। आगरा में जाके 1915 में आर्य समाजी हो गइलन। एक दिन महंथ जी के तार पढ़के ऊ सर्वे के काम से मठ के जमीन के देखभाल करे खातिर परसा आ गइलन। ई सोचत कि हम त अब आर्य समाजी हईं,  वैष्णव मठ से हमार का संबंध? महंथ जी के विस्तृत पत्र पढ़ के अउर उनकर बूढ़ारी के कारण मठ में लवट आइल रहन अउर मठ के संपत्ति के देखभाल करे लगलन। 1917- 18 के बीच महंथ जी कहनी – अब त हमार जिनगी के कवनो ठिकाना नइखे, रामोदार के नाम लिख- पढ़ देवे के चाहीं। रामोदार दास कहनी कि हम महंथ हरगिज ना बनब। हम मठ के संपत्ति के रक्षा खातिर आ गइल बानी। हमरा पढ़े के बा अउर देश के काम करे के बा। अगर रउवा महंत बनावे के बा तऽ दोसर साधु बरदराज जी के बनाईं। ई कह के फेर ओहिजा से चल गइनी। 1918 के बाद उहां के लगातार घूमते रहनी बाकिर उहां का ईयाद में हमेशा परसा मठ बनल रहल। महंथी उहां के स्वीकार ना कइनी बाकिर अपना प्रतिज्ञा से बंधल रहनी। महंथ लक्ष्मण दास के मर गइला के बाद मठ में आइल ना के बराबर हो गइल।

शुरुआती जिनगी

09 अप्रैल 1893 ई. में आजमगढ़ के पन्दहा गांव में बाबा राहुल सांकृत्यायन के जनम गोबर्द्धन पाण्डेय आ कुलवन्ती देवी के ब्राम्हण कुल में भइल। बाबा के बचपन के नाम केदार पाण्डेय रहे। लालन-पालन आ पढ़ाई कन्नौल गांव के नाना राम शरण पाठक के देखरेख में 16 साल के उमिर तक चलल। रानी का सराय गांव के एगो छोट मदरसा में बाबा उर्दू के शिक्षा लिहलन। नाना अवकाशभोगी पल्टनिहा रहलन, जेकरा देश-विदेश के घुमला के अनुभव से बाबा काफी प्रभावित रहस। 11 साल के उमिर में 8 साल के कन्या से बाबा के बिआह कऽ दीहल गइल। पुरान विचार के परिवार में घर-गृहस्थी संभाले खातिर एही तरे लोग शादी-बिआह कर देत रहे। बाबा का मन में समाज का प्रति विद्रोह जागल आ उ 16 साल के उमिर में घर बार छोड़ के बनारस भाग अइलन। इहां दयानंद हाई स्कूल में संस्कृत के शिक्षा लेत रहलन एही बीच उनकर मुलाकात लक्ष्मण बाबा से हो गइल। लक्ष्मण बाबा एह अनाथ ब्राह्मण बाल के मेघा के पहचान गइलन आ अपना साथे ले के परसागढ़ मठ चल अइलन।

सार्वजनिक जिनगी

1921 में बिहार अइला के बाद गांधीजी के असहयोग आंदोलन के आकर्षण बढ़ल। एकमा में सौभाग्य से उनकर अनेक साथी लोग एह आंदोलन से जुड़ल रहे। प्रभुनाथ सिंह, गिरीश तिवारी, लक्ष्मी नारायण सिंह, हरिहर, मधुसूदन, राम बहादुर, छबीला, बासुदेव जइसन एक दर्जन साथी 24 घंटा राष्ट्रीय काम में लागल रहे लोग। रामोदार दास एह साथियन के लेके आंदोलन के अउर जागृति प्रदान कइनी। गांधीजी के एकमा में बोलावे के श्रेय बाबा के रहे। एकमा में गांधी विद्यालय खोलल गइल। करघा आ चरखो रखाइल। विद्यालय में पढ़ावे वालन में राम उदार, रामबहादुर आदि लोग रहे। महात्मा गांधी के जय, भारत माता की जय आदि नारा के साथ जुलूस निकाल के आंदोलन के आगे बढ़ावल गइल। आस-पास के इलाकन में सभा कइल जाव। पंडित नगनारायण तिवारी एह सभ सभा में शामिल होखीं। उनकरे गीत से सभा शुरू होत रहे। विदेशी चीजन के बहिष्कार होखे आ देशी चीजन के अपनावल जाव। ई आंदोलन पुरनका छपरा जिला (छपरा, सीवान, गोपालगंज) के कोना-कोना में फइल गइल। एह असहयोग आंदोलन के केंद्र एकमे में रहे। रामोदार दास के नाम से गिरफ्तारी वारंट निकलल। तब तक ऊ कांग्रेस कमेटी छपरा के सचिव हो गइल रहलन। एकमा ओकर मुख्यालय रहे। उनका के जेल भेजल गइल बक्सर में 6 महीना खातिर। 6 महीना जेल के बाद फेरू ऊ कांग्रेस के मंत्री होके सिसवन, एकमा, महाराजगंज, कुचायकोट, मशरख आदि स्थानन के भ्रमण करे लगलें। रूद्र नारायण, महेंद्र नाथ सिंह आदि लोग साथ देहल शुरू कइल। मथुरा बाबू, गोरखनाथ त्रिवेदी, हरि नंदन सहाय उनकरा साथे आ गइल लोग। ब्रजकिशोर बाबू, राजेंद्र बाबू, देशबंधु दास, मजहरूल हक साहब आदि लोगन के सहयोग मिलल। नतीजतन फेर रामोदार दास पकड़ा के 1923 में हजारीबाग सेंट्रल जेल में चल गइलन। ओहिजा ऊ 1923-25 तक रहलन। 18 अप्रैल 1925 के जेल से छूटलन। 1925 में असहयोग आंदोलन कमजोर पड़े लागल। 1926 में एह आंदोलन के काफी कमजोर पड़ गइला से उनकर दिल बइठ गइल। ऊ निराश हो गइलन।

1927 ई. में डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चुनाव में एकमा से श्री लक्ष्मी नारायण अउर बाबू शिवजी (राजदेव प्रसाद, नारायण सिंह) परसा के जमींदार के बीच झड़प हो गइल। उनका ओह झड़प में अपमान भी सहे के पड़ल। 30 मार्च 1927 के ऊ उनकर अंतिम बार परसा के दर्शन रहे। ओही दिन राति के ऊ प्रतिज्ञा लेहलन कि जबले जमींदारी प्रथा रही तबले ऊ परसा में गोड़ ना रखिहें। 2 मई 1927 के उनका लंका जाए के तय भइल। ओह असहयोग के साथी लोगन में से कुछ लोग आजादी मिलला प देश के ऊंचा-ऊंचा पद प जइसे राष्ट्रपति, मंत्री, सांसद अउर विधायक भइल।

ऊ परसागढ़ छोड़ के, छपरा, सिवान, एकमा आदि जगह प  मउका-कु-मउका आवत रहलन। 1939 में अमवारी के किसान आंदोलन सहजानंद सरस्वती के बतावल रास्ता के ही आंदोलन रहे। ओकर अगुआ राहुल सांकृत्यायन ही रहलन। ऊ एह आंदोलन में पिटा गइलन आ उनका जेलो  जाए के पड़ल। असहयोग आंदोलन के दौर में 1923 के आस-पास बाबा के हजारीबाग सेंट्रल जेल जाये के पड़ल रहे, जहां मार्क्सवाद से प्रभावित पुस्तक ‘बाइसवीं सदी’ लिखलन। बाइसवीं सदी में रामराज्य से मिलत-जुलत कल्पना साम्यवाद के अंतिम फलाफल के रूप में कइल गइल बा।

बाबा 1927 में संस्कृत के अध्यापक होके लंका गइलन आ उहां 1928 में उनका ‘त्रिपिटिकाचार्य’ के उपाधी मिलल। भारत लौटला पर 1928 में काशी के पंडित लोग उनका के ‘महापंडित’ के उपाधी से सम्मानित कइल। 30 जुलाई 1930 में बाबा आर्य समाज आ कांग्रेस राजनीति के विचार त्याग के बौद्ध भिक्षु बन गइलन । एह उपलक्ष में उ आपन नाम बदल के ‘राहुल सांकृत्यायन’ रख लेहलन। बुद्धपुत्र ‘राहुल’ आ गोत्र ‘सांकृत्यायन’ मिल के राहुल सांकृत्यायन हो गइल। तब से दुनिया में इहे नाम प्रचलित भइल।

1932 में बौद्धधर्म के प्रचार खातिर लंका से लंदन गइलन। यूरोप के यात्रा कके 1933 में लद्दाख लौट के हिमालय, तिब्बत आ मध्य एशिया के यात्रा कइलन। तिब्बत से कई सौ के संख्या में संस्कृत, पाली, प्राकृत आ अपभ्रंश के पाण्डुलिपि लेके अइलन जवन पटना संग्रहालय में सुरक्षित बा। 1937 में लेलिन ग्राड (रूस) में प्राचीन भाषा-संस्थान के अध्यापक बन के गइलन आ संस्थान के सचिव एलेना (लोला) से गंधर्व विवाह कर लीलहन। ई इनकर विवशता रहे। 1939 में लौट के भारत अइलन आ सहजानंद सरस्वती का किसान आंदोलन का साथे जुट गइलन। 1939 में छपरा जिला (आज सिवान जिला) के अमबारी में जमींदार के खिलाफ भारत के पहिलका किसान आंदोलन के नेतृत्व कइलन जवना खातिर उनका लाठी, भाला आ जेल सभ मिलल। 1934 का बिहार भूकंप में राहुल जी काफी जी-जान से लोग के मदद कइले रहस। 1942 का आंदोलन में त राहुल जी भाग ना लेहलन बाकिर देश के आजादी खातिर अपना रचना का माध्यम से अनेक काम कइलन। एशिया, यूरोप के अनेक देश के बार-बार यात्रा कके अपना अनुभव के लाभ लोग के देत रहलन। 24 माह फेर रूस रह के 1949 में राहुल जी भारत लौटलन। 1942 का आस-पास अपना निजी सचिव ‘कमला जी’ के धर्मपत्नी  का रूप में स्वीकार कइलन। कमलाजी के सम्पूर्ण जीवन के तइयारी में राहुल जी के हाथ बा। राहुल जी के पुत्रजेता जी आ पुत्री जमा जी आ खुद कमलाजी राहुल जी के विविध विचार के प्रचार में जुटल बा लोग।

राहुल जी स्वतंत्र आ स्वाभिमानी रहस। साम्यवाद में उनका आस्था रहे बाकिर हिन्दी राष्ट्रभाषा बने, एह मुद्दा पर उ 1948 से 1958 तक पार्टी (साम्यवादी) से अलग रहलन।  हिन्दी के उनकर सेवा अपूर्व बा। सैकड़ो ग्रंथ कहानी, उपन्यास, मालावृत्त, इतिहास, शोधग्रंथ आदि हिन्दी में लिख के एह भाषा आ साहित्य के सम्पन्न कइलन। 1959 से 1961 तक लंका के  विद्यालंकार विश्व विद्यालय में दर्शन विभाग के अध्यक्ष-अध्यापक रहलन आ उहे विश्वविद्यालय उनका के डी. लिट् के उपाधि देहलस।

14 अप्रैल 1963 में उनके पार्थिव शरीर सदा खातिर एह दुनिया से चल गइल बाकिर राहुल जी के यशस्वी शरीर अमर बा। जवना देश में राहुल जी पैदा भइलन आ विश्व में जे देश के नाम फइलवलन ओह अमर विभूति के मरणोपरांत भारत सरकार से ‘पद्मभूषण’ के उपाधि मिलल। महान आत्मा के इहे फल मिलेला।

राहुल जी के बहुविध स्वरूप

राहुल जी बहुभाषा विद् रहस। उनका अनेक भाषा पर अधिकार रहे। अनेक भाषा के रचना करे  के क्षमता उ रखत रहस बाकिर हिन्दी आ भोजपुरी से उनका मोह रहे। भोजपुरी में उ आठ गो नाटक आ कुछ फुटकर निबंध लिखलन। दुर्भाग्यवश उनकर लिखल खाली तीन गो नाटक (मेहरारूअन के दुरदसा, नइकी दुनिया आ जोंक) उपलब्ध बा। अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन पत्रिका में ई तीनों नाटक के प्रकाशन भइल बा। संस्कृत, पाली, प्राकृत से लेके हिन्दी भोजपुरी तक के दुनिया में राहुल जी समान विचार रखेवाला विद्वान रहस। लोकभाषा के विकास पर उनकर काफी जोर रहे। जहां जास उहें भाषा सीख लेस आ ओही में आपन विचार प्रचार शुरू कर देस। राहुल जी अद्भूत मस्तिष्क वाला व्यक्ति रहस। उनकर लेखन कार्य विचित्र ढंग से चलत रहे। उनका साथे बराबर टाइपिस्ट रहत रहे आ उनकर बोली हर वाची टाइप होत रहे। अइसन विचार आ चिन्तन के धनी आदमी संसार में दुर्लभ बा।

राहुल जी के जीवन के बहुविध स्वरूप मिलेला बाकिर उनका समूचा जीवन के चार गो रूप के विशेष महत्वपूर्ण बा।  पहिला वैष्णव साधु के रूप, दोसरा-आर्य समाजी रूप, तीसरा-बौद्ध भिक्षु रूप आ चउथा-साम्यवादी रूप। राहुल जी के विकास में उनकर बौद्ध आ साम्यवादी रूप ज्यादे महत्वपूर्ण बा। अइसे कांग्रेस सेवक के राजनीति के रूप में भी उ कम आकर्षक नइखन। एक साथे साधु, साहित्यिक, राजनीतिक, घुम्मकड़ शोधकर्त्ता आदि के मेल एक व्यक्ति में देखे के होखे त राहुल  सांकृत्यायन में देख ली। ई रूप संसार में कवनो अउर व्यक्ति में ना मिली। अइसन महामानव सांचो पूज्य होलन।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन के सच्चा कर्मभूमि बिहार के सारण जिला ही रहे। असहयोग आन्दोलन से ले के किसान आन्दोलन तक के शुरुआत उ सारणे जिला से कइलन। परसागढ़ के जमींदार का खिलाफ ई पहिलका आन्दोलन 1928 के आस-पास शुरू कइले रहस जवना में उनका काफी अपमान मिलल रहे। जमींदार का व्यवहार से उ क्षुब्ध हो के भीष्म प्रतिज्ञा कइले रहस कि जब तक जमींदारी प्रथा के अंत ना होई हम एकमा-परसागढ़ में गोड़ ना राखब। एकर उ निर्वाहो कइलन। छपरा-सीवान आवस बाकिर एकमा ना उतरस। जब जमींदारी के अंत हो गइल त 1956 में राहुल जी के प्रतिज्ञा टूटल आ उ परसागढ़-एकमा अइलन। घर-घर घुम के पुरान साथी लोग से मिललन आ कई गो बैठको कइलन। राहुल जी के दर्शन के सौभाग्य 1956 में हमरो मिलल रहे जब उ एकमा में एगो सभा मंच से बोलत रहस। ओह लंबा, छरहरा, गौर, सौम्य मूर्त्ति में एगो विचित्र आकर्षण मिलल जवन आजो प्रेरणा के स्रोत बन के श्रद्धा सुमन अर्पित करे खातिर विवश कइले रहेला।

( नंदलाल सिंह डिग्री कॉलेज से अवकाश प्राप्त  प्रोफेसर अउर हिंदी विभागाध्यक्ष राजगृह सिंह हिंदी-भोजपुरी  के वरिष्ठ कथाकार-निबंधकार आ समाजसेवी हईं ।)

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