संसार एगो रंगमंच ह आ हमनी के कठपुतली

October 18, 2022
आवरण कथा
0

आवरण कथा

ज्योत्स्ना प्रसाद

मृत्यु एक महायात्रा ह। महा प्रस्थान ह। महा निद्रा ह। जइसे हम काम कइला के बाद सैर-सपाटा पर जाइले। वइसे ही हम मृत्यु के बाद अनन्त जीवन-सागर में गोता लगावे खातिर एक मनोरम प्रदेश के महायात्रा पर निकल जाइले। आज हम ओकर मात्र कल्पना भर कर सकेनी; अपना अनुभव के एहसास ना करा सकेनी। काहेकि हमनी के अपना पूर्व जन्म के कुदरती रूप से स्मरण ना रहेला।

जीवन-मृत्यु के रहस्य के सुलझावे में हमरा दृष्टि से गीता जइसन संसार में दोसर ग्रंथ नइखे। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के त मूल उद्देश्य ही कर्तव्य से भीत अर्जुन के कर्तव्य के मार्ग पर ले आवल बा। उनका के जीवन-मृत्यु, ज्ञान-अज्ञान, भक्ति आ कर्मयोग के मर्म के समझावल बा। जीवन से जुड़ल सदैव मृत्यु के अनिवार्यता बतावल बा। ताकि ई बात अर्जुन के समझ में आ जाय कि केहू के मृत्यु पर शोक कइल अनुचित बा।

 जीवन के परम लक्ष्य के प्राप्ति खातिर हमरा जन्म-मरण के सोपान से होके ही गुजरे के पड़ेला। मरण के अर्थ भइल वर्तमान सोपान से आगे के सोपान पर पहुँचे खातिर पैर उठावल। वइसे ही जन्म के अर्थ भइल सामने के सोपान के आधार लेके ऊपर पहुँचे के तैयारी।

जेतना दिन ले हम स्वर्ग में रहेनी हमरा सुकर्म के ओही एकाउंट में से क्रेडिट हमार कर्म-फल धीरे-धीरे डेविट होत रहेला। फेर एक दिन जब हमार क्रेडिट- बाइलेंस शून्य हो जाला तब स्वर्ग से हम चेक आउट क जाइले। अइसहीं हमार बुरा कर्म हमनी के नर्क के रास्ता दिखा देला। जब उहाँ भी हमरा नर्क के कॉलम में जे बुराई के एकाउंट के बैलेंस बा ऊ जब डेविड होत-होत शून्य रह जाला तब हमरा ओह नर्क से भी छुटकारा मिल जाला आ हम फेर से एह संसार-चक्र के आवा-गमन (जन्म-मृत्यु) के क्रम में शामिल हो जाइले। इहे हमरा अनुसार स्वर्ग-नर्क आ जीवन-मृत्यु के पहेली ह।

संसार एगो रंगमंच ह आ हमनी के एह रंगमंच के कलाकार हईं सन। ईश्वर एह संसार के नियंता हउअन। चाहे ई कह लीं कि ईश्वर ही एह रंगमंच के सूत्रधार हउअन आ हमनी के उनका हाथ के कठपुतली हईं सन। एह से हमनी के एह धरती पर जवना भूमिका में भेजल गइल बा, अपना ओही भूमिका में खुश रहे के बा आ अपना दायित्व के बखूबी निभावत, एह दुनिया से विदा भी ले लेबे के बा। काहेकि जे जन्म लेहले बा ओकर मृत्यु निश्चित बा आ मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी निश्चित बा। एह से हमनी के अपना कर्तव्य-पालन से आपन मुख ना मोड़े के चाहीं। ई कुदरत के नियम ह। कुदरत के एह नियम से हमनी के भाग ना सकेनी सन, आ ना ही खिलवाड़ ही कर सकेनी सन। एह से, हमनी के अपना केहू प्रियजन के मरला पर भी शोक ना करे के चाहीं। काहेकि मृत्यु केहू के जीवन के अंत ही ना ह, बल्कि नवजीवन के बुनियाद भी ह। एही से रवीन्द्रनाथ टैगोर भी कहतारन- “मृत्यु का अर्थ प्रकाश का बुझ जाना नहीं है; इसका अर्थ सिर्फ दिए का बुझना है, क्योंकि सवेरा होने वाला है।”

जीवन-मृत्यु के रहस्य के सुलझावे में हमरा दृष्टि से गीता जइसन संसार में दोसर ग्रंथ नइखे। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के त मूल उद्देश्य ही कर्तव्य से भीत अर्जुन के कर्तव्य के मार्ग पर ले आवल बा। उनका के जीवन-मृत्यु, ज्ञान-अज्ञान, भक्ति आ कर्मयोग के मर्म के समझावल बा। जीवन से जुड़ल सदैव मृत्यु के अनिवार्यता बतावल बा। ताकि ई बात अर्जुन के समझ में आ जाय कि केहू के मृत्यु पर शोक कइल अनुचित बा। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के द्वितीय अध्याय अर्थात ‘सांख्ययोग’ के श्लोक संख्या- 11-30 तक में ही ना बल्कि ई पूरा अध्याय ही एक तरह से समर्पित बा आत्मा, शरीर, मृत्यु, आ एकरा बीच के आपसी संबंध पर। एह से एह अध्याय में विशेष रूप से एही पर चर्चा कइल गइल बा। गीता में एह बात के बहुत ही बढ़िया तरह से समझावल बा कि आत्मा कवनो काल में भी ना जन्मे ले, ना मरेले आ ना ही कभी उत्पन्न होले। कारण ई अजन्मा हिय, नित्य हिय, सनातन आ पुरातन हिय। ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में एह बात के अउर स्पष्ट करत ई कहल गइल बा कि आत्मा के ना ही शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड कइल जा सकेला; अग्नि द्वारा जलावल जा सकेला; जल द्वारा भिगावल जा सकेला आ ना ही वायु द्वारा सुखावल ही जा सकेला-

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।”

काहेकि शरीर मर जाला बाकिर आत्मा ना मरे। ऊ अमर रहेले। एह बात के गीता के कई श्लोकन में कई तरह से समझावल गइल बा। जवना से लोगन के परमात्मा के ज्ञान के साथे-साथे आत्मा के ज्ञान आ सृष्टि के विधान के ज्ञान भी स्पष्ट हो जाय। गीता में कर्मयोग के बहुत महत्त्व देहल गइल बा। गीता से हमरा ई शिक्षा मिलेला कि अपना कर्म के लाभ-हानि-फल आदि के भाव से मुक्त होके करे के चाहीं। हमरा कवनों तरह के सांसारिक मोह-माया में पर के अपना चरित्र के धूमिल ना करे के चाहीं। हमनी के अपना चरित्र के लेके सदा सतर्क रहे के चाहीं आ एही प्रयत्न में रहे के चाहीं कि हमनी के चरित्र सदा कमल-पुष्प नाहिन होखे। काहेकि ऊ कीचड़ में रहके भी कीचड़ से विमुख रहेला। हमनी के जीवन-चरित्र भी अइसने होखे के चाहीं। जवना से एह संसाररूपी कीचड़ में रहके भी हमरा आत्मा पर कवनो तरह के दाग लागे ना पावे। ऊ सदा-सर्वदा निर्मल बनल रहे। वरना समरभूमि में गीता के उपदेश के औचित्य का रहे?

गीता में कर्मयोग पर ही अधिक चर्चा बा। अब सवाल ई बा कि कर्मयोग ह का? कर्मयोग कुछ अउर ना ह, बल्कि अध्यात्म के ही व्यवहार में उतारल ह। अर्जुन रणभूमि में अपना पितामह, सगा-संबंधी, गुरु आदि के देख के विचलित हो गइले आ भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध ना लड़े के बात कहे लगले। अर्जुन के अपना कर्तव्य से बिमुख  देख भगवान श्री कृष्णा उनका के कर्मयोग के उपदेश देहले। भगवान श्री कृष्णा द्वारा देहल इहे कर्मयोग के उपदेश एक तरह से गीता के निचोड़ ह। भगवान श्री कृष्णा अर्जुन से कहतारन कि तू सुख-दुःख, लाभ-हानि, यश-अपयश, विजय-पराजय के बिना विचार कइले आपन कर्म करs । युद्ध लड़s । अइसन कइला से तहरा कवनो तरह के पाप ना लागी-

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।”

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के दूसरा अध्याय के 47 वाँ श्लोक में ई बात कहल गइल बा कि कर्म पर ही तहार अधिकार बा (कर्म मार्ग), तू आपन कर्म करs । ओकर फल तहरा हाथ में नइखे। एह से तहरा ओकर चिंता करे के जरूरत नइखे। बाकिर तू जइसन कर्म करब ओकर फल ओकरे अनुरूप मिली। अगर हम इंग्लैंड के प्लेन में बइठ के अमेरिका में लैण्ड करे के चाहेब त ऊ व्यवहारिक ना कहाई। काहेकि हमरा अपना जवना डेस्टिनेश्न पर पहुँचे के बा, त ओही डेस्टिनेश्न के प्लेन में बइठ के फ्लाई भी करे के पड़ी, ना त हमरा बहुत फेर लाग जाई।

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ में एह बात पर विशेष बल देहल बा कि हमरा कवनों भी अवस्था में कर्म फल के इच्छा ना होखे के चाहीं। काहेकि कर्म फल में यदि हमार तृष्णा होई, त हम अपना ओह कर्म फल के कारण भी बन जायेब।  गीता में एही बात के एह तरह से कहल बा कि तू अपना कर्म-फल के कारण मत बनs । काहेकि अगर तू कर्म फल के कामना से प्रेरित होके कवनो कर्म के ओर प्रवृत्त होखबs , तब इहे कर्म फल के कामना तहरा पुनर्जन्म के हेतु बन जाई आ तू संसार-चक्र के जीवन-मृत्यु के फेर में पड़ जइबs । अगर तू आपन कर्म, कर्म-फल के प्राप्ति के कामना के बिना ही करबs , त तहरा अपना कर्म के करे में दुःख के अनुभव भी ना होई। एह से सिर्फ ‘कर्म करे’ में ही ना बल्कि ‘कर्म ना कइला’ में भी तहार आसक्ति या प्रीति ना होखे के चाहीं। काहेकि कर्तव्य कइल ही तहरा अधिकार क्षेत्र में बा। ओह कर्तव्य के फल देहल चाहे ना देहल तहरा अधिकार क्षेत्र से बाहर बा। एतने भर ना, तहरा कर्म फल के ‘हेतु’ भी ना बने के चाहीं आ अकर्मण्यता में तहार आसक्ति भी ना होखे के चाहीं-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफल हेतुर्भूर्मा ते सङ्गो sस्त्वकर्मणि।।”

 

भगवान श्री कृष्णा अर्जुन से कहतारन कि कर्म आ अकर्मण्यता दूनू में से कवनो में हमार आसक्ति ना होखे के चाहीं। बाकिर एकर अर्थ ई ना भइल कि हम अपना कर्म से विमुख हो जाईं। काहेकि अइसन कइला से हमार लोक आ परलोक दूनू बिगड़ी। एह से भगवान श्री कृष्णा अर्जुन से कहतारन कि यदि तू स्वधर्म के करे में कोताही कइलs त निश्चित रूप से अपना कर्तव्य के उपेक्षा कइला के पाप तहरा लागी आ तू एक वीर योद्धा के रूप में अपना यश के धूल में मिटा देब-

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।

अतः सर्वधर्मं कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।”

 

 

एह धरती पर जे जन्म लेहले बा, ओकर मृत्यु त निश्चित बा। काहेकि आत्मा से शरीर के संबंध खत्म भइल ही त मृत्यु ह। आत्मा अमर होला, अर्थात एकर मृत्यु ना होला। एह से केहू के मरला पर शोक ना करे के चाहीं। काहेकि जब हमार मृत्यु होला तब हमरा आत्मा के मृत्यु ना होखे बल्कि सिर्फ़ शरीर के ही मृत्यु होला; जे स्वयं नाशवान होला। एह से ओकरा नाश भइला पर दुःख कइसन? जे नाशवान बा ओकर नाश आज ना काल्ह त होखबे करी। एह से जेकर क्षय निश्चित बा ओकरा क्षय पर शोक कइसन?

इहे ऊ कारण ह, जवना के चलते केहू के मृत्यु पर शोक कइल गीता में ही ना ज्ञानी लोगन द्वारा भी अनुचित ठहरावल गइल बा। एही से ज्ञानी लोग केहू के जन्म या मृत्यु पर हर्ष या शोक ना करे। कवनो आत्मा के एक शरीर के त्यागे के बाद पुनः जब नूतन शरीर धारण कइल भी निश्चित बा तब केहू के मृत्यु पर शोक कइल वाजिब भी नइखे। एह से अपना अपरिहार्य कार्य में, अपना कर्तव्य पालन में कवनो तरह के दुःख चाहे शोक ना करे के चाहीं-

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च।

तस्मादपरिहार्येs र्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।”

 

केहू के मृत्यु पर शोक करे के मनाही एह से भी बा कि जन्म आ मृत्यु दूनू एक दूसरा से जुड़ल बा। चूँकि केहू के मृत्यु के बाद ही ओकर आत्मा ओह शरीर के त्याग के नया शरीर धारण करेले। एह से अगर केहू के मृत्यु ही ना होई, तब के परिस्थिति सोची की का होई? एक ओर अपना बुढ़ापा आ रोग से जर्जर भइल अचलस्त शरीर अपना प्राण के त्यागे आ कष्टप्रद शरीर से छुटकारा पावे खातिर छटपटात रही आ ठीक ओकरा दोसरा ओर अपना घर में बच्चा के किलकारी सुने खातिर लोग तरसते रह जाई। एह से मृत्यु के शोक ना बल्कि स्वागत करे के चाहीं। काहेकि मृत्यु त भगवान के निमंत्रण ह। एही से विश्व प्रसिद्ध कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर के कहनाम बा-  “मृत्यु तो प्रभु का आमंत्रण है। जब वह आये तो उसका द्वार खोलकर स्वागत करो, चरणों में हृदय धन सौंप कर प्रभु का अभिनन्दन करो।” ई बात कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ टैगोर खातिर सिर्फ सिद्धांत ही ना रहे बल्कि ई उनका जीवन के सचाई भी रहे। एह प्रसंग में रवीन्द्रनाथ टैगोर से संबंधित एगो घटना हमरा इयाद आवता जेकर हम इहाँ जिक्र करे के चाहेब। एक बार के घटना ह कि सवेरे तीन-चार बजे के लपेट में रवीन्द्रनाथ टैगोर अपना कमरा के खिड़की से सटाके टेबल-कुर्सी पर बइठ के कविता लिखत रहलें। ओह समय उनका बुझाइल कि उनका टेबल पर केहू आदमी के छाया पड़ता। एह से ऊ पीछे मुड़ के देखले त उनका पीछे कोई घातक हथियार लेहले खड़ा रहे। रवीन्द्रनाथ ओह आदमी से एकर कारण पूछले त ऊ कहलस कि ऊ कवनों कारण से उनका से नाराज बा। एह से उनका के जान से मारे आइल बा। रवीन्द्रनाथ टैगोर ओह आदमी से ई बात सुनके तनिको घबड़इलन ना, बल्कि बहुत शान्ति के साथ ओकरा से कहलन कि तू हमरा के मारे के चाहsतारs त मार दीहs, बाकिर अभी हम एगो रचना करsतानी। एह रचना के पूरा हो जाये द। रवीन्द्रनाथ टैगोर के बात सुनके ऊ आदमी सोचलस कि फाँसी के सजा पावल मुजरिम के भी जब ओकर अंतिम इच्छा पूरा कइल जाला त काहे ना हम इनकर ई इच्छा पूरा क दी? ई सिर्फ आपन कविता पूरा करे के समय माँगsतारन। कोई अइसन बात त कहत नइखन जे हमरा के मुश्किल में डाल देव। फेर काहे ना हम इनकर ई इच्छा पूरा ही क दी?  ई बात सोच के ऊ आदमी रवीन्द्रनाथ के आपन कविता पूरा करे के समय दे देहलस। बाकिर एने ऊ उनकर कविता पूरा भइला के इंतज़ार में अपना हाथ में हथियार लेहले उनका लगही खड़ा रहे आ ओने ऊ शान्तचित्त बइठके आपन अधूरा रचना पूरा करे में लागल रहले। मानो उनका खातिर ऊ चिंता के कवनो बात ही ना होखे।

एने रवीन्द्रनाथ टैगोर अपना कुर्सी पर बइठल शान्त मन से अपना रचना के पूरा करे में तल्लीन रहले आ ओने उनकर हत्या के इरादा से आइल ऊ आदमी उनका के चुपचाप निहारत रहे। जब रवीन्द्रनाथ जी के रचना पूरा हो गइल तब ऊ ओह आदमी के ओर मुखातिब होके कहले कि अब हमार कविता पूरा हो गइल तू हमरा के मार सकेलs। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के एह बात पर ऊ आदमी कहलस कि आइल त रहनी ह रउरा के मारे ही। काहेकि हम रउआ से कवनो कारणवश नाराज रहनी ह। बाकिर जे आदमी अपना सामने आपन मौत के देख के भी, बिना कवनो डर-भय के शान्तचित्त बइठ के अपना रचना के तल्लीनता से पूरा करत होखे, ऊ कोई सामान्य आदमी त हो ना सकेला, आ जे असाधारण व्यक्तित्व के आदमी होखे ओकरा के हम एक तुच्छ कारण से मारके अपना के कलंकित क लीं, ई साहस त हमरा में नइखे। ई कहत ऊ आदमी अपना बैर भाव के छोड़ कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर के चरणन पर गिर पड़ल।

मृत्यु आ जीवन एक ही घटना के दूगो पहलू ह। काहेकि मृत्यु जीवन के उदगम ह त जीवन के पर्यवसान भी मृत्यु के गोद में ही होला। जइसे रात के कोख से ही दिन के उदय होला। ठीक वइसे ही जीवन भी मृत्यु के कोख से ही पैदा लेला। अगर केहू के जीवन ही ना मिलल होई तब ओकर मृत्यु कइसे होई? एही से जइसे दिन के अंत रात होला ठीक वइसे ही जीवन के अंत ह मृत्यु। वस्तुतः मरण ही नवजीवन के मूल भी ह। नेहरू जी के एह संदर्भ में कहनाम बा- “मृत्यु से नया जीवन मिलता है। केवल वहीं से, जहाँ से मनुष्य मृत्यु की गोद में सोता है। पुनरुत्थान का शुभारम्भ होता है।”

मृत्यु चिरन्तन सत्य ह। एह से एह पर विश्व के हर क्षेत्र के लोग आपन विचार रखले बा। पाश्चात्य विचारक कोल्टन मृत्यु के एक अलग नजरिया से देखsतारन। उनकर कहनाम बा- “मृत्यु उन्हें मुक्त कर देती है जिन्हें स्वतंत्रता भी मुक्त नहीं कर सकती। यह उनकी प्रभावशाली चिकित्सा है जिन्हें औषधियाँ ठीक नहीं कर सकतीं। यह उनके लिए आनन्द और शान्ति की विश्राम-स्थली है जिसे समय सान्त्वना नहीं बोल पाता।”

हमनी के दिनभर अपना जीवन के कार्य-व्यापार में लागल रहेनी सन। जवना के चलते रात में थकान से चूर-चूर भइल शरीर विछावन पर जाते निढाल गिर जाला आ गाढ़ा नींद में हमनी के सुत जाइले। हमनी के सुतला से दिनभर के थकान दूर हो जाला। एह से दोसरा दिने सवेरे आशा आ उत्साह के साथ ही ना बल्कि ताजगी आ स्फूर्ति के साथे भी उठेनी सन आ अपना जीवन के कार्य-कलाप में लाग जाइले। ठीक वइसे ही मृत्यु भी एक निंद्रा ह। सिर्फ निंद्रा ही ना एकरा के महानिंद्रा कहल ज्यादा उचित होई। काहेकि अज्ञात बाकिर जवना में केहू के जीवन भर के दौड़-धूप से थाकल आ परेशान शरीर जब अपना जीर्ण-शीर्ण अवस्था में सुतेला तब फेर नूतन जन्म के साथे जागेला। अपना एक नया, सुन्दर आ सुकोमल शरीर के साथे। एक नन्हा शिशु के रूप में। अपना नया जीवन के अनुरूप ऊ किलकारी भरत, उछल-कूद करत रहेला। काहेकि ऊ अपना नूतन शरीर में नवीन चेतना के आ नया स्फूर्ति के साथे ही एह धरती पर प्रवेश कइले रहेला। गीता में एही बात के एह तरह से लिखल गइल बा-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्वाति नरोsपणानि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।”

अर्थात जवना तरह मनुष्य पुराना वस्त्र के त्याग के नया वस्त्र धारण करेला, ओही तरह आत्मा पुराना तथा व्यर्थ के शरीर के त्याग के नवीन भौतिक शरीर धारण करेले। कहे के अर्थ ई कि जवना तरह फाटल, जीर्ण-शीर्ण पुरान कपड़ा के त्याग के आदमी नया कपड़ा पहिनेला, ठीक ओही तरह कुदरत मृत्यु के बहाने बुलावेले आ फेर नया जन्म के द्वारा एक शिशु के रूप में पुनः एह धरती पर हमनी के भेज देले। तब हम अपना पूर्व जन्म के कष्ट के भुला के एक निश्छल शिशु के रूप में किलकारी भरत, उछल-कूद करत, अपना नूतन शरीर, नवीन चेतना आ स्फूर्ति के साथे अपना नया जन्म के जीवन में प्रवेश करेनी।

बच्चा जब खाना-पीना भुला के अपना खिलौना आ दोस्त-साथी के साथे खेले में मशगूल रहेला तब ओकर माई ओकरा के अपना गोदी में अपना बच्चा के उठा ले जाले। ओकरा के दूध पिलावेले आ थपकी देके अपना गोदी में सुता देले। ठीक वइसे ही प्रकृति भी हमनी के भरण-पोषण करेले आ हमनी के मृत्यु के बाद भी अपना कोख में स्थान देले। ऊ फेर से हमनी के अपना क्रीड़ांगन में खेले खातिर नूतन वस्त्र रूपी हमनी के आत्मा के नया चोला देके, नया जीवन जिये खातिर एह धरती पर पुनः भेज देले।

हमार मृत्यु- हमरा जीवन के आवश्यक ही ना अनिवार्य अंग ह। जब हमरा जीर्ण-शीर्ण शरीर में हमार आपन शक्ति क्षीण हो जाला, तब हमरा अपना शरीर के कमज़ोर भइला के कारण केहू दोसरा पर आश्रित हो जाये के परिस्थिति बन जाला। केहू के मदद के बिना हम आपन नित्यकर्म करे में भी असमर्थ हो जाइले। जब हमार पहिले से ही जर्जर शरीर असाध्य रोगन से अउर भी जर्जर हो जाला, तब ओह असाध्य रोगन से हमनी के मृत्यु ही छुटकारा दिलावेला।

मृत्यु एक महायात्रा ह। महा प्रस्थान ह। महा निद्रा ह। जइसे हम काम कइला के बाद सैर-सपाटा पर जाइले। वइसे ही हम मृत्यु के बाद अनन्त जीवन-सागर में गोता लगावे खातिर एक मनोरम प्रदेश के महायात्रा पर निकल जाइले। आज हम ओकर मात्र कल्पना भर कर सकेनी; अपना अनुभव के एहसास ना करा सकेनी। काहेकि हमनी के अपना पूर्व जन्म के कुदरती रूप से स्मरण ना रहेला।

जीवन के परम लक्ष्य के प्राप्ति खातिर हमरा जन्म-मरण के सोपान से होके ही गुजरे के पड़ेला। मरण के अर्थ भइल वर्तमान सोपान से आगे के सोपान पर पहुँचे खातिर पैर उठावल। वइसे ही जन्म के अर्थ भइल सामने के सोपान के आधार लेके ऊपर पहुँचे के तैयारी।

हम अपना जीवन में जवन भी अच्छा-बुरा कर्म कइले रहेनी, हमरा मृत्यु के बाद ओकर हिसाब होला। अगर हम कवनों भी लालसा से कवनों अच्छा कर्म कइले बानीं त हमरा ओह कर्म के फल भोगे खातिर धरती पर आवहीं के पड़ी। स्वर्ग प्राप्ति के लालसा से हम अगर कोई दान-पुण्य कइले बानीं त ऊ हमरा कर्म-एकाउंट के ओह मद में पुण्य क्रेडिट होत जाला आ हम ओही के भरोसे फ़ाइब स्टार होटल नाहिन स्वर्ग के सुख भोगी ले। जेतना दिन ले हम स्वर्ग में रहेनी हमरा सुकर्म के ओही एकाउंट में से क्रेडिट हमार कर्म-फल धीरे-धीरे डेविट होत रहेला। फेर एक दिन जब हमार क्रेडिट- बाइलेंस शून्य हो जाला तब स्वर्ग से हम चेक आउट क जाइले। अइसहीं हमार बुरा कर्म हमनी के नर्क के रास्ता दिखा देला। जब उहाँ भी हमरा नर्क के कॉलम में जे बुराई के एकाउंट के बैलेंस बा ऊ जब डेविड होत-होत शून्य रह जाला तब हमरा ओह नर्क से भी छुटकारा मिल जाला आ हम फेर से एह संसार-चक्र के आवा-गमन (जन्म-मृत्यु) के क्रम में शामिल हो जाइले। इहे हमरा अनुसार स्वर्ग-नर्क आ जीवन-मृत्यु के पहेली ह।

एही से कबीरदास जी भी आत्मा के पवित्रता पर बल देतारन। ऊ एही बात के अलग तरह से कहsतारन। उनकर कहनाम बा कि संसार में रहके भी हमनी के संसारिक मोह-माया में आसक्त ना रहके चाहीं। हमरा एह सबसे बिमुख रहे के चाहीं। अपना आत्मा पर कवनों तरह के दाग ना लगावे के चाहीं। उनकर कहनाम बा-

दास कबीर जतन करि ओढ़ी,

ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।”

कबीरदास के इहो मानना बा कि मौत के डर से आदमी के एतना भयभीत ना हो जायेके चाहीं कि आदमी अपना वर्तमान के ही चौपट कर दे। काहेकि हम अपना मौत से कहाँ ले भागेब? एही से कबीरदास जी कहsतारे अपना मौत से तू काहे भागsतार? तू काहे भ्रम में भटकsतार? तू गहरा नींद में काहे सुतल बारs? मौत त तहरा सिराहने वइसे ही खड़ा बा जइसे अँधेरा में चोर खड़ा रहेला-

“कबीर गाफील क्यों फिरय, क्या सोता घनघोर,

तेरे सिराने जाम खड़ा, ज्यों अंधियारे चोर।”

जीवन कहाँ स्थायी रहे वाला बा? ई त क्षणभंगुर ह। आज जे हमनी के बीच खेलता-कूदता, ऊ काल कवना स्थिति में रही ई के जानता? एह से कबीरदास जी  कहतारे कि जीवन के सुख भी स्थायी ना रहे। पल में माशा, पल में तोला के बात के कहो, तनिये देर बाद परिस्थिति बिलकुल ही बदल जाला। ई जीवन क्षण में खारा आ क्षण में मीठा हो जाला। जवना योद्धा के काल्ह ले मैदान में अपना प्रतिद्वंद्वी के धूर चटावत हमनी के देखले रहनीं सन, जे अपना प्रतिद्वंद्वी चुटकी में पराजित करत रहे, आज उहे अपना मौत से पराजित हो शमशान भूमि में परल बा-

“कबीर जीवन कुछ नहीं, खिन खारा खिन मीठ।

कलहि अलहदा मारिया, आज मसाना ठीठ।।”

एह से केहू के मरला-जियला पर हर्ष-विषाद कइला के जरूरत नइखे। काहेकि कुदरत जवना खातिर जवन समय निश्चित कइले बा ऊ अपना समय पर ही होई। काहेकि सृष्टि अपना समय पर उत्पन्न होले आ अपना समय पर ओकर अंत भी होला। समय पर ही सब चीजन के विनाश होला। काल भी काल के खा जाला-

काल पाये जग उपजो, काल पाये सब जाये।

काल पाये सब बिनसि है, काल काल कह खाये।।” 

चूँकि अपना समय पर सबके नाश निश्चित बा। एह से केहू के मरला पर रोअला के जरूरत नइखे। भक्तन के मरला पर त बिलकुल रोये के जरूरत नइखे। काहेकि जे भक्त अपना मृत्यु के बाद अपना आराध्य देव के कल्याणकारी रूपी अविनाशी घर में प्रवेश पा लेहले होखे, ओह भक्त के शरीर छोड़ला पर शोक कइसन ? अगर शोक मनावे के भी बाटे त ओह बेचारा के मरला पर शोक मनावे के चाहीं, जे ना भक्ते बा ना ज्ञानी बा। काहेकि ओकरा मरला के बाद मुक्ति ना मिली बल्कि ऊ संसार-चक्र में उलझ के रह जाई। मरला के बाद ओह ईश्वरांश के अपना परमपिता परमेश्वर में विलय ना होई बल्कि ऊ चौरासी लाख योनियन के चक्र में फँस के ही रह जाई। ऊ कहीं अउर नइखे जा रहल बल्कि ओही बाज़ार में बिके जा रहल बा-

“भक्त मरे का रोइये, जो अपने घर जाय।

रोइये साकट बपुरे, हाटों हाट बिकाय।।”

भगवान श्री कृष्णा के अनंत प्रेम-रस में डूबल मीराबाई के अनुरागी मन भी एह नश्वर शरीर के ठीक-ठीक पहचानत रहे। एह से ऊ बरजत कहतारी कि अपना शरीर के घमंड ना करे के चाहीं। काहेकि एह शरीर के मिट्टी में मिलल तय बा। कहे के मतलब ई बा कि क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर एह पाँच महाभूतन से निर्मित एह शरीर के अंत में एही पंचमहाभूतन में मिल जायेके बा। एह से अपना के सार्थक आ अच्छा काम में ही लगावे के चाहीं। ई संसार चिड़िया के खेल नाहिन ह। जइसे चिड़ई दिनभर चहचहात रहेले। अपना दाना-पानी खातिर एने-ओने घूमत रहेले आ सांझ होते पुनः अपना घोषला में लौट आवेले। ठीक वइसे ही हम अपना जिन्दगी भर मोह-माया में लपेटाइल रहनीं। बाकिर एक दिन ई सब छोड़ के ही जायेके बा। एह से मीराबाई कहतारी-

“या देही रो गरब ना करना माटी मा मिल जासी।

यो संसार चहर की बाजी साँझ पड्या उठ जासी।”

स्वामी विवेकानंद जी के जीवन आ मृत्यु के प्रति जे उद्भावना बा ऊ भी परम्परागत भारतीय विचार धारा से ही मेल खाता। ऊ जीवन-मृत्यु के प्रति आपन कवनो मौलिक विचार नइखन देत बल्कि उनका वक्तव्य से त अइसने लागता कि मानो ऊ श्रीमद्भागवत गीता में देहल जीवन-मृत्यु के सिद्धांत के ही अपना तरस से व्याख्या करत होखस। ऊ कहतारन- “आत्मा अजर है, अमर है, पूर्ण और अनन्त है; और मृत्यु का अर्थ आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानांतरण है।”

कुंवर नारायण अपना काव्य संग्रह ‘चक्रव्यूह’ में कहतारन-

 

“जीवन के अंत को मृत्यु कहते हैं।”

श्रीमद्भगवद्गीता के पाँचवाँ अध्याय के 21 श्लोक में भी भगवान श्री कृष्णा अर्जुन से कहतारन कि तू अपना सांसारिक कामन के एह तरह से करs कि ओमे तहार आसक्ति ना होखे। काहेकि बाहर के विषयन में आसक्ति रहित अन्तःकरणवाला साधक आत्मा में स्थित जे ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द बा ऊ ओकरा प्राप्त होला। ओकरा बाद ऊ सच्चिदानन्दधन परब्रह्म परमेश्वर के ध्यान रूप योग में अभिन्नभाव से स्थित पुरूष अक्षय आनन्द के प्राप्त करेला-

“बाह्यस्पर्शेष्वसक्तातमा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।

स      ब्रह्मयोगयुक्तात्मा     सुखमक्षयमश्नुते ।।”

‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के ‘कर्मयोग’ नाम के तीसरा अध्याय में ज्ञानयोग आ कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करे के श्रेष्ठताके निरूपण कइल गइल बा। भगवान श्री कृष्णा अर्जुन से राजा जनक नाहिन आचरण करे के कहतारन। जे संसारिक जिम्मेवारी के निभावत भी विदेह के नाम से जानल गइलन। भगवान श्री कृष्णा अर्जुन के कर्मयोग खातिर प्रेरित करत कहतारन कि जनकादि ज्ञानीजन भी अपना आसक्ति रहित कर्म द्वारा ही परम सिद्धियन के प्राप्त कइले रहे। येह से ऐ पार्थ तहार कर्म कइल ही उचित होई-

“कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसङग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि। ।”

कहे के अर्थ ई बा कि द्वापर काल के गीता में भगवान श्री कृष्ण के जीवन-मृत्यु के प्रति विचार होखे, मध्यकालीन कबीरदास या मीराबाई के विचार होखे चाहे आधुनिक काल के स्वामी विवेकानंद जी के विचार होखे। सब लोग अपना-अपना तरह से ही सही, बाकिर एक स्वर में इहे कहले बा कि शरीर नश्वर है आ आत्मा अमर। हमरा अभी जवन शरीर मिलल बा ओकरा के केतनो सम्भाल के रखेब, अंततः ओकरा पंचतत्व में ही समाहित हो जाये के बा। एह से जे ज्ञानी बा ऊ ना अतीत के दुःख आ शोक में देह गलावेला आ ना ही अपना भविष्य के चिंता के बेचैनी में रहेला। एह से जे बुद्धिमान लोग बा, एह बात के बखूबी समझे ला कि अपना अतीत के त आदमी बदल ना सकेला। बाकिर अपना वर्तमान के अगर ऊ सँवार ली त ओकरा वर्तमान के नींव पर ही ओकर भविष्य भी अपने आप सँवर जाई। काहेकि हमार भविष्य त हमरा वर्तमान के गर्भ से ही निकलेला। हम जइसन अपना परीक्षा के कॉपी में लिखले रहेब ओइसने नू हमरा नम्बर मिली? एही से कहल बा-

“गते शोको न कर्तव्यो भविष्यं नैव चिन्तयेत्।

वर्तमानेन   कालेन   वर्तन्ति   विचक्षणा:।।”

अंत में हम इहे कहे के चाहेब कि हमनी के अपना वर्तमान के ही सजावे-सँवारे के चाहीं। अपना में कवनो गुण विकसित करे के चाहीं। ज्ञान-विज्ञान, साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़े के चाहीं। हमरा अपना अंदर तप, दान, गुण, शील कुछ भी अइसन विकसित करे के चाहीं जे हमार मनुष्योचित गुण के निखारे। हमनी के मनुष्येतर प्राणियन से अलग करत होखे। वरना हमरा में आ जानवर कोन अंन्तर रही?-

 

“येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः!

ते  मर्त्यलोके भुविभार भूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति!!”

Hey, like this? Why not share it with a buddy?

Related Posts

Leave a Comment

Laest News

@2022 – All Right Reserved. Designed and Developed by Bhojpuri Junction